विदेशों में योग प्रचार बचकाना खिलवाड़ न बनाया जाय

February 1975

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योग-विज्ञान के प्रति संसार के प्रायः सभी प्रगतिशील देशों में इन दिनों भारी उत्साह है और उस दिशा में उत्सुकतापूर्वक खोज और प्रयोग के लिए प्रयास चल रहे हैं भौतिक जगत के बाहर कोई अध्यात्म शक्ति या चेतना नहीं है - कोई अध्यात्म नहीं है, जब तक यह निराशा छाई रही, तब तक का समय योग की उपेक्षा का समय था, पर अब जबकि भौतिक शक्तियों की तरह ही अध्यात्म शक्तियों की सता सामने स्पष्ट हो रही है तो स्वभावतः खोज का वह नया क्षेत्र होना ही चाहिए। व्यक्ति की कायिक और मानसिक चेतना के अंतर्गत एक अत्यन्त सुविस्तृत रहस्यमय क्षेत्र का अस्तित्व स्वीकार किया जा चुका है और यह स्वीकार किया जा चुका है कि यदि मानवी सता के इन रहस्यमय परतों का उद्घाटन किया जा सके तो मनुष्य में ऐसी असाधारण विशेषताएं प्रकट हो सकेंगी जैसी कि योगी और सिद्ध पुण्यों में बताई पाई जाती हैं। योग इन्हीं रहस्यमय शक्तियों को उभारने और उनका अभीष्ट उपयोग करने की महत्वपूर्ण विद्या ही तो है।

योग-दर्शन का एक और पक्ष है - मानसिक असन्तुलन को सन्तुलन में बदलना - अशान्त, उद्विग्नता को शान्त समस्वरता में परिणत करना। आज जीवन की समस्याएं इतनी उलझी हुई हैं कि मनुष्य को पग- पग पर क्षुब्ध, चिन्तित और उद्विग्न होना पड़ता है। पारस्परिक स्नेह, सद्भाव प्रायः घटते-मिटते चले जा रहे हैं। समाज की व्यवस्था मर्यादा टूट रही। झुण्ड और भीड़ मात्र में हम रह रहे हैं, समाज में जो सुरक्षा और प्रगति का वातावरण होना चाहिए वह तिरोहित होता चला जा रहा है। अपराध, असहयोग, शोषण और छल की बढ़ती हुई प्रवृत्तियों ने किसी को किसी का होने की स्थिति में नहीं छोड़ा है। एक दूसरे पर घात लगाये हुए और अपनी सुरक्षा के लिए चिन्तित रहकर ही प्रायः जन-जीवन व्यतीत होता है। ऐसी दशा में मनुष्य निरन्तर क्षुब्ध, संत्रस्त और आशंकित आतंकित ही रह सकता है।

यदा-कदा मानसिक उद्विग्नता के क्षण आते हैं तो स्वाभाविक जीवन-क्रम को तोड़-मरोड़कर रख देते हैं। यदि वैसी विक्षुब्ध स्थिति निरन्तर बनी रहे तो फिर क्या दशा होगी, क्या बीतेगी, इसका विवरण भुक्तभोगी ही दे सकते हैं। वैज्ञानिक, आर्थिक और बौद्धिक प्रगति ने सुख साधन कितने ही अधिक क्यों न जुटाये हों, निश्चित रूप से उसने मनुष्य की मानसिक स्थिति को मरघट जैसे वीभत्स वातावरण में रहने के लिए बाध्य कर दिया है। उन्नतिशील देश अनुभव करते कि एकांगी भौतिक प्रगति उन्हें बहुत महंगी पड़ी है। आध्यात्मिक आस्थाओं को गंवाकर उन्होंने जो खोया है वह प्रगति के नाम पर मिली चमक-दमक से कहीं अधिक मूल्यवान था।

विक्षोभ और असन्तोष के जाल-जंजाल में से निकलने के लिए निराशा का एक छोर है - हिप्पीवाद। जो अपने ढंग से पनप रहा है किन्तु चूल्हे में से निकलकर भाड़ में घुसने की तरह - नाश का इलाज महानाश से करने की तरह- उससे भी कुछ काम नहीं चलता। उसमें विक्षोभ और विद्रोह का प्रकटीकरण ही तो है समाधान नहीं। खीज का प्रकटीकरण ही तो समाधान नहीं है। मनुष्य अपनी जलन का - गुत्थी का हल चाहता है। इस दिशा में गहरा चिन्तन करने पर अध्यात्म की शरण में जाने का ही एकमात्र उपाय सूझता है। भूतकाल के ऋषि युग की सुख-शान्ति का उज्ज्वल इतिहास उन्हें समाधान के लिए अपनी ओर आने के लिए आकर्षित आमन्त्रित करता है। अस्तु भारतीय अध्यात्म की ओर उनकी प्रवृत्ति छाई हुई विपत्ति के अनुपात से तीव्रगति से उभर रही हो तो आश्चर्य की बात नहीं।

योग के सम्बन्ध में इन दिनों पाश्चात्य जगत में मारी दिलचस्पी है। इस सम्बन्ध में वे पुस्तकों की बहुत खोज-बीन करते हैं। भारत को वे योग का उद्गम केन्द्र मानते हैं। कोई विचारशील जैसा भारतीय उन्हें दिखाई पड़ता है तो योग की बात बड़ी दिलचस्पी के साथ पूछते हैं। उनकी भारत की लम्बी यात्रा करने का मुख्य प्रयोजन प्रायः योग सम्बन्धी जानकारी एवं शिक्षा प्राप्त करना ही होता है, इस स्थिति को चतुर लोगों ने भाँपा है। अस्तु भारत से पिछले दिनों तथाकथित योगियों का निर्यात बहुत ही उत्साहपूर्वक हुआ है। उन्होंने जहाँ-तहाँ योग-शिक्षा के सेन्टर खोले हैं और तनिक से प्रयास से आकाश-पाताल जैसी सफलताएं प्राप्त की हैं। इन दिनों विदेश में जाकर टूटी-फूटी योग शिक्षा देने लगना और योगाचार्य बन जाना बहुत ही सरल है। जिसने दस - पाँच योग की पुस्तकें उलट-पुलट ली हों और अंग्रेजी में बोलने का ठीक से अभ्यास कर लिया हो, इन दिनों योरोप और अमेरिका में ऐसे भारतीय योगियों द्वारा चलाये गये योग सेन्टरों की भरमार है। शिष्य लोगों की कौतूहलग्रस्त भीड़ उनमें धकापेल बनी रहती हैं।

यह अत्यन्त ही उपयुक्त अवसर था जबकि प्राचीन काल की तरह अध्यात्म का सही और सुसन्तुलित रूप विश्व को समझाया जा सकता था। लोगों को मरण के भंवर से उबार कर जीवन के तट पर पहुँचाया जा सकता था। अध्यात्म की गरिमा का वर्चस्व समझाकर भारतीय को जगद्गुरु का श्रद्धा सम्मान पुनः उपलब्ध कराया जा सकता था। यह मानवता की - ब्रह्मविद्या की महती सेवा साधना होती। इस युग की इसे एक महानतम दैन कहा जा सकता था, पर यह हो सब तभी सकता था जब हमारा दृष्टिकोण लोकरंजन नहीं लोकमंगल रहा होता। सस्ती और नकली चीजें अबोध बालकों के हाथों बेचकर अधिक पैसे कमाने वाले गली-कूचे में फिरने वाले फेरी वाले से अधिक ऊँची स्थिति हमारी होती। आज का बालक - मस्तिष्क सस्ती - जल्दी निपटने वाली और चमत्कारी चीजें चाहता है। योग के बारे में भी उसकी शिशु मान्यताएं इसी स्तर की हैं। जैसी माँग वैसा माल तैयार करने के लिए सिनेमा वाले, पुस्तक विक्रेता चित्र प्रकाशक जुटे हुए हैं और दोनों हाथों माल कमा रहे हैं। यदि वही मनोवृत्ति योग- शिक्षा में भी रहेगी तो आज का उत्साह कल ठण्डा ही पड़ेगा। ऊँची आशा दिलाकर आरम्भिक उत्साह जगाया जा सकता है यह ठीक है, पर यह उससे भी ज्यादा ठीक है कि कुछ ही समय में जो असफलता जन्य निराशा सामने आती है उससे उबरना फिर कभी भी सम्भव नहीं होता। योग को सस्ता और उथला बनाकर हम ब्रह्मविद्या की सेवा नहीं कुसेवा ही कर रहे हैं।

विदेशों में योग प्रचार का जो क्रम इन दिनों चल रहा है उसमें छोटी-मोटी शारीरिक और मानसिक कसरतें ही सीमाबद्ध होकर रह जाती हैं। आमतौर से अंकों को तोड़ने-मरोड़ने की क्रिया - आसन पद्धति को मार्डन योग का प्रमुख आधार माना गया है। योग सेन्टरों में वैसा ही कुछ शिक्षण चलता है। गहरी साँस लेने के कई तरीके उलट-पुलक कर प्राणायाम बता दिये जाते हैं। इससे आगे की दो मानसिक साधनाएं हैं। एक ध्यान की एकाग्रता मेडीटेशन - दूसरी स्वसंकेतन हिप्नोटिज्म। बस सारा योग इतने में ही समाप्त हुआ समझा जाना चाहिए। विदेशों में भारतीयों द्वारा चलाये जाने वाले योग सेन्टर इसी परिधि में चक्कर काटते हैं। क्रिया-कलाप और शिक्षा विधि में - कहने, समझाने के ढंग में थोड़ा अन्तर रहता है, पर तथ्य इसी सीमा में भ्रमण करता रहता है।

इस शिक्षा से यत्किंचित् लाभ भी होते हैं। आसनों के व्यायाम पाचन सम्बन्धी तथा दूसरी छोटी-मोटी शारीरिक कठिनाइयाँ हल करते हैं। प्राणायाम से फेफड़े खुलते हैं और स्फूर्ति का अनुभव होता है। मस्तिष्क की घुड़दौड़ घटाने वाला मेडीटेशन भी मानसिक विश्राम की आवश्यकता कुछ दूर तक तो हल करता ही है। हिप्नोटिज्म - स्वसंकेत - से अनियन्त्रित मानसिक प्रवाह को अभीष्ट दिशा में मोड़ने की थोड़ी सी सहायता मिल सकती है। बस इतना ही लाभ इस बचकानी योग-शिक्षा का है। बात को बढ़ाकर कुछ भी कहा जा सकता है और कहा भी जाता है।

योग और अध्यात्म को छुट-पुट शारीरिक, मानसिक व्यायामों तक सीमाबद्ध कर देना वस्तुतः उसकी गरिमा को नष्ट करना है और विश्व जिस आशा से मानवी समस्याओं के समाधान का हल अध्यात्म क्षेत्र से निकालने के लिए टकटकी लगा रहा है उसे हताश और निराश बना देना है। भारत के अध्यात्म क्षेत्र को इस दिशा में समय रहते सचेत होना चाहिए अन्यथा समय की माँग पूरा न कर सकने पर यह अवसर फिर सदा के लिए हाथ से चला जायेगा।

योग में शारीरिक और मानसिक व्यायामों के लिए - साधनात्मक कर्मकाण्ड के लिए भी स्थान है, पर उसकी मूल प्रवृत्ति चिन्तन के स्वरूप को - ऊँचा उठाना है। अपनी सता और दिशा को परिष्कृत करना है। पदार्थों और व्यक्तियों के प्रति दृष्टिकोण का परिमार्जन करना है। वस्तुतः योग एक दर्शन है। सर्वत्र आत्म-सत्ता की अनुभूति से विश्व मानव की - विश्व परिवार की भावना विकसित होती है और स्नेह-सौजन्य का उभार आता है। इसी पृष्ठभूमि में ममता और आत्मीयता घनिष्ठ होती है। चरित्र निखरता है। संयम और सेवा के लिए उत्साह उमंगता है। दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों की जड़ कटती है। मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का आधार वे आत्मवादी आस्थाएं ही हो सकती हैं जिनकी प्रतिष्ठापना के लिए योग एवं अध्यात्म का सुविस्तृत कलेवर खड़ा किया है। अध्यात्म-ज्ञान और योग शिक्षा की पृष्ठभूमि में इसी परिष्कृत दार्शनिकता का प्रसार होना चाहिए। भौतिकता से विक्षुब्ध लोक-मानस को राहत, उन्हीं आस्थाओं की लोक-मानस में पुनः स्थापना से मिलेगी।

योग का बहिरंग रूप शारीरिक और मानसिक व्यायामों के रूप में सामने आये तो हर्ज नहीं। कर्मकाण्डों और साधना-विधानों को भी उसमें स्थान रहने की गुंजाइश है। पर यह भूल नहीं जाना चाहिए कि यह योग कलेवर है - उसका प्राण नहीं। प्राण तो उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की प्रेरणा देने वाले उपनिषद् प्रतिपादित उस अध्यात्म दर्शन में है जिसे प्राचीन काल में ब्रह्मविद्या कहा जाता था - जिसके आधार पर व्यक्ति अपनी सता का समष्टि में - समर्पण करता था। आत्मा को परमात्मा स्तर तक पहुँचाना - नर को नारायण, पुरुष को पुरुषोत्तम, अणु को विभु - लघु को महान बनाना जिसका लक्ष्य था। चिन्तन स्तर की अन्तरंग उमंगें ही बहिरंग जीवन पर आच्छादित होती हैं। उन्हीं से परिस्थितियाँ बनती हैं, घटनाएं घटती हैं और दिशाएं मुड़ती हैं। अध्यात्म शिक्षा का उद्देश्य इसी भावनात्मक मानवी मर्मस्थल को परिष्कृत और सन्तुलित करना होना चाहिए। योग की - सार्थकता इसी प्रयास की सफलता के साथ जोड़ी आँकी जानी चाहिए।

खेद है कि विदेशों में भारतीयों द्वारा चलाये जाने वाले वर्तमान योग प्रचार में इन तथ्यों का अभाव है। उनमें बाल सुलभ चपलता और कौतूहल प्रियता की उथली तृप्ति मात्र है। सस्ते प्रयास से अधिकतम लाभ लेने की जुआ प्रवृत्ति के आधार पर जो खेल खड़े किये जा रहे हैं वे आरम्भ में बचकानी भीड़ इकट्ठी कर सकते हैं और हाथों हाथ सफलता का चमत्कार दिखा सकते हैं, पर यदि

उनमें उच्चस्तरीय दार्शनिकता का अभाव रहा तो वह प्रयोजन पूरा हो ही नहीं सकेगा जिसके लिए भौतिकता से विक्षुब्ध प्रगतिशील जन-मानस ने योग एवं अध्यात्म की ओर आशा लगाना आरम्भ किया है। अच्छा हो प्रगतिशील देशों में अध्यात्म प्रसार के स्वर्ण अवसर को हम गम्भीरतापूर्वक देखें और विश्व मानव की युग माँग को पूरा करने के लिए ऐसे कदम बढ़ायें जिससे अध्यात्म की गरिमा को पुनः प्राचीन काल जैसी सर्वोच्च श्रद्धा को विश्व-व्यापी बनाना सम्भव हो सके। इस अवसर को यदि हमने खिलवाड़ में गंवा दिया तो यह भारत के लिए - अध्यात्म के लिए और लोक-मानस के लिए दुखद दुर्भाग्य की ही बात होगी।


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