आदिम काल से लेकर अब तक मनुष्य ने प्रगति पथ की अनेकों सीढ़ियां पार की हैं। इसी के साथ-साथ धर्म का भी विकास होता चला आया है। आदिम काल से मनुष्य ने पशु के आहार, निद्रा, भय, मैथुन की सीमित परिधि से आगे बढ़कर जब अपने इर्द-गिर्द के वातावरण को समझने का प्रयत्न किया होगा तो उसे भय लगा होगा। आग का गोला सूर्य, आकाश में चमकने वाले चाँद-तारे, दिन-रात का चक्र, बादलों की घटाएं, बिजली की कड़क, नदियों की चाल, समुद्र की लहरें, सिंह और सर्पों के उत्पात, जन्म और मरण जैसी विस्मयजनक हलचलों को उसने किन्हीं अदृश्य अतिमानवों की करतूत समझा होगा और उनके कोप से बचने एवं सहायक बनाने के लिए पूजा उपक्रम का कुछ ढंग सोचा होगा। सम्भवतः यहीं से उपासनात्मक अध्यात्म का आरम्भ हुआ है। एकाकी स्वेच्छाचार ने जब समूह में रहने की प्रवृत्ति अपनाई होगी तो आचार संहिता की आवश्यकता पड़ी होगी, अन्यथा सहयोग का अभिवर्धन और टकराव का समाधान ही सम्भव न होता। धर्म यहीं से चला है। अब हम धर्म और अध्यात्म को दो धाराओं में बाँटते हैं, पूर्व काल दोनों एक थे।
भय के बाद लोभ की प्रवृत्ति पनपी। उसने अतिमानवों से, देवताओं से अभीष्ट लाभ पाने की आशा रखी होगी। उनसे अवरोधों को दूर करने और वाँछित फल प्रदान करने का सहयोग माँगा होगा। तब मानव अपने पुरुषार्थ की तुच्छता और आकाँक्षाओं की प्रबलता का वह तारतम्य नहीं बिठा पा रहा होगा जिसे पशु-पक्षी सहज ही बिठा लेते हैं। उपलब्ध परिस्थितियों और निजी आकाँक्षाओं का वे सहज ही ताल-मेल बिठा लेते हैं और जो कुछ है उसी में सन्तुष्ट रहकर अपनी प्रकृति को तद्नुरूप ढाल लेते हैं। मनुष्य की आकाँक्षाएं बढ़ी और साधन सीमित रहे। ऐसी परिस्थिति में किन्हीं अदृश्य अतिमानवों का-देव-दानवों का पल्ला पकड़ना उसने उचित समझा होगा। देवाराधन का स्वरूप उस विकास युग में से थोड़ा-थोड़ा छुटकारा पाने और लोभ-लालच की परिधि में प्रवेश करने का बना होगा। स्वर्ग-नरक, शाप-वरदान, जिन अदृश्य शक्तियों द्वारा दिया जाता है उनके कोप से बचना और प्रसन्न करके लाभान्वित होना तब एक दिव्य कौशल रहा होगा। उन्हीं दिनों मन्त्र-तन्त्र के-देव परिकर के रूप, विधान गढ़े गये। संयोग वश जो भले-बुरे अवसर आते गये उन्हें दैवकृत माना जाता रहा इसी आधार पर अमुक विधान का खण्डन अमुक का मंडन क्रम चलता रहा।
धर्म के विकास का इतिहास मनुष्य की चेतना के-चिन्तन के साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर चलता आया है। भय और लोभ की व्यक्तिवादी आकाँक्षाओं से आगे बढ़कर मनुष्य अधिकाधिक समाज पर निर्भर होते चलने की स्थिति में यह समझने के लिए बाध्य हुआ कि समूहगत हलचलें मनुष्य को अत्यधिक प्रभावित करती हैं। पारस्परिक सहयोग असहयोग के, नीति पालन और उल्लंघन के क्रिया-कलाप अधिकारिक सुविधा-असुविधा उत्पन्न करते हैं। सुख और दुख यही परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं। अतएव व्यक्ति और समाज की नीति-मर्यादाओं को अधिक सबल अधिक परिष्कृत बनाया जाय। इस मान्यता ने नीति के, उपकार के तत्व ज्ञान को धर्म में सम्मिलित किया और इसके लिए आचार शास्त्र का विकास हुआ। धर्म की व्याख्या, नीति-पालन एवं उदारता के लिए उत्साह प्रदर्शन के रूप में की गई। यह और भी अधिक महत्वपूर्ण कदम था।
इससे आगे और भी विकसित स्थिति आती है जब ‘आत्मवत् सर्व भूतेषु’ की-‘सूत्र माणि गणा इव’ की मान्यता की आधार शिला रखी गई। यह ब्रह्मविद्या का युग है। एक ही आत्मा सब में समाया हुआ है- सब में अपनी ही सत्ता जगमगा रही है- अपने भीतर सब है- सब में एक ही आत्मा का प्रतिबिंब है। सब अपने और -‘अपना’ सब का है। यह विश्व मानव की, विश्व परिवार की एकात्म अद्वैत बुद्धि सचमुच धर्म की अद्भुत और अति उपयोगी दैन है। बढ़ती हुई समाज निर्भरता का सन्तुलन इसी मान्यता के साथ बैठता है। बढ़ी हुई जनसंख्या-वैज्ञानिक उपलब्धियों ने संचार और द्रुतगामी वाहनों के जो साधन प्रस्तुत किये हैं उनसे सुविस्तृत क्षेत्र में फैली हुई दुनिया का फैलाव सिकोड़ कर रख दिया है। अब कुछ घण्टों में ही धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचा जा सकता है। कोई देश अपने पड़ौसियों के कारण ही नहीं-दूर देशों की आन्तरिक परिस्थितियों के कारण भी प्रभावित होता है। व्यक्ति की प्रगति और अवगति अब उसके निजी पुरुषार्थ पर निर्भर नहीं वरन् सामाजिक परिस्थितियाँ उसे बनने, बदलने के लिए विवश करती हैं। व्यक्ति की सत्ता समाज की मुट्ठी में केन्द्रित होती चली जा रही है। व्यक्ति पूरी तरह समाज यंत्र का पुर्जा मात्र बन गया है। इन परिस्थितियों में यदि व्यक्ति को समाजनिष्ठ बनने के लिए कहा जाय, उसे अपनी प्रगति अवगति को समाज के उत्थान-पतन के रूप में जोड़ने के लिए कहा जाय तो यह सर्वथा उचित और सामयिक है।
जो परिस्थितियाँ आज अनिवार्य हो गई हैं कुछ समय पहले ही उनकी संभावना दूरदर्शियों ने भाँप ली थी और धर्म एवं अध्यात्म को अधिकारिक समाजनिष्ठ बनाना आरम्भ कर दिया गया है। अहंकार को, स्वार्थ को, परिग्रह को-घृणा-वासना को- त्यागने के लिए कहने का तात्पर्य व्यक्तिवाद की कड़ी पकड़ से अपनी चेतना को मुक्त करना ही हो सकता है। सेवा, परोपकार, जनकल्याण, दान-पुण्य, त्याग-बलिदान के आदर्श मनुष्य को समाजनिष्ठ बनाने के लिए विनिर्मित हुए हैं। व्यक्तिवाद को झीना करने और समाजवाद को परिपुष्ट करने के लिए सुविकसित अध्यात्म एक अच्छी पृष्ठभूमि तैयार करता है। उसमें संयम की, तप की, तितीक्षा की, पवित्रता की, मितव्ययिता की, शालीनता की, सज्जनता की, सन्तोष और शान्ति की वे धाराएं सम्मिलित की गई हैं जो मनुष्य को अपने लिए अपनी शक्तियों का न्यूनतम भाग खर्च करने की प्रेरणा देती है और तन-मन, धन का जो भाग इस नीति को अपनाने के कारण बच रहता है उसे जन-कल्याण में खर्च करने की ओर धकेलती हैं।
ईश्वर का स्वरूप भी अब भयंकर, वरदाता, नीति-निर्देशक की क्रमिक भूमिका से आगे बढ़ते-बढ़ते इस स्थिति पर आ पहुँचा है कि हम विराट् ब्रह्म के-विश्व दर्शन के रूप में उसकी झाँकी कर सकें और श्रद्धा-विश्वास जैसे उत्कृष्ट चिन्तन को भवानी शंकर की उपमा दे सकें।
अग्निहोत्र की व्याख्या यदि जीवन यज्ञ के-सर्वमेध के साथ जोड़ी जाने लगी है तो यह अत्यन्त ही सामयिक परिभाषा का प्रस्तुतीकरण है। क्रिया-काण्ड को यदि भाव परिष्कार का प्रतीक संकेत कहा जाय तो वस्तुतः यह प्राचीन ईश्वर की अविकसित मनःस्थिति का आधुनिक ईश्वर की परिष्कृत चेतना ही कहा जायगा। अब प्रसाद खाकर या प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होने वाले ईश्वर का रूप बदल रहा है। प्रतिमाओं का दर्शन करने, नदी, तालाबों में नहाने, मन्त्रों के जपोच्चार से-चित्र-विचित्र कर्मकाण्डों से अब ईश्वर के प्रसन्न होने की बात पर केवल बहुत पिछड़े लोग ही विश्वास करते हैं। विचारशील वर्ग का ईश्वर उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तव्य के साथ एकाकार हो गया है और उसकी पूजा श्रेष्ठ व्यक्तित्व एवं समाज के लिए प्रस्तुत किये गये अनुकरणीय अनुदानों के रूप में ही मानी जानी जा रही है। यह ईश्वर का मनुष्य जाति के साथ-साथ प्रगति पथ पर बढ़ता हुआ साहसिक चरण है।
आदिम ईश्वर सर्वतन्त्र स्वतन्त्र था। जिस पर प्रसन्न हो उसे लाभ देना और जिस पर अप्रसन्न हो उसे हानि पहुँचाना ही उसका काम था। मनुष्यों से वह भेंट, पूजा और स्तवन की आकाँक्षा करता था पुरोहित वर्ग उसका एजेंट था। उन्हें प्रसन्न करना ही प्रकारान्तर से ईश्वर को प्रसन्न करना था। यह स्थिति जब विकसित हुई तो नीति पालन और परोपकार को ईश्वर की प्रसन्नता का आधार समझा गया। अब का ईश्वर एक नियम है। उसने समस्त जड़-चेतन को सुसंबद्ध नियन्त्रण में जकड़ा है- यहाँ तक कि अपने को भी कायदे-कानून के बन्धनों में बाँध लिया है। आधुनिक ईश्वर को पूजा मात्र से नहीं सद्भाव सम्पन्न और सत्कर्म परायण व्यक्तित्व के आधार पर ही प्रभावित किया जा सकता है। कुछ समय पूर्व ईश्वर सर्व-शक्तिमान था और उसे प्रसन्न करने के लिए धर्म विधान था। अब इस द्वैत को अद्वैत के रूप में परिणत किया जा रहा है। ईश्वर की झाँकी स्थूल शरीर में सत्कर्म के रूप में और मन में सद्भावों के रूप में की जाने लगी है। परिष्कृत व्यक्तियों की गणना दैवी अथवा अवतार के रूप में की जाने लगी है। यह शुभ चिन्ह है।
धर्म और ईश्वर जिस क्रम से विकास पथ पर चल रहे हैं उसे देखते हुए अगले दिनों नास्तिक और आस्तिक का झगड़ा दूर हो जायगा। धर्म और विज्ञान के बीच जो विवाद था उसका हल निकल आवेगा। साम्प्रदायिक विद्वेष की भी गुंजाइश न रहेगी। पिछले और पिछड़े संप्रदाय अपने-अपने ईश्वरों के अलग-अलग आदेशों को प्रथक प्रथा-परम्पराओं के रूप में मानते थे और मतभेद रखने वालों को तलवार के घाट उतारते थे। अब वैसी गुँजाइश नहीं रहेगी। सद्भावना एवं सज्जनता की परिभाषाएं यों अभी भी कई तरह की जाती है पर उनमें इतना अधिक मतभेद नहीं है जिनका समन्वय न किया जा सके।
दुनिया अब एक धर्म, एक आचार, एक संस्कृति, एक राष्ट्र, एक भाषा के आधारों को अपनाकर एकता की ओर चल रही है। ऐसी दशा में एक सर्वमान्य ईश्वर और उसका एक सर्वसमर्थित पूजा विधान भी होना ही चाहिए। अब इस दिशा में अधिक आशाजनक स्थिति उत्पन्न होने जा रही है। लगता है धर्म और ईश्वर अब एक हो जायेंगे। पिछले दिनों ईश्वर अलग था-धर्म उसे प्रसन्न करने की प्रक्रिया थी। अब दोनों मिलकर एक हो जायेंगे। धार्मिक ही ईश्वर भक्त माना जायगा और ईश्वर भक्त को धार्मिक बनना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में इसे अद्वैत सिद्धि कह सकते हैं। अनेकता और बहुरूपता के कारण जो मतिभ्रम और विद्वेष उत्पन्न होता है वह जब संसार के विविध क्षेत्रों में से मिटाया जा रहा है तो फिर ईश्वर और धर्म का क्षेत्र भी क्यों अछूता रहेगा। धर्म और कर्म का मर्म समझने वाले ब्रह्मपरायण व्यक्ति ईश्वर को निर्विवाद स्थिति तक पहुँचा कर ही रहेंगे।