जिन्दगी और मौत सगी सहोदर बहनें

February 1975

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जिसने जन्म लिया है उसका मरण सुनिश्चित है। सृष्टि का क्रम ही जन्म-मरण की धुरी पर घूम रहा है। जो जन्मा है सो मरेगा ही। जीवनेच्छा कितनी ही प्रबल क्यों न हो मरण से बचा नहीं जा सकता। मृत्यु की चलती चक्की में अन्न के दानों की तरह हमें आज नहीं, कल पिसकर ही रहना है। इस तथ्य को न तो झुठलाया जा सकता है और न उसका सामना करने से बचा जा सकता है। मरण को एक ध्रुव सत्य ही मानकर चलना चाहिए। अनिच्छा, भय-भीरुता अथवा कृपण-कायरता कुछ भी मन में क्यों न हो, प्रकृति का सुनिश्चित क्रम रुकेगा नहीं; हमारा परमप्रिय लगने वाला आज का सुनिश्चित अस्तित्व कल महान शून्य में विलीन होकर रहेगा। आज की यथार्थता कल विस्मृति के गर्त में गिरकर सदा के लिए अविज्ञात अन्तरिक्ष में बिखर जायेगी।

मरण से भयभीत होकर आतुर लोग ऐसा सोचते हैं कि इन्हीं क्षणों जितना अधिक आनन्द उठा लिया जाय उतना ही उत्तम है। वे इन्द्रिय लिप्सा एवं मनोविनोद के लिए अधिकाधिक साधन जुटाते हैं और उसके लिए जो भी उचित-अनुचित करना पड़े उसे करने में नहीं चूकते। यह उपभोग की आतुरता कई बार तो इतनी बढ़ी-चढ़ी ओर इतनी अदूरदर्शी होती है कि उपभोग का आरम्भ होते-होते विपत्ति का वज्र सिर पर टूट पड़ता है। अपराधियों और कुकर्मियों की दुर्गति होती आये दिन देखी जाती है। कइयों को तुरन्त ही प्रतिरोध या प्रतिशोध का सामना नहीं करना पड़ता। सामयिक सफलता भी मिल जाती है, पर ईश्वरीय कानून तो उलटे नहीं जा सकते। कर्मफल की सच्चाई न केवल अध्यात्म-दर्शन के आधार पर वरन् भौतिक मनोविज्ञान के सिद्धान्तों से भी सुनिश्चित है। कुकर्मी को इस तरह न सही तो उस तरह दुर्गति का सामना करना ही पड़ता है।

जब तक जीना तब तक मौज से जीना-ऋण करके मद्य पीने वाली नास्तिकतावादी नीति मरण की भयंकरता के अनुरूप जीवन को भी भयानक बना लेने की मूर्खता करना है। असीम उपभोग चाहा गया और अप्रत्याशित संकट उभरा यह कहाँ की समझदारी हुई। उच्छृंखल भोगलिप्सा मन में उठने से लेकर तृप्ति का अवसर आने तक हर घड़ी आशंका, व्यग्रता, जुगुप्सा, चिन्ता की इतनी भयानकता अपने साथ जुड़ी रखती है कि उपभोग की तृप्ति बहुत भारी पड़ती है। सच तो यह है कि अभाव सहने की अपेक्षा उसका कहीं अधिक मूल्य चुकाना पड़ता है।

यह तो मृत्युभय को और भी अनेक गुना बढ़ा देने वाली बात हुई। सोचा यह गया है कि मरने तक जितना अधिक आनन्द उठाया जा सकता हो, उतना उठा लिया जाय। इसलिए अचिन्त्य-चिन्तन और अकर्म करण को अपनाने का दुस्साहस भी किया गया, पर सृष्टि व्यवस्था ने उसे भी कहाँ पूरा होने दिया। तृप्ति के क्षण आने से हपले इतनी आत्म-प्रताड़ना सहनी पड़ी कि उपभोग की सारी सरसता ही नष्ट होकर रह गई। जो मिला वह इतना अधिक दुष्परिणाम साथ लाया कि कामना पूर्ति के सुख की अपेक्षा व्यथा वेदना भरा पश्चाताप अपेक्षाकृत कष्टसाध्य ही सिद्ध हुआ।

इस आतुरता से कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा। एक दिन मरने की अपेक्षा आत्म-प्रताड़ना की आत्म-हत्या का कष्ट पग-पग पर सहन करना कहाँ की बुद्धिमत्ता है। एक दिन तो सभी को मरना पड़ेगा पर आतुर उपभोग की ललक कुकर्मों पर उतारू मनुष्य हर कदम पर मृत्यु जैसी झुलसी व्यथा को सहन करता है। मरणोत्तर जीवन पर अविश्वास करने वाले नास्तिक प्रकृति के मनुष्य निश्चित रूप से उनकी अपेक्षा अधिक घाटे में रहते हैं जो अध्यात्म दर्शन के आधार पर मृत्यु को एक वस्त्र परिवर्तन जैसी सहज सामान्य प्रक्रिया मानते हैं और आत्मा को मरणोत्तर जीवन बना रहने की बात पर विश्वास करते हैं।

मृत्यु वस्तुतः उतनी भयानक है नहीं जितनी कि समझी जाती है। आत्मा का अस्तित्व अब एक सुनिश्चित तथ्य मान लिया गया है। वे दिन लद गये जब नौसिखिये, अत्युत्साही बुद्धिवादी मनुष्य को एक जड़ उत्पादन कहा करते थे और शरीर की मृत्यु के के साथ ही आत्मा का अस्तित्व न रहने का प्रतिपादन करते थे। पुनर्जन्म के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीर धारण किये रहने तक के अब तक इतने सुदृढ़ प्रमाण मिल चुके हैं कि उनकी यथार्थता से इनकार करने का कोई साहस नहीं कर सकता। जन्म-जात विशेषताओं का बहुत पहले वंश परम्परा के साथ सम्बन्ध जोड़ा जाता था अब यह मान लिया गया है कि वंश परम्परा से सर्वथा भिन्न प्रकार की जो असाधारण विशेषताएं मनुष्यों में जन्मजात रूप से पाई जाती हैं उनका कारण प्राणी के पूर्व जन्म के संचित संस्कार ही हो सकते हैं। विज्ञान और बुद्धिवाद ने पिछली शताब्दियों में जो प्रगति की है उसके आधार पर मरणोत्तर जीवन की प्रामाणिकता में सन्देह करने का कोई कारण शेष नहीं रहा है। पैरा साइकोलॉजी-मैटरफिजिक्स एवं आकाल्ट साइंस के क्षेत्र में एक के बाद एक ऐसे तथ्य प्रस्तुत किये जा रहे हैं जो मरणोत्तर जीवन की यथार्थता को एक सुनिश्चित तथ्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

बुद्धिमत्ता अब यह नहीं कहती कि मरने के बाद अस्तित्व नहीं रहेगा, इसलिए अधिकाधिक उपभोग के लिए अनीति स्तर तक बढ़ा जाय। यह सोचना दोनों ही दृष्टि से गलत है। एक तो मरणोत्तर जीवन और कर्मफल के पुराने सिद्धान्त अब नई कसौटियों पर भी तथ्यपूर्ण सिद्ध हो रहे हैं। दूसरे अनियन्त्रित उपभोग के प्रयत्नों में और उपभोग के उपरान्त उत्पन्न हुए संकटों में जो कष्टकर स्थिति जुड़ी रहती है वह उस क्षणिक एवं स्वल्प उपभोग की तुलना में कहीं अधिक महंगी पड़ती है।

मृत्यु से डरने की अपेक्षा यही उत्तम है कि उसे एक सुनिश्चित तथ्य मानकर जीवन की सहचरी मानकर चला जाय और अनन्त जीवन प्रवाह में मरण को एक छोटा विश्राम मात्र समझा जाय। जीवन भी सृष्टि प्रवाह और परमेश्वर की तरह ही अनादि और अनन्त है। रात्रि में जिस प्रकार हर रोज सोया जाता है और दूसरे दिन सवेरे ही उठकर फिर नया कार्यक्रम चलाया जाता है;उसी प्रकार मरण का विश्राम लेकर हर बार नया जीवन नये दिन की तरह आरम्भ होता है। अगले दिनों की-भविष्य की- चिन्ता व्यवस्था में हम सर्वदा संलग्न रहते हैं। रात्रि को सोना पड़ेगा अथवा सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व रहेगा। दोनों ही अवसरों पर सुखद परिस्थितियों की आवश्यकता पड़ेगी और वे साधन आज के सत्प्रयत्नों से ही उपयुक्त समय के लिए संचित किये जा सकते हैं। अस्तु मरण का तथ्य ध्यान में रखते हुए हमें मरणोत्तर जीवन के समय के लिए उपयोगी साधन सामग्री जुटाने के लिए निरत रहना चाहिए। यह प्रयोजन सत्कर्म साधना से ही सम्भव हो सकता है। अस्तु उसे जीवन काल में परिपूर्ण तत्परता के साथ ही करते रहना उचित है।

पुराने कपड़े उतारकर नये कपड़े बदलने में हमें तनिक भी बुरा नहीं लगता वरन् प्रसन्नता होती है। आज के बोझिल जीवन की अपेक्षा भविष्य में अधिक कोमल हलका और प्रफुल्ल अवसर बालकपन के रूप में मिलेगा तो इसमें खिन्न होने की क्या बात है? आज शरीर और परिवार की छोटी-सी परिधि में कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काटने की भारवाही स्थिति से आगे बढ़कर कुछ समय उन्मुक्त अन्तरिक्ष में विचरण करने का अवसर मिलेगा और ईश्वर की अदृश्य गतिविधियों के संपर्क में रहना पड़ेगा तो उस कौतूहलपूर्ण स्थिति में रस लेने में भय क्यों माना जाय? यात्राओं का-प्रवास पर्यटन का आनन्द उठाने की इच्छा सभी को रहती है। उन दिनों घर छोड़ना पड़ता है और ढर्रे का जीवन क्रम सम्भव नहीं रहता। तो भी अजनबी और अनोखी वस्तुएं देखने, नयों के संपर्क में आने की प्रसन्नता सन्तोष देती है यही बात मरणोत्तर जीवन के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है; उसे सुखद यात्रा प्रसंग गिना जा सकता है।

मृत्यु का भय उन्हें ही भयभीत करता है जिन्होंने मरणोत्तर जीवन के लिये सुखद स्थिति प्राप्त करने की कोई पूर्व तैयारी नहीं की है। अनिश्चित अन्धकार में प्रवेश करना ही भयानकता की आशंका बनकर मनुष्य को डराता है। विशेषतया यह डर तब और भी अधिक बढ़ जाता है जब अगले दिनों अधिक गहरी विपत्ति सामने प्रस्तुत होने की आशंका रहती हो। जिनने संकीर्ण स्वार्थपरता और अनैतिकता का आशय लेकर जिन्दगी के दिन काटे हैं उनकी अन्तरात्मा को अदृश्य चेतना आगाह करती रहती है कि इन आज की दुष्प्रवृत्तियों का परिणाम कल भयानक विपत्ति के रूप में ही सामने आ रहा है। यह आगाही ही मृत्यु भय को सघन बनाती है और मरने का नाम सुनते ही कंपकंपी आती है।

मृत्यु के उपरान्त जीव के कर्मों का लेखा-जोखा परमेश्वर के सामने होता है और न्याय-तुला पर तौलकर दण्ड पुरस्कार का विधान बनता है। अपराधी मनःस्थिति यह जानती है सर्वांतर्यामी न्यायाधीश से कुछ छिपा नहीं है वह कर्म और उसके उद्देश्य को भली प्रकार जानता है और बिना किसी पक्षपात अथवा दया-निर्दयता का आशय लिये परिणाम भुगतने के लिए प्राणी को बाध्य करता है। इस परीक्षा की घड़ी में अपना खोटापन-अपने लिए कितने विघातक परिणाम प्रस्तुत करेगा यह पंगा तथ्य जब अचेतन मन की आँखों के सामने घूमता है तो उसकी बेचैनी का ठिकाना नहीं रहता। वध-स्थल पर ले जाये जाने वाले भयभीत बलि-पशु की तरह मृत्यु के भय सामने आते ही अपनी चेतना भी उसी प्रकार काँपती है।

जिन्होंने सत्कर्म किये हैं और जीवन की विभूतियों का सदुपयोग किया है उन्हें निश्चिंतता रहती है कि अपना भविष्य उज्ज्वल है। ऊँचे पद पर स्थानान्तर होने वाले कर्मचारी खिन्न नहीं प्रसन्न होते हैं वे जानते हैं कि जहाँ जा रहे हैं वहाँ अधिक सम्मान और सुविधा साधन मिलेंगे। ऐसे लोग पुराना स्थान छोड़ते हुए दुखी नहीं प्रसन्न होते हैं। दुख होता भी है तो वह विदाई बिछोह जैसा क्षणिक होता है। ऐसे तो कन्या भी ससुराल जाते समय अपनी सखी-सहेलियों से बिछुड़ते हुए दुखी होती है, पर वह दुख क्षणिक होता है। विदाई के तुरन्त बाद उसे ससुराल के सुहागरात के सुखद सपने आने लगते हैं और वियोग के हलके से भार को भी कुछ ही क्षणों में भुला देती है। सुकृत कर्मी लोग मरने के समय स्वजन सम्बन्धियों से बिछुड़ते समय कुछ खिन्न भी हो सकते हैं, पर सुखद भविष्य की निश्चितता के कारण वह कष्ट उन्हें न तो भारी पड़ता है और न देर तक ठहरता है। उनके लिए मृत्यु एक पदोन्नति सहित होने वाले सुखद स्थानान्तरण जैसी प्रसन्नता और निश्चिंतता लिये हुए ही आती है।

सत्कर्म और सदुद्देश्य लेकर ही जीना उचित है। इस राह पर चलते हुए यदि अभाव, अवरोध अथवा संकट का सामना करना पड़े और वह मृत्यु जैसा कष्ट लेकर सामने आ उपस्थित हो तो भी विचलित होने की आवश्यकता नहीं। मरना तो एक दिन निश्चित है। वह घड़ी कब आ पहुँचे इसका भी ठिकाना नहीं। जब सामान्य रीति से कभी भी मरना हो सकता है तो सदुद्देश्य की रक्षा में मृत्यु आ उपस्थित होने पर ही क्यों भीरुता प्रकट की जाय। सामान्य मौत से मरने की अपेक्षा सदुद्देश्य के लिए मरना आत्म-सन्तोष देता है अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करता है और शूर, साहसी महामानवों की श्रेणी में अपने को बिठाता है। इतने लाभ जिस मृत्यु के साथ जुड़े हुए हैं वस्तुतः वह चारपाई पर मरने वालों की तुलना में कहीं अधिक श्रेयस्कर एवं सौभाग्यशालिनी है।

मौत-जिन्दगी की सहचरी है। दोनों जुड़वा बहिनें हैं। एक जहाँ रहेगी वहाँ दूसरी देर-सवेर में आ पहुँचेगी। एक के बिना दूसरी अपूर्ण है। हमें इन दोनों का ही सम्मान करना चाहिए और दोनों का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध जीवन पद्धति का निर्धारण करना चाहिए।


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