हमारी बुद्धि सर्वज्ञाता नहीं है

February 1975

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ऋग्वेद की एक ऋचा है— ‘इह व्रवीतु य उतश्चिकेतत्’, अर्थात इस विश्व के सब रहस्यों को यदि कोई जानता है तो वह यहाँ आकर बताए।

तैत्तिरीय ब्राह्मण की एक श्रुति है— “यह विश्व किससे उत्पन्न हुआ, यह कौन जानता है? इसके रहस्यों को कौन कह सकता है? देवता भी तो पीछे जन्में हैं, वे अपने उद्भव से पूर्वकाल का वृत्तांत कैसे जान पाए? जिसका एक फल यह पृथ्वी है, उस ब्रह्मांड-वृक्ष का जन्म किस आरण्यक में हुआ, इसे कौन जानता है? इस सबका जो अधिष्ठाता है, उसे कौन जानता है? वह अधिष्ठाता भी अपने विस्तार का सम्पूर्ण रहस्य जानता है या नहीं, इसे कौन जाने?”

कापर्निकस भी सत्य की शोध में एक सीमा तक ही बढ़ सका। उसने पृथ्वी को विश्व का केंद्र तो नहीं माना, पर वह सेहरा सूर्य के सिर बाँध दिया। वह कहता था ब्रह्मांड का मध्य केंद्र सूर्य है। उसी के इर्द-गिर्द समस्त ग्रह-नक्षत्र परिक्रमा करते हैं। उसे क्या पता था कि बेचारा सूर्य भी कभी अनंत ब्रह्मांड की परिभ्रमण प्रक्रिया का एक नन्हा-सा बाल-पथिक ही माना जाने लगेगा।

प्राचीन ज्योतिष शास्त्र की मान्यता यही रही है कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य चल एवं ग्रह-नक्षत्र उसकी परिक्रमा करते हैं। पृथ्वी को चपटी तश्तरीनुमा माना जाता था। यों पीछे पाइथागोरस, अलबरूनी, आर्यभट्ट आदि ने पृथ्वी को गोल तो माना, पर उसे भ्रमणशील वे भी नहीं मानते थे।

पहली बार पृथ्वी के भ्रमणशील होने का प्रतिपादन पोलैंड निवासी कापर्निकस ने किया और इसके प्रमाण-तर्क का प्रतिपादन उसने अपने ग्रंथ आकाशमंडल के भ्रमण-पथ पर नामक ग्रंथ में किया। उसे अनुमान था कि इस प्रतिपादन से पुरातन पंथी ईसाई समाज उसका घोर विरोध करेगा। इसलिए उसने चतुरता से काम लिया, उसे रोम के पोपपाल तृतीय को समर्पित और ऊपर से ऐसी लीपा-पोती की, प्राचीन प्रतिपादन का खंडन होते हुए भी कटुता उत्पन्न नहीं हुई। पोप की आड़ में कुछ दिन तो यह चाल सफल रही, पर पीछे जैसे ही उसे लोगों ने बारीकी से पढ़ा वैसे ही ईसाई धर्म के दोनों ही वर्ग प्रोटेस्टेंट और रोमन कैथोलिक उसके विरोध में हाथ धोकर पीछे पड़ गये। अन्ततः पोप के आदेश से उस पुस्तक को जब्त कर लिया गया। प्रतिपादनकर्त्ता पर वे अपराध लगाए गये, जिनका फल उसे मृत्युदंड ही भुगतना पड़ सकता था। अच्छा इतना ही हुआ अपराध लगाए जाने से 73 वर्ष पूर्व ही कापर्निकस मर चुका था। अन्यथा उसे भी धरती को भ्रमणशील बताने वाले एक अन्य खगोलज्ञ बूनी की तरह जीवित जला दिया जा सकता था। ऐसे ही प्रतिपादनों पर गैलीलियो को भारी उत्पीड़न सहने पड़े थे।

गैलीलियो ने खगोल का दूरदर्शन कर सकने योग्य दूरबीन सबसे पहले 1609 में बनाई। इससे पूर्व जितना तारामंडल आँखों से देखा जा सकता था उसी की खोज सम्भव थी और की गई। आचार्य लगध, आर्यभट्ट, वराहमिहर, भास्कराचार्य और टालमी, कोपर्निकस, केपलर आदि ज्योतिर्विदों ने आँखों से जो देखा जा सकता था उसी आधार पर खगोल विद्या की खोज-बीन की है।

समस्त ब्रह्मांड के बारे में जानना तो बहुत दूर की बात है हम अपने सौरमंडल के बारे में ही बहुत कम जानते हैं। पृथ्वी के बारे में हमारी जानकारी का क्रमिक विकास हुआ है। चंद्रमा को प्राचीनकाल में एक स्वतंत्र और पूर्ण ग्रह माना जाता था अब वह मान्यता बदल दी गई है और माना गया है कि पृथ्वी का उपग्रह मात्र है।

चंद्रमा पृथ्वी से 3,80,000 किलोमीटर दूर है। प्रकाश की किरणें उस दूरी को सवा सेकेंड में पूरी कर लेगा। सूर्य से पृथ्वी 14,9500000 किलोमीटर दूर है। इतनी दूरी पूरी करने में प्रकाश किरणों को साड़े आठ मिनट लगते हैं। अपने सौर-मण्डल का अंतिम ग्रह प्लूटो, सूर्य से 590 करोड़ मील कि. मी. है। इस दूरी को प्रकाश किरणें साड़े पाँच घंटे में पूरा करती हैं। इसी से हम अनुमान लगा सकते हैं कि ‘प्रकाश समय का क्या अर्थ होना चाहिए। एक सेकेंड में प्रकाश किरणें 1,8600 मील अर्थात् 3,00,000 किलो मीटर की यात्रा करती है। ग्रह-नक्षत्रों की दूरी नापने में इस आधार पर बनाई गई समय इकाई के प्रकाश वर्ष बनाये गए हैं। एक प्रकाश वर्ष, अर्थात् 1,00,00,00 करोड़ किलोमीटर दूरी।

मंगल को भौम— भूमिपुत्र आदि नामों से पुकारा जाता है और कहा जाता है कि वह अति प्राचीनकाल में पृथ्वी का ही एक अंग था। प्रकृति के विग्रह से यह टुकड़ा कटकर अलग हो गया और स्वतंत्र रूप से ग्रह बनकर अपनी कक्षा में भ्रमण करने लगा। इतने पर भी मिलती-जुलती हैं। उस पर प्राणियों की उपस्थिति पर जो विश्वास किया जाता रहा है, उसमें कमी नहीं आई, बुद्धि एवं पुष्टि ही हुई है।

सोवियत खगोलवेत्ता मिरवाइल यारोव ने अभी हाल में रूस तथा अमेरिका द्वारा भेजे गए मंगल खोजयानों की रिपोर्टों का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है कि वहाँ जीवन होने की बहुत संभावना है। वे कहते हैं मंगल मृत ग्रह नहीं है। उसमें पिछले दिनों ऐसी उथल-पुथल होती रही हैं, जिनका प्राणियों की उत्पत्ति में प्रधान हाथ रहता है। अगले दिनों वहाँ के ध्रुवों के पिघलने की पूरी संभावना है। इससे कुछेक केंद्रों में संग्रहित और ठोस स्थिति में हरने वाला पानी नदी-नालों और बादलों के रूप में जगह-जगह पहुँचने लगेगा। उस स्थिति में स्वभावतः ऐसे प्राणी उत्पन्न होने लगेंगे, जो वहाँ की जलवायु में भली प्रकार जीवनयापन कर सकें।

मंगल में पानी तो है, पर वह वहाँ फटते रहने वाले ज्वालामुखियों द्वारा हवा में भाप बनाकर बुरी तरह उड़ाया जा रहा है। उसके भूतल का प्रायः एक लाख गैलन पानी भाप बनकर आकाश में उड़ जाता है। इसी से सघन बादल जो उसके ऊपर छाए हुए हैं और भी अधिक सघन बनते जाते हैं।

अंतरिक्ष खाजी मैनियर ने जो सूचनाएँ भेजी हैं, उनका विश्लेषण करते हुए डॉ. मासूरस्की ने एक निष्कर्ष यह भी निकाला है कि मंगल जब सूर्य की परिक्रमा करते हुए उसके निकटतम पहुँच जाता है तो गर्मी की अधिकता से उसके ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलकर नई नदियों तथा झीलों का निर्माण करती है। जब वह बहुत दूर निकल जाता है तो गर्मी की कमी से हिम-प्रलय भी होती है। इन हिम युगों के बीच प्रायः 25000 वर्षों का अंतर रहता है।

हम पृथ्वी निवासियों की शरीर रचना डिआक्सीराइवो न्यूक्लिक एसिड (डी.एन.ए.) रसायन से संभव हुई है। यह जलीय स्तर का तत्त्व है। उसका विकास जहाँ जल की उपस्थिति होती, वहाँ सम्भव हो सकेगा। पर यह अनिवार्य नहीं कि यह एक ही रसायन सभी ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति में जीवन उत्पन्न करता हो, उसके और भी बहुत से आधार हैं।

अमेरिका की नेशनल माइन्स काँग्रेस ने मंगल ग्रह की नवीनतम स्थिति को ध्यान में रखते हुए भी यह आशा व्यक्त की है कि वहाँ जीवन का अस्तित्व हो सकता है। डी.एन.ए. के अतिरिक्त भी जीवन के अन्य आधार हो सकते हैं। पृथ्वी पर भी ऐसे बैक्टीरिया पाए गए हैं, जो मंगल जैसी परिस्थितियों में रखे जाने पर जीवित रह सकते हैं। उन्हें ऑक्सीजन की जरा भी जरूरत नहीं पड़ती, यहाँ तक कि ऑक्सीजन में उलटे दम तोड़ने लगते हैं।

रूस की साइन्स एकेडेमी के अंतर्गत चलने वाले माइक्रो बायोलॉजिकल इन्स्टीट्यूट ने एक ऐसी प्रयोगशाला विनिर्मित की है, जिसमें मंगल ग्रह जैसा वातावरण है। इसमें पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले पिग्मेन्टे बैक्टीरिया भली प्रकार विकसित हो रहे हैं। घातक अल्ट्रावायलेट विकिरण भी उन्हें कुछ हानि नहीं पहुँचा सकता। ऐसे ही कुछ पौधे भी हैं, जो उस वातावरण में जीवनयापन कर रहे हैं।

मैरीनर- 9 यान द्वारा भेजी गई सूचनाओं का जेट प्रोपल्शन लैबोरेटरी में अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला गया है कि वहां के दक्षिण ध्रुव पर हिमाच्छादित वातावरण है। डॉ. रुडोल्फ हैनेल ने इन्हीं सूचनाओं से यह भी नतीजा निकाला है कि वहां की हवा में भाप का भी अच्छा अंश है। ऊपर के वातावरण में तेज गर्मी अवश्य है, पर मंगल के धरातल का तापमान सह्य है। मंगल के दो चंद्रमा उसकी परिक्रमा करते हैं।

अमेरिका अपना मंगल यात्रा पर जाने वाला चार यात्रियों सहित एक यान 1 मई 1986 को भेजने की संभावना घोषित कर चुका है। सूर्य, मंगल और पृथ्वी की चाल को देखते हुए वह दिन ऐसा होगा, जिसको चलने से कम-से-कम यात्रा करने पर भी लक्ष्य तक पहुंचा जा सकेगा। यों मंगल की न्यूनतम दूरी पृथ्वी से 620 लाख और अधिकतम दूरी 650 लाख मील है। इस यान के लौटने की तारीख 25 जुलाई 1987 निर्धारित की गई है। इस यात्रा पर 750 खरब डॉलर खर्च आने की संभावना है।

पोलिश खगोल विज्ञानी जान गाडोमिस्की ने ब्रह्मांड में जीवन की संभावनाओं पर प्रकाश डालने वाली एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी है— ‘मेनुअल ऑन स्टेलर एकोस्फियर्स’, उसमें उनने अपने निकटवर्त्ती तीन ऐसे ग्रहों का उल्लेख किया है, जिनमें जीवन होने की पूरी-पूरी संभावना है। वे हमसे दस-ग्यारह प्रकाश वर्ष की दूरी पर हैं।

सन् 1950 में एक उल्काश्म पृथ्वी पर गिरा था। उसका विश्लेषण करने में अमेरिका के मूर्धन्य विज्ञानवेत्ता जुटे। डॉ. सिसलर की अध्यक्षता में चली उस शोध का निष्कर्ष यह था कि इसमें अमीनो, नाइट्राइड, हाइड्रोकार्बन जैसे जीव रसायन मौजूद हैं। और जहां से यह आया है वहां जीवन की संभावना है। कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय ने डॉ. काल्विन के नेतृत्व में इसी उल्काश्म की दूसरे ढंग से खोज कराई। उनने भी सिसलर की जीवन संभावना वाली बात को पुष्ट कर दिया।

पृथ्वी से पचास मील ऊपर कितनी ही उल्काएँ उड़ती रहती हैं। प्रयत्न यह किया जा रहा है कि इनमें से कुछ को गिरफ्तार करके लाया जाए और उनके मुँह से ब्रह्मांड के छिपे हुए रहस्यों को उगलवाया जाय। यों धरती पर से भी एस्ट्रोरेडियो सिस्टम के सहारे संसार की कितनी ही वेधशालाएँ इस दिशा में खोज-बीन करने में निरत हैं। ओजमा प्रोजक्ट का रेडियो टेलिस्कोप इस दिशा में कितनी ही महत्त्वपूर्ण खोजें प्रस्तुत करने में सफल हो चुका है।

अपने सौरमण्डल में 9 ग्रह, 31 उपग्रह और जो गिन लिए गए, ऐसे 20 हजार क्षुद्र ग्रह हैं। यह सभी अपनी-अपनी कक्षा-मर्यादाओं में निरंतर गतिशील रहने के कारण ही दीर्घजीवन का आनंद ले रहे हैं। यदि वे व्यक्तिक्रम पर उतारू हुए होते तो इनमें से एक भी जीवित न बचता। कब के वे परस्पर टकराकर चूर्ण-विचूर्ण हो गए होते।

इन नौ ग्रहों में से छह पुराने हैं और तीन नए। बुध, शुक्र, राहु (पृथ्वी) मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस, नेपच्यून, प्लूटो। इनमें जो ग्रह सूर्य के जितना समीप है, उसकी परिक्रमा गति उतनी ही तीव्र है। बुध सबसे समीप होने के कारण प्रति सेकेंड 48 किलोमीटर की गति से चलता है और एक परिक्रमा 88 दिन में पूरी कर लेता है। पृथ्वी एक सेकेंड में 28.6 किलोमीटर की चाल से चलती हुई 365.25 दिन में परिक्रमा पूरी करती है। प्लूटो सबसे दूर है, वह सिर्फ 4.3 कि. मी. प्रति सेकेंड की चाल से चलता है और 248.43 वर्ष में एक चक्कर पूरा करता है।

इनमें से बुध और शुक्र में अतिताप है। मंगल मध्यवर्त्ती है। बृहस्पति, शनि, यूरेनस, नेपच्यून, प्लेटो बहुत ठंडे हैं। पृथ्वी का तापमान संतुलित है।

सूर्य से पृथ्वी की ओर चलें तो पाँचवाँ और पृथ्वी से सूर्य की ओर चलें तो तीसरा ग्रह बृहस्पति है। वह अपने नौ ग्रहों में सबसे बड़ा है। शेष आठ ग्रहों का सम्मिलित रूप भी बृहस्पति से कम पड़ेगा। उसकी दूरी सूर्य से भी उतनी ही है जितनी पृथ्वी से, अर्थात् कोई साठ करोड़ मील अधिक-से-अधिक और छत्तीस करोड़ मील कम-से-कम। उसका मध्य व्यास 88,700 मील है। सामान्यतया उसे पृथ्वी से दस गुना बड़ा कहा जा सकता है। गैस के बादलों की 10 हजार से 20 हजार मील तक की मोटी परत उस पर छाई हई है। पानी और हवा का अस्तित्व मौजूद है। बृहस्पति के इर्द-गिर्द 12 चन्द्रमा चक्कर काटते हैं। इनमें से चार का तो विस्तृत विवरण भी प्राप्त कर लिया गया है। बृहस्पति का गुरुत्व पृथ्वी से ढाई गुना अधिक है। वहाँ दिन 10 घण्टे का होता है किंतु वर्ष लगभग 12 वर्ष में पूरा होता है। उसकी चाल धीमी है एक सेकेंड में आठ मील। जबकि अपनी पृथ्वी एक सेकेंड में अठारह मील चल लेती है।

विश्व-जीवन का कीर्तिमान 210 फारेनहाइट तक जीवित रह सकने का बन चुका है। उतनी गर्मी सहन करने वाले जीवधारी बृहस्पति जैसे दूसरा सूर्य समझे जाने वाले हाइड्रोजन गैस प्रधान ग्रहों पर आसानी से निर्वाह कर सकते हैं।

वैज्ञानिक यहाँ तक कहते हैं कि सूर्य के विस्फोट से जिस प्रकार सौरमंडल के अन्य ग्रह बने हैं, उस तरह बृहस्पति नहीं बना। वह अपने बारहों उपग्रहों समेत एक स्वतंत्र नक्षत्र है। किसी प्रकार सूर्य की पकड़ में आकर उसकी अधीनता स्वीकार करने में विवश हो गया है। तो भी उसमें स्वतंत्र तारक जैसी विशेषताएँ बहुत अंशों में विद्यमान हैं। यदि बृहस्पति स्वतंत्र तारक रहा होता तो उसके बारह उपग्रहों में चार को प्रधानता मिलती। इन प्रधान चंद्रमाओं को गैलीलियो ने अपनी दूरबीनों से देख लिया था और उनके नामकरण आई॰ ओ॰ यूरोपा- गैनीमीड- कैलिस्टो कर दिया था। अन्य आठ उपग्रह इसके बाद देखे पहचाने गए।

सौर परिवार के ग्रह पिंड अपनी पृथ्वी के सहोदर भाई हैं। हम उनके बारे में जो जानते हैं, वह इतना कम है जिसे बालकों जितना स्वल्प ज्ञान ही कह सकते हैं। सौर परिवार जैसे अरबों-खरबों तारक मंडल जिस ब्रह्मांड में भरे पड़े हैं, उसकी विशालता की कल्पना तक कर सकना अपनी बुद्धि के लिए संभव नहीं है।

हम अपनी ज्ञानपरक उपलब्धियों पर गर्व करें सो ठीक है, पर साथ ही यह भी ध्यान में रखें कि अनंत ज्ञान की तुलना में हमारी जानकारियाँ अत्यंत ही स्वल्प और नगण्य हैं। इतनी तुच्छ जानकारी के आधार पर हमें सर्वज्ञाता बनने का दुस्साहस नहीं करना चाहिए और ईश्वर एवं आत्मा के अस्तित्व तक से इनकार करने की इसलिए ढीठता नहीं बरतनी चाहिए कि हमारी बुद्धि उसे प्रत्यक्षवाद की प्रयोगशाला में प्रकट नहीं कर सकी।


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