निर्झर तट पर ही विशाल वृक्ष के नीचे वह छोटा पौधा अभी-अभी ही उगा था। अपने थोड़े से पत्ते कोपलों में सिमटे उत्साह को जब आगे बखेरा तो सबसे निकट प्रवाहमान निर्झर पर ही उसकी दृष्टि पड़ी। उसकी अनवरत गति को देखकर पौधा अवाक् रह गया। आखिर यह दौड़ कहाँ के लिए? किस के लिए लग रही है?
जिज्ञासा का समाधान करने के लिए नवजात पौधे ने अपने सिर पर छाया करने वाले वयोवृद्ध वृक्ष से पूछा-दादा, यह निर्झर आखिर कहाँ दौड़े जा रहे हैं? किसलिए दौड़े जा रहे हैं?
वृक्ष मुस्कराया उसने शिशु की जिज्ञासा का समाधान करते हुए संक्षिप्त उत्तर दिया-‘समुद्र में मिलने-उस जैसा बनने।’
पौधे को सन्तोष नहीं हुआ उसकी समझ में तब भी यह न आया कि पर्वत जैसी उच्च और सुन्दर स्थिति को छोड़कर समुद्र की नीची और एकरस स्थिति में मिलने से आखिर इस निर्झर को क्या सुख मिलेगा जिसके लिए इतना कष्टसाध्य प्रयास करने के लिए उन्हें यह वैराग्य धारण करना और कठिन तप करना पड़ रहा है।
वृक्ष अब अधिक गम्भीर हो गया उसने दार्शनिकों जैसी मुद्रा में कहा-पर्वत की कठोरता में न रस है न तृप्ति और न असीमितता। फिर जल का सजातीय भी तो पर्वत नहीं है। विजातीय से मिलन कहाँ? और जहां मिलन नहीं आनन्द कैसा? तात् तुम जब बड़े हो जाओगे तब जानोगे कि हम सब आनन्द में से उत्पन्न होते हैं और परमानन्द की प्राप्ति के लिए ही व्याकुल रहते हैं। यह आनन्द प्राप्ति की व्याकुलता ही निर्झर की गति है।
पौधे और वृक्ष का संवाद सुनकर जानने वाले ने जाना कि आत्मा की आकुल गतिविधियाँ पर्वत जैसी जड़ता से निकलकर परमात्मा रूपी महासागर में मिलने के लिए ही आकुल दौड़ लगाती हैं निर्झर की तरह उसे चैन तभी मिलता है जब लघुता का महानता में विसर्जनपूर्ण हो जाता है।