मानवी अस्तित्व और सभ्यता को चुनौती देने वाला अभूतपूर्व विश्व संकट

February 1975

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विश्व की समस्याओं पर गम्भीर दृष्टि से विचार करने वालों का कथन है कि इस युग की सबसे बड़ी समस्या बढ़ती हुई जनसंख्या है। बढ़ती हुई आबादी चक्रवृद्धि गति से अधिकाधिक बच्चे उत्पन्न करती चली जा रही है इसका परिणाम विस्फोटक होगा।

इन दिनों अणु आयुधों के महायुद्ध में विश्व के सर्वनाश की विभीषिका देखी जाती है पर उससे भी बड़ा संकट बढ़ते हुए प्रजनन का है। महायुद्ध टाला जा सकता है अथवा पुराने हथियारों के लड़ा जा सकता है; किन्तु बढ़ती हुई आबादी का कोई समाधान नहीं। प्रस्तुत संकट कंपा देने वाला है। अगली शताब्दी में यह समस्या धरती पर मानवी अस्तित्व को चुनौती देगी और जीवन-मरण की विभीषिका बन कर सामने प्रस्तुत होगी।

द्रुतगति से बढ़ती हुई जनसंख्या ने अगणित ऐसी अत्यन्त जटिल समस्याओं को जन्म दिया है जिनका समाधान एड़ी चोटी का पसीना एक करने पर भी मिल नहीं रहा है। धरती की उपज इस क्रम से नहीं बढ़ सकती जिस क्रम से आबादी बढ़ रही है। फलतः संसार भर में अन्न संकट बढ़ता ही चला जा रहा है और धरती से नजर आगे बढ़ाकर समुद्र की ओर ताका जा रहा है। मछली उत्पन्न करने, पकड़ने और उसे प्रमुख आहार का अंग बनाने से मानवी आहार प्राप्त करने की शोध चल रही है। धरती के पशुओं को समाप्त कर देने की योजना है ताकि उनके काम आने वाली घास तथा जमीन को मनुष्य के लिये प्रयुक्त किया जा सके। अन्न कम पड़ने की दशा में घास में से आहार निकाला जायगा। निकट भविष्य में मनुष्य घास को अन्न के स्थान पर, प्रयोग करेंगे। दूध मूँगफली, सोयाबीन आदि का बनेगा। घी की जरूरत तेल पूरी करेंगे। कृषि मशीनों से होगी।

पशुओं के बाद वृक्षों का सफाया होगा, वे भी बहुत जंगल और जमीन घेरे हैं। लकड़ी, घास की लुगदी से बना करेगी। ईंधन का काम बिजली से लिया जायेगा। जंगलों, पहाड़ों और रेगिस्तानों को विस्मार कर दिया जायेगा। सड़कें जमीन नीचे चलेंगी। मकान कई मंजिले बनेंगे ताकि खाद्य उत्पादन के लिए अधिक जमीन मिल सके। समुद्र पर तैरती बस्तियाँ और फैक्ट्रियां फिरा करेंगी। बढ़ी हुई जनसंख्या को आखिर कहीं तो स्थान देना ही पड़ेगा।

बढ़ी हुई आबादी वाली देश खाली जमीन वाले देशों में अपना जनता को धकेलना चाहेंगे। और खाली जमीन वाले अपनी सुविधा बनाये रहने के लिए उन्हें रोकेंगे। छोटे या बड़े युद्धों का यही प्रमुख कारण होगा ऐसे युद्ध टाले न जा सकेंगे। और उस संघर्ष में करोड़ों अरबों की मौत और प्रचुर संपत्ति का नाश होकर रहेगा।

वृक्ष न रहने से, कारखाने बढ़ने से वायु प्रदूषण पैदा होगा, पानी की कमी पड़ेगी-पेड़ों से रहित दुनिया में वर्षा घटेगी। पेड़ कार्बन गैस खाते और आक्सीजन छोड़ते हैं। मनुष्य का प्रधान आहार आक्सीजन है। उसकी कमी पड़ने से दम घुटने जैसी स्थिति पैदा हो जायगी। घनी बस्तियों में स्वास्थ्य संकट ही नहीं नैतिक अनाचार भी बढ़ेगा। व्यस्त एकाकी मनःस्थिति में रहने की सामाजिक स्थिति बनती जायगी और मनुष्य स्वार्थपरायण एवं खीज खिन्नता से ग्रसित पाये जायेंगे। विलासिता और अभाव-ग्रस्तता की दुहरी मार से वे दिन-दिन दुर्बल होते जायेंगे और पीढ़ियाँ क्रमशः दीन-दुर्बल होती चली जायेंगी, मक्खी मच्छरों की तरह लोग बेमौत मरा करेंगे।

बढ़ती हुई आबादी का प्रश्न जिस विकट रूप से अब सामने आया है वैसा इस दुनिया के इतिहास में पहले कभी नहीं आया। वैज्ञानिक प्रगति ने सुख-सुविधाएं बढ़ाई हैं- चिकित्सा विकास ने मृत्यु दर घटाई है- विलासी उत्तेजनाओं ने प्रजनन बढ़ाया है और चक्रवृद्धि गति से मनुष्योत्पादन अधिक से अधिकतम होता चला गया है। अब सबसे विकट समस्या संसार के सामने एक ही है इस प्रजनन संकट से कैसे बचा जाय ?

परिवार नियोजन की दृष्टि से चलने वाले नसबन्दी रबड़ थैली, लूप- गोलियां जैसे प्रयोग जैसे प्रयोग भी कुछ बड़ी रोक थाम नहीं कर सके क्योंकि दुनिया में पिछड़ी हुई जनता ही अधिक है। वह नियोजन का महत्व नहीं समझती और इन साधनों का प्राप्त करने एवं उपयोग करने में झिझकती है। प्रकृति दुर्बलों को सन्तान भी अधिक देती है। नियोजन के प्रचार से केवल शिक्षित और समझदार लोग प्रभावित होते हैं और वे ही आँशिक रोक-थाम करते हैं। इससे रोक-थाम तो नहीं के बराबर होती है। उलटे विकसित वर्ग का संख्या सन्तुलन घटता जाता है। इस प्रकार उस आन्दोलन से जितने लाभ की आशा की गई थी वह तो नहीं मिला पर एक परिणाम अवश्य हुआ कि जहाँ कुछ समय पहले सन्तानोत्पादन को सौभाग्य का आधार माना जाता है वहाँ अब लोग उसके दुष्परिणामों के बारे में भी समझ। सोचने लगे है। इस तरह जो लोक-मानस जन रहा सम्भव है उसका कुछ अच्छा परिणाम भविष्य में सामान्य आये और लोग आज की मान्यता से सर्वथा भिन्न प्रकट से यह सोचने लगे कि प्रजनन का उत्साह व्यक्ति और समाज दोनों के लिए ही-हर दृष्टि से घातक है।

विश्व के मूर्धन्य विचारकों की इस समस्या को सुलझाने के लिए विवाह संस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने को बात समझ में आ रही है और वे सरकारों से यह अनुरोध कर रहे हैं कि प्रजनन को निरुत्साहित करने वाले कड़े कदम उठाने का दुस्साहस करें भले ही प्रचलित परम्पराओं को उनसे आधार पहुँचे और पुरातन पन्थी उसका विरोध करें। इसी प्रकार वे बुद्धि-जीवियों और समाज नेताओं पर यह दबाव डाल रहे हैं कि प्रजनन पर नियन्त्रण करने वाले हर उपाय का वे समर्थन करे। वैध-अवैध और उचित-अनुचित के विचार को छोड़ने की बात वे इस आधार पर कहते हैं कि जीवन-मरण की प्रस्तुत समस्या का समाधान आपत्ति धर्म के अनुरूप खोजा जाना चाहिए। एक और मरण का सर्वनाश है दूसरी ओर उचित-अनुचित। वे कहते हैं ऐसी स्थिति का सामना युद्ध संकट की आपत्तिकालीन स्थिति को तरह किया जाना चाहिए।

इन विशेषज्ञों का एक सुझाव यह है कि उच्च वर्ग के लोग विवाह तो करें पर सन्तानोत्पादन बिलकुल न करें। वे निम्न वर्ग के लोगों के बच्चे ले लें और उन्हें अपने आश्रय में रखकर पालें-पोसें। इस प्रकार उनकी सन्तान विनोद की आवश्यकता भी पूरी होती रहेगी। उनमें परोपकार की उदार वृत्ति भी पनपेगी और निम्न वर्ग में उत्पन्न हुए बालकों को उच्च वर्ग का बनने में सहायता मिलेगी।

दूसरा सुझाव यह है कि विवाह की आयु कानून बना कर बढ़ा दी जाय। लड़कियाँ पच्चीस वर्ष से पहले और लड़के तीस वर्ष से पहले विवाह न करने पायें । जो करें वे कड़ा दण्ड भुगतें और वे विवाह गैर कानूनी ठहरा दिये जाये। सन्तानोत्पादन की आधी वृद्धि इसी आयु में ही हो लेती है। लड़कियाँ पच्चीस वर्ष की आयु तक आधा उत्पादन पूरा कर देती है। शेष सारी उम्र में जितने बच्चे पैदा होते हैं उतने बीस पच्चीस वर्ष तक की महिलायें जन चुकती है।

तीसरा उपाय यह है कि अल्प वयस्कों के विवाह से स्थापित हुए गर्भों को जेल में गर्भपात कराके नष्ट करने का कानून बना दिया जाय और दो या तीन बच्चे पैदा कर चुकने पर प्रत्येक नर-नारी को सरकारी दबाव ने बन्ध्य कर दिया जाय। अधिक सन्तान उत्पन्न करने वालों के साथ समाजद्रोही जैसा व्यवहार किया जाय उन्हें सरकारी और सामाजिक क्षेत्र में पिछड़ा माना जाय और उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया जाय। निर्धनों के बच्चे जब्त कर लिये जायें और उन्हें सरकार वाले ताकि घटिया नागरिकों की भरमार न होने पाये।

स्कूलों में एक अनिवार्य विषय के रूप में परिवार नियोजन पढ़ाया जाय और रेडियो, सिनेमा, अखबार आदि साधनों से जनता की इस दिशा में निरन्तर प्रशिक्षण किया जाय। सरकारी नौकरियों में बिना बच्चे वाले या कम बच्चे वालों को ही लिया जाय ताकि वे आर्थिक तंगी से विवश होकर भ्रष्टाचार अपनाने के लिए बाध्य न हो।

ब्रह्मचर्य पालन करके जनसंख्या नियंत्रण की बात इन विचारकों की दृष्टि में आदर्शवादी चर्चा का विषय बन सकती है पर उसकी कोई व्यावहारिक उपयोगिता नहीं है। वर्तमान वातावरण साहित्य ने, कला ने, शृंगारिकता के प्रचलन ने इतना कामोत्तेजक बना दिया है कि इन दिनाँक ब्रह्मचर्य अपवाद ही रह सकता है। सर्वसाधारण उसे हृदयंगम कर सकें और व्यावहारिक जीवन में ला सकें यह असम्भव है। इस मान्यता के आधार पर वे विवाह और प्रजनन की दो ही प्रक्रियाओं का वर्तमान ढाँचा बदलना चाहते हैं। इसके लिये उनके कुछ विचित्र लगने वाले किन्तु विचारणीय सुझाव है।

एक सुझाव यह है कि नर-नारी के बीच विवाह भले ही होते रहें; पर वे सन्तानोत्पादन न करने की शारीरिक स्थिति उत्पन्न कर लें। बंध्य-करण का आपरेशन करालें अथवा अन्य निरोधक उपाय बरतते रहें।

दूसरे उपाय बहुपति प्रथा को पुनर्जीवित करने का बताया गया है। उनका तर्क है कि प्राचीन काल में द्रौपदी और कुन्ती के उदाहरण मौजूद हैं; जिन्होंने एक साथ कई पतियों को भली प्रकार सन्तुष्ट रखा था। प्रमाण के लिए कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश के देहरादून जिले के जौनसार बावर क्षेत्र में यह प्रथा सफलता पूर्वक चलती देखी जाती है। वहाँ मात्र बड़ा भाई विवाह करता है, छोटे सब भाई उसी भावज को अपनी पत्नी मानते हैं। जो बच्चे पैदा होते हैं वे चाचाजी न कहकर बड़े पिताजी मझले पिताजी, छोटे पिताजी आदि कहते हैं। बड़े सुख पूर्वक वे परिवार चलते हैं। सीमित घर और जमीन में कितनी ही पीढ़ियाँ गुजारा करती रहती हैं। कई पति कमाने वाले रहने से पत्नी को भी प्यार उपहार से लेकर घर की अर्थ व्यवस्था ठीक रखने में सहायता मिलती है। घर, खेत, सम्पत्ति के बँटवारे का कोई प्रश्न नहीं उठता। संयुक्त परिवार एक गृह स्वामिनी के खूँटे से बँधा रहता है और कभी नहीं बिखरता। उस क्षेत्र में अनेक सभ्यताभिमानी पहुंचने है और अलग विवाह की बात कहते हैं पर लोग अनुभव के आधार पर अपने प्रचलन को अधिक सुख-शान्ति भरा बताते हैं। उदारता, ममत्व और सामूहिकता की श्रेष्ठता की बात कह कर वे अपने को अधिक सुसंस्कृत बताते हैं। उलटे ईर्ष्या, अलगाव एवं संकीर्ण स्वार्थपरता के इल्जाम इन उपदेशकों पर लगाते हैं। तर्क यह है कि जब हर क्षेत्र में सहकारिता और मिल-जुलकर रहने की वृत्ति लाभदायक है तो विवाह ही क्यों उसका अपवाद रहे। यदि सोचने का तरीका बदल लिया जाय तो बहुपति प्रथा को अधिक सुखद, सुविधाजनक पाया जा सकता।

तीसरा उपाय इन विचारकों की दृष्टि में समलिंगी विवाहों का प्रचलन है। वे कहते हैं नर का नर से और नारी का नारी से विवाह हो समता है और उससे भी दाम्पत्य-जीवन की आवश्यकतायें पूरी हो सकती हैं। जनखे संसार में बहुत बड़ी संख्या में हैं और वे पुरुष होते हुए भी नारी का स्थान ग्रहण करते हैं। आवश्यक नहीं कि इसके लिए एक नर एक नारी बने। दोनों ही नर की स्थिति में रहकर जीवन व्यवस्था के हर पक्ष में सहयोगी रह सकते हैं। इसी प्रकार नारियाँ भी स्नेह-सूत्र में बँध कर ऐ दूसरे की साथी सहयोगी रह सकती हैं।

इस स्तर के प्रयोग भी पाश्चात्य देशों में हो रहे हैं। उन्हें देखकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया जा रहा है कि तीनों प्रक्रियायें सहज, सरल, उपयोगी एवं व्यावहारिक हैं।

अमरीकी ‘साइन्स डाइजेस्ट’ में रोपल विश्वविद्यालय के डेन ब्राइन का एक लेख छपा है जिसमें उन्होंने अफ्रीका के कई ऐसे संगठनों का हवाला दिया है जो महिलाओं की परस्पर शादी कराने की कानूनी पृष्ठभूमि बनाने में सहायता करते हैं। वहाँ हर वर्ष ऐसे सैकड़ों वैध विवाह होते हैं जिनमें वर और और वधू दोनों ही नारियाँ होती हैं। लेखक का कथन है कि नारियों में यह प्रवृत्ति सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता का उपभोग करने की दृष्टि से पनपी है।

नारी मुक्ति आन्दोलन अब विश्वव्यापी होता जा रहा है उसका एक नारा यह भी है कि-“क्यों नर मौज उड़ाये और क्यों नारी यातना सहे ?” वे कहती हैं दोनों को समान यातना सहने या मौज करने का अवसर मिलना चाहिए। उस आन्दोलन की सदस्याओं ने नारी समाज में प्रचलित समस्त श्रृंगार साधनों का बहिष्कार कर दिया है वे कहती हैं कि नर-नारी के बीच वेष-विन्यास, पोशाक हाव-भाव आदि की कोई भिन्नता न रहने देनी चाहिए। नारी को नारी से विवाह करके जीवनयापन करने की प्रेरणा इस आन्दोलन ने दी है।

जनसंख्या विचारकों की दृष्टि से इस आन्दोलन में जनसंख्या नियंत्रण की सभी किरणें मौजूद हैं भले ही इससे वर्तमान समाज व्यवस्था में गड़बड़ी उत्पन्न हो। वे कहते हैं वस्तुतः उत्पादन नारी करती है। नर तो योगदान मात्र करता है यदि मूल उत्पादक उसे खतरा समझने लगे और उससे बचने लगे तो समस्या सहज ही हल हो जाती है वे पुरुषों की अपेक्षा नारी समाज को प्रजनन की हानियों से परिचित कराने पर और निःसन्तान रहने की सुविधाओं की ओर आकर्षित करने पर बहुत जोर देते हैं। इस दृष्टि से उन्होंने नारी मुक्ति आन्दोलन के उस पक्ष का समर्थन किया है जिसमें महिलाओं को सन्तानोत्पादन से बचने के लिये का गया है।

ऊपर की पंक्तियाँ ध्यान पूर्वक पढ़ने से हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि बढ़ता हुआ सन्तानोत्पादन वस्तुतः एक विश्व संकट है उस पर नियंत्रण किया ही जाना चाहिए। वह स्थिति न आने देनी चाहिए कि अवैध और अनैतिक उपायों तक को स्वीकार करने के लिये विवश होना पड़े। समय रहते हम स्वेच्छा सन्तानोत्पादन को निरुत्साहित करें। नैतिक मार्ग पर चलते हुए-वर्तमान समाज व्यवस्था को स्थिर रखते हुए-संयम, सदाचार का पालन करते हुए हम प्रजनन को घटा सकते हैं। पिछड़े हुए निम्नवर्ग में संतानोत्पादन को सौभाग्य माना जाता है और उसके लिये उन्हें लालायित पाया जाता है। सन्तान न होने पर दूसरा विवाह करने की बात सोचते हैं- दुखी रहते हैं- तरह-तरह के उपाय करते हैं- वंश चलने की, पिण्डदान की मूढ़ मान्यताओं पर विश्वास करते हैं। उत्तराधिकार के लिए गोद लेने की बात सोचते हैं। इन लोगों को समझाया जाना चाहिए, कि सन्तान न होना ईश्वर प्रदत्त सौभाग्य और वर्तमान स्थिति में समाज द्रोह से सहज ही बचे रहने का सुअवसर है। जो अब तक कई सन्तानें पैदा कर चुके हैं वे तुरन्त उस पर नियंत्रण करें। जिनके अभी बच्चे नहीं हैं वे अपनी शक्तियों को विश्व संकट में बढ़ावा देने की अपेक्षा किसी उपयोगी कार्य में खर्च करें। सन्तानोत्पादन के हर्षोत्सवों का भी मृतक भोज की तरह बहिष्कार किया जाय। क्योंकि वह वस्तुतः खुशी का नहीं रंज का अवसर है कि विश्व संकट पर एक वजन और लद गया।

कामुकता के विचारों को कला की ईश्वर भक्ति की, परमार्थ की दिशा में मोड़ा जा सकता है इस परिष्कार से आनन्द, उल्लास का अधिक उपयोगी और ऊँचा स्तर प्राप्त हो सकता है। पति-पत्नी भी निर्विकार स्नेह सौजन्य के आधार पर मधुर दाम्पत्य-जीवन जी सकते हैं। हमें ऐसे ही नैतिक उपायों से प्रजनन रोकने की बात सोचनी चाहिए अन्यथा बढ़ता हुआ विश्व संकट जब जीवन-मरण की स्थिति में पहुँचेगा तो उन उपायों को भी स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा जो आज अनैतिक और अवाँछनीय प्रतीत होते हैं और किसी प्रकार गले नहीं उतरते।


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