जड़ और चेतन में एक ही सत्ता ओत प्रोत है।

February 1975

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आइन्स्टाइन एक ऐसे फार्मूले की खोज में थे, जिससे जड़ और चेतन की भिन्नता को एकता में निरस्त किया जा सके। प्रकृति अपने आप में पूर्ण नहीं है, उसे पुरुष द्वारा प्रेरित प्रोत्साहित आर फलवती किया जा रहा है। यह युग्म जब तक सिद्ध नहीं हो जाता, तब तक विज्ञान के कदम लँगड़ाते हुए ही चलेंगे।

जड़ और चेतन के बीज की खाई अब पटने ही वाली है। द्वैत को अद्वैत में परिणत करने का समय अब बहुत समीप आ गया। विज्ञान क्रमशः इस दिशा में बढ़ रहा है कि वह जड़ को चेतन और चेतन को जड़ सिद्ध करके दोनों को एक ही स्थान पर संयुक्त बनाकर खड़ा कर सके। जीवन रासायनिक पदार्थों से-पंचतत्वों से बना है इस सिद्धान्त को सिद्ध करते-करते हम वही पहुँच जाते हैं जहाँ यह सिद्ध हो सकता हो कि जीवन से पदार्थों की उत्पत्ति हुई है।

उपनिषद् का कहना है कि ईश्वर ने एक से बहुत बनने की इच्छा की, फलतः यह बहुसंख्यक प्राणी और पदार्थ बन गये। यह चेतन से जड़ की उत्पत्ति हुई। नर-नारी कामेच्छा से प्रेरित होकर रति कर्म में निरत होते हैं। फलतः राज शुक्र के संयोग से भ्रूण का आरम्भ होता है। यह भी मानवी चेतना जड़ शरीर की उत्पत्ति है। जड़ से चेतन उत्पन्न होता है, इसे पानी में कोई और मिट्टी में घास उत्पन्न होते समय देखते हैं। गन्दगी में मक्खी-मच्छरों का पैदा होना, सड़े हुए फलों में कीड़े उत्पन्न होना यह जड़ चेतन की उत्पत्ति है।

पदार्थ विज्ञानी इस बाद पर बहुत जोर देते हैं कि ‘जड़’ प्रमुख है। चेतन उसी की एक स्थिति है। ग्रामोफोन का रिकार्ड और उसकी सुई का घर्षण प्रारम्भ होने पर आवाज आरम्भ हो जाती है, उसी प्रकार इकट्ठे होने पर आवाज आरम्भ हो जाती है, उसी प्रकार अमुक रसायनों के अमुक स्थिति में-अमुक अनुपात में इकट्ठे होने पर चेतन जीव की स्थिति में जड़ पदार्थ विकसित हो जाते हैं। जीव-विज्ञानी अपने प्रतिपादनों में इसी तथ्य को प्रमुखता देते हैं।

जीव-विज्ञान को दो भागों में बांटा जा सकता है। वनस्पति विज्ञान (वौटनी), प्राणि विज्ञान (जूलौजी) इन दो विभाजनों से भी इस महा समुद्र का ठीक तरह विवेचन नहीं हो सकता। इसलिये इसे अन्य भेद-उपभेदों में विभक्त करना पड़ता है।

सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से जिन जीवधारियों को देखा समझा जाता है। उसके सम्बन्ध में जानकारी सूक्ष्म जैविकी (माइक्रो बायोलॉजी) कही जाती है।

आकारिकी (मारफोलाजी) शारीरिकी (अनाटोमी) ऊतिकी (हिस्टोलाजी) कोशिकी (साइटोलोजी) भ्रूणी (एम्ब्रोलाजी) शरीर क्रिया (फिजियोलॉजी) वर्गिकी (पैलेन्टिओलाजी) परिस्थिति की (एकोलाजी) आनुवाँशिकी (जैनेटिक्स) जैव विकास (आरगैनिक एवूलेशन) आदि।

इन सभी जीव-विज्ञान धाराओं ने यह सिद्ध किया है कि जीवन और कुछ नहीं जड़ पदार्थों का ही विकसित रूप है।

रासायनिक दृष्टि से जीवन सेल और अणु के एक ही तराजू पर तोला जा सकता है। दोनों में प्रायः समान स्तर के प्राकृतिक नियम काम करते हैं। एकाकी एटम-मालेक्यूल्स और इलेक्ट्रोन्स के बारे में अभी भी वैसी ही खोज जारी है जैसी कि पिछली तीन शताब्दियों में चलती रही है। विकिरण-रेडियेशन और गुरुत्वाकर्षण, ग्रेविटेशन के अभी बहुत से स्पष्टीकरण होने बाकी है। जो समझा जा सका है वह अपर्याप्त ही नहीं असन्तोषजनक भी है।

यों कोशिकाएँ निरन्तर जन्मती-मरती रहती है, पर उनमें एक के बाद दूसरी में जीवन तत्व का संचार अनवरत रूप से होता रहता है। मृत होने से पूर्व कोशिकाएँ अपना जीवन तत्व नवजात कोषा को दे जाती हैं, इस प्रकार मरण के साथ ही जीवन की अविच्छिन्न परम्परा निरन्तर चलती रहती है। उन्हें मरणधर्मा होने के साथ-साथ अजर-अमर भी कह सकते हैं। वस्त्र बदलने जैसी प्रक्रिया चलते रहने पर भी उनकी अविनाशी सत्ता पर कोई आँच नहीं आती।

नोबेल पुरस्कार विजेता डा0 एलेक्सिस कारेल उन दिनों न्यूयार्क के राक फेलर चिकित्सा अनुसन्धान केन्द्र में काम कर रहे थे। एक दिन उन्होंने एक मुर्गी के बच्चे के हृदय के जीवित तंतु का एक रेशा लेकर उसे रक्त एवं प्लाज्मा के घोल में रख दिया। वह रेषा अपने कोष्ठकों की वृद्धि करता हुआ विकास करने लगा। उसे यदि काटा-छाँटा न जाता तो वह अपनी वृद्धि करते हुए वजनदार माँस पिण्ड बन जाता। उस प्रयोग से डा0 कारेल ने यह निष्कर्ष निकाला कि जीवन जिन तत्वों से बनता है यदि उसे ठीक तरह जाना जा सके और टूट-फूट को सुधारना सम्भव हो सके तो अनन्तकाल तक जीवित रह सकने की सभी सम्भावनाएं विद्यमान हैं।

प्रोटोप्लाज्मा जीवन का मूल तत्व है। यह तत्व अमरता की विशेषता युक्त है। एक कोश वाला अमीबा प्राणी निरन्तर अपने आपको विभक्त करते हुए वंश वृद्धि करता रहता है। कोई शत्रु उसकी सत्ता ही समाप्त करदे यह दूसरी बात है अन्यथा वह अनन्त काल तक जीवित ही नहीं रहेगा वरन् वंश वृद्धि करते रहने में भी समर्थ रहेगा।

रासायनिक सम्मिश्रण से कृत्रिम जीवन उत्पन्न किये जाने की इन दिनों बहुत चर्चा है। छोटे जीवाणु बनाने में ऐसी कुछ सफलता मिली भी है, पर उतने से ही यह दावा करने लगना उचित नहीं कि मनुष्य ने जीवन-सृजन करने में सफलता प्राप्त कर ली।

जिन रसायनों से जीवन विनिर्मित किये जाने की चर्चा है क्या उन्हें भी-उनकी प्रकृतिगत विशेषताओं को भी मनुष्य द्वारा बनाया जाना सम्भव है? इस प्रश्न पर वैज्ञानिकों को मौन ही साधे रहना पड़ रहा है। पदार्थ की जो मूल प्रकृति एवं विशेषता है यदि उसे भी मनुष्यकृत प्रयत्नों से नहीं बनाया जा सकता तो इतना ही कहना पड़ेगा कि उसने ढले हुए पुर्जे जोड़कर मशीन खड़ी कर देने जैसा बाल प्रयोजन ही पूरा किया है। ऐसा तो लकड़ी के टुकड़े जोड़कर अक्षर बनाने वाले किन्नर गार्डन कक्षाओं के छात्र भी कर लेते हैं। इतनी भर सफलता से ड़ड़ड़ड़ निर्माण जैसे दुस्साध्य कार्य को पूरा कर सकने का दावा करना उपहासास्पद गर्वोक्ति है।

कुछ मशीनें बिजली पैदा करती हैं- कुछ तार बिजली बहाते हैं, पर वे सब बिजली तो नहीं हैं। अमुक रासायनिक पदार्थों के सम्मिश्रण से जीवन पैदा हो सकता है सो ठीक है, पर उन पदार्थों में जो जीवन पैदा करने की शक्ति है वह अलौकिक एवं सूक्ष्म है। उस शक्ति को उत्पन्न करना जब तक सम्भव न हो तब तक जीवन का सृजेता कहला सकने का गौरव मनुष्य को नहीं मिल सकता।

ब्रह्माण्ड की शक्तियों का और पिण्ड की-मनुष्य की शक्तियों का एकीकरण कहाँ होता है शरीर शास्त्री इसके लिए सुषुम्ना शीर्षक, मेडुला आवलाँगाटा-की ओर इशारा करते हैं। पर वस्तुतः वह वहाँ है नहीं। मस्तिष्क स्थित ब्रह्मरंध्र को ही वह केन्द्र मानना पड़ेगा, जहाँ ब्राह्मी और जैवीय चेतना का समन्वय सम्मिलन होता है।

ऊपर के तथ्यों पर विचार करने से यह एकाँकी मान्यता ही सीमित नहीं रहती कि जड़ से ही चेतन उत्पन्न होता है इन्हीं तथ्यों से यह भी प्रमाणित होता है कि चेतन भी जड़ की उत्पत्ति का कारण है। मुर्गी से अण्डा या अण्डे से मुर्गी-नर से नारी या नारी से नर- बीज से वृक्ष या वृक्ष से बीज जैसे प्रश्न अभी भी अनिर्णीत पड़े हैं। उनका हल न मिलने पर भी किसी को कोई परेशानी नहीं। दोनों को अन्योन्याश्रित मानकर भी काम चल सकता है। ठीक इसी प्रकार जड़ और चेतन में कौन प्रमुख है इस बात पर जोर न देकर यही मानना उचित है कि दोनों एक ही ब्रह्म सत्ता की दो परिस्थितियाँ मात्र हैं। द्वैत दीखता भर है वस्तुतः यह अद्वैत ही बिखरा पड़ा है।


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