“रक्षक - भक्षक” (kavita)

February 1975

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जो बागुड़ रक्षा करती थी, खेत उसी ने ही चर डाला। धर्म-विधान बना था,

हमको पाप-ताप से मुक्ति दिलाने। दुष्कर्मों से दूर हटाकर, सद्कर्मों की ओर बढ़ाने॥

आज धर्म व्यवसाय बन गया, आडम्बर की लगी दुकानें। स्वार्थ-सिद्धि के लिए धर्म ने धारण किये धर्म के बाने॥

संरक्षक, भक्षक बन बैठा, अन्धकार, बन गया उजाला। जो बागुड़ रक्षा करती थी, खेत उसी ने ही चर डाला॥

जन-मानस प्रेरित करने, साहित्य-सृजन अनुपम साधन था। जीवनभर साहित्य-साधना सरस्वती का आराधन था॥

सद्प्रवृतियाँ जाग्रत करना ही साहित्यकार का प्रण था। जन-मंगल के लिए समर्पित उसका सारा ही जीवन था।

पिला रहा है जन-मानस को वही वासना-विष का प्याला। जो बागुड़ रक्षा करती थी खेत उसी ने ही चर डाला॥

सामाजिक-विकास करने को बनी हुई थीं सभी प्रथाएं। सामाजिक-उन्नति में हाथ बंटाया करती थी मर्यादाएं॥

रीति-नीतियाँ थीं निर्धारित, जिनसे टलती थीं विपदाएं। निर्धन और धनी सबकी ही निभ जाया करती थीं क्षमताएं॥

बन बैठीं जब वे कुरीतियाँ पड़ गया पतन से पाला। जो बागुड़ रक्षा करती थीं खेत उसी ने ही चर डाला॥

मनुज, मनुज का दर्द मिटाने को इस दुनिया में आया था। वसुधा विहँस उठी थी, जिस दिन उसने मानव को पाया था॥

दीनों, दुखियों की दुनिया में आशा का अम्बर छाया था। घृणा, द्वेष से आहत घावों ने अपने को सहलाया था॥

अश्रु पौंछने वाले ने ही रुला दिया पर अश्रु न ढाला। जो बागुड़ रक्षा करती थी खेत उसी ने ही चर डाला॥

- मंगल विजय


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