मूर्ति पूजा का औचित्य

January 1973

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विदेशों में भारतीय संस्कृति की दिग्विजयी यात्रा से लौटने के बाद स्वामी विवेकानंद की कीर्ति भारत के कोने-कोने में फैल गई। उनको वक्तृत्व शैली और अध्यात्म के तर्क संगत प्रतिपादन से प्रभावित होकर काशी के तत्कालीन नरेश ने स्वागत के लिए आमंत्रित किया।

स्वामी जी अद्वैत-वेदांत के प्रकाण्ड पंडित थे। उनकी विचारधारा के संबंध में बात-चीत चली। नरेश मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे और स्वामी जी प्रबल समर्थक थे। अध्यात्म साधना की प्रथम कक्षा वे मूर्तिपूजा को ही मानते थे परंतु निर्गुणोंपासक और विभिन्न मतवादियों से भी उन्हें कोई विरोध नहीं था। अपने सिद्धांतों का वे प्रतिपादन अवश्य करते थे परन्तु दुराग्रह नहीं।

मूर्तिपूजा की चर्चा छेड़ते हुए काशी नरेश ने कहा- “अद्वैत वेदांत की विचारधारा से मूर्तिपूजा का मेल तो नहीं बैठता है फिर आप इसका समर्थन क्यों करते हैं।"

स्वामी जी ने कहा- परमात्मा शक्ति स्वरूप और शक्ति को कोई आकार नहीं दिया जा सकता है यह बात ठीक है परन्तु मैं खुदी मूर्तिपूजा को आत्म साधना का प्रथम सोपान समझता हूँ

‘आपके विचारों में ही विरोधाभास आपके अनुयायियों में कई भ्रान्तियाँ पैदा कर सकता है इसलिए किसी भी बात को केवल भावना के कारण ही स्वीकार नहीं करना चाहिए- काशी नरेश ने उपदेश दिया।

स्वामी जी बोले- मैंने मूर्ति पूजा में भावना नहीं तथ्य पाया है।’

‘भला इसमें क्या तथ्य। निर्गुण निराकार परमात्मा का कोई आकार कैसे निश्चित किया जा सकता है।’

‘ईश्वर का कोई आकार नहीं परन्तु साधना उपासना की सुगम पद्धति यही है कि मन को स्थिर करने के लिये ईश्वर की धारणा किसी मूर्ति रूप में की जाये।’

‘यह तो मिथ्या संतोष हुआ'- नरेश ने आशंका की-इसके माध्यम से आत्मोन्नति कैसे संभव होगी।

‘वस्तुतः मिथ्या संतोष नहीं है। ईश्वर सर्वव्यापी है तो मूर्ति में क्यों नहीं होगा-स्वामी जी ने समाधान दिया।

स्वामी जी उनके दुराग्रही प्रतिपादन को तोड़ गये थे। महल के भीतर की दीवारों पर अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित वीर पुरुषों के चित्र टाँगे थे। शायद वे उक्त नरेश के पूर्वजों के रहे होंगे।

स्वामी जी ने एक चित्र की इंगित करते हुए कहा- ‘यह चित्र किन का है। जरा इसे उतरवाकर मँगाइये।’

राजा के अनुचरों ने तत्काल वह चित्र उतारा ओर स्वामीजी को दिया। काशी नरेश ने बताया- ‘यह चित्र मेरे परदादा महाराज का है।’

क्या आपने अपने जीवन में इन्हें देखा है- स्वामीजी ने प्रश्न किया।

‘जी नहीं- नरेश ने उत्तर दिया।

‘तो फिर क्या आप इस चित्र पर थूक सकते हैं’- स्वामीजी ने कहा-आपको थूकना चाहिए। थूकिए।’

‘नहीं थूक सकता- नरेश ने कहा- ये हमारे पूजनीय हैं।

स्वामीजी ने कहा- आपने तो इन्हें देखा नहीं है। फिर इन्हें श्रद्धापात्र कैसे मानते हैं और फिर यह तो मात्र चित्र है इन पर थूकने में धृष्टता कैसी होगी।

बात काशी नरेश की भी समझ में आ रही थी परंतु फिर भी वे थूकना नहीं चाहते थे। स्वामी जी बोले-आप इस चित्र के प्रति पूज्यभाव रखते हैं। यद्यपि इस चित्र पर थूकने से आपके परदादा का कुछ नहीं बिगड़ेगा और यह भी प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि यह चित्र पूरी तरह आपके परदादा के शरीर की प्रतिकृति भी नहीं हैं इसी प्रकार प्रतिमा के प्रति अपना विश्वास और श्रद्धा भाव रखना आवश्यक है। ईश्वर शक्ति है, चेतना है पर सामान्य जन का मन ऐसे अमूर्त के प्रति एकाग्र हो पाना दुस्तर है, इसीलिए मैं मूर्तिपूजा में विश्वास रखता हूँ।


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