वाणी सोच समझकर और विचार पूर्वक बोलें

January 1973

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प्रतीत होता है कि जीभ ही शब्द बोलती है और कंठ से ही स्वर निकलता है। पर गहराई से देखने पर प्रतीत होता है कि शब्दोच्चारण के पीछे सारा कार्य कलेवर और मनः संस्थान काम कर रहा होता है। बात करते समय कमर से ऊपर के अंगों में प्रायः स्पन्दन होता है। वाणी के साथ अगणित भाव और प्रभाव होते हैं। वे इतने जटिल और सूक्ष्म होते हैं कि मात्र ध्वनि के आधार पर उनकी समग्र अभिव्यक्ति संभव नहीं हो सकती है। चेहरे की इंच इंच जगह प्रयत्न करती है कि जो अभिप्राय शब्दों की सीमित शक्ति से व्यक्त नहीं हो सकता उसे नेत्र, कपोल, होंठ, दाँत, भवें आदि मिलकर उस कमी को पूरा करें और सामने उपस्थित व्यक्ति को वह प्रयोजन समझायें जो वक्ता का है। उच्चारण के समय हाथ, उंगलियां , कंधे भी विचित्र मुद्राओं में हलचल करते रहते हैं। इसका प्रयोजन भी उच्चारण में अभिव्यक्ति को प्रकट करने की जो कमी रह गई है उसे पूरा करना ही होता है।

यह तो अभिव्यक्ति की बात हुई। मूलतः शब्द का स्पन्दन बहुत गहराई से होता है। आध्यात्म शास्त्र में इसका स्थान ‘नाभि’ माना गया है। हृदय की वाणी , अन्तः करण की स्फुरणा’ जैसी उक्तियों में यही बताने का प्रयत्न किया जाता है कि मुख से जो कहा गया है उसका सम्बन्ध भाव संस्थान के साथ भी जुड़ा हुआ है। इतना ही नहीं उच्चारण की पृष्ठभूमि बनाने में हृदय , फुफ्फुस, नाडी संस्थान, स्नायु मंडल, आँतें, आमाशय, वृक्क, यकृत आदि का महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध रहता है। योग विज्ञान ने नाद का उद्भव षट्चक्रों और एक सौ आठ उपहल्का चुल्लिकाऐं- ग्रन्थियों के सम्मिलित संस्थान से होता है। इसके लिए उसके साथ पूरा व्यक्तित्व ही जुड़ा होता है। वाणी का रहस्यमय विश्लेषण किया जाये तो उससे किसी व्यक्ति के शारीरिक , मानसिक और भावनात्मक स्तर को भली प्रकार जाना जा सकता है। असल में वाणी के साथ पूरा व्यक्तित्व ही बोलता है और उच्चारण की परिधि शब्दों के अर्थ तक ही सीमित नहीं होती, वरन् उसके साथ ऐसा विचित्र प्रभाव भी जुड़ा होता है जिसे समझने के लिये कर्णेन्द्रिय ही पर्याप्त नहीं होती है। उसके लिए मनः चेतना के सूक्ष्म स्तर को विकसित करना होता है।

साधारण वार्तालाप में कंठ, जीभ और मस्तिष्क का सीमित प्रयोग होता है इससे जानकारियों का आदान-प्रदान होता है और उस आदान-प्रदान को किन भली बुरी अभिव्यक्तियों के साथ ग्रहण किया है इसका परिचय मिलता है। यह वैखरी वाणी कहलाती है। दैनिक व्यवहार में इससे भी काम चल जाता है। यो इससे अधिक सफलता तभी मिलती है जब व्यक्ति का आकर्षण जुड़ा हुआ हो तथा वह सुनने वाले को प्रभावित करने योग्य हो।

वैखरी वाणी का उपयोग विभिन्न लौकिक क्रिया कलापों में होता है। सफल नेता, सफल वक्ता इसी आधार पर बना जा सकता है कि वाणी को हृदयग्राही बनाने में कितनी सफलता प्राप्त कर ली गई। कहना न होगा कि प्रगति के लिए दूसरों के साधन सहयोग की भी अनिवार्य रूप से आवश्यकता पड़ती है और उस क्षमता का विकास बहुत करके इस बात पर निर्भर रहता है कि अभीष्ट प्रयोजन के लिए वाणी को किस प्रकार कितनी मात्रा में प्रभावोत्पादक बनाया जा सकता है। सफल अध्यापक इसी विशेषता के विकसित होने पर थोड़ी पढ़ाई में भी इतना कुछ समझा देते हैं कि छात्र पर्याप्त मात्रा में ज्ञान संवर्द्धन में आशाजनक सफलता प्राप्त कर सके।

वाणी के और भी गहरे स्तर है जिन्हें मध्यमा, परा और पश्यंती कहा गया है उनमें शब्दों का उच्चारण स्वल्प होते हुए भी उनके साथ व्यक्तित्व की प्रचण्ड क्षमता का अधिकतम समावेश होता है। प्रतिभा वालों के संपर्क में पहुँचने वाले लोग उसी प्रभाव से प्रभावित होते हैं। ऋषियों के आश्रम में सिंह और गाय के साथ साथ रहने की बात प्रसिद्ध है। गुरुकुलों में रहने वाले अन्तेवासी प्रायः अपने प्राचार्य के ढाँचे में अपना समग्र व्यक्तित्व ढाल लेते थे। इसलिए उन्हें अपने पिता का पुत्र होने से भी अधिक श्रेय और गौरव गुरु का मिलता था। शिक्षा पद्धति प्रायः सभी गुरुकुल में एक जैसी रहते हुए भी किन्हीं शिक्षा संस्थान की उपलब्धियाँ उच्च स्तर की होती थी, वहाँ के छात्र प्रखर व्यक्तित्व लेकर निकलते थे इसका कारण पाठ्य विधि को नहीं शिक्षकों के व्यक्तित्व को ही समझा जाता था। वे वाणी अधिक बोले या कम इससे कुछ खास अन्तर नहीं आता था। अनुभूतियों को स्वरूप शब्दों में अथवा बिना शब्दों का सहारा लिए मौन रूप में भी प्रकट और प्रेरित किया जा सकता है।

सत्संग और सान्निध्य का अभिप्राय यही है कि प्रभाव शाली व्यक्तियों के प्राणिक ऊर्जा से निकट निवासी लोग अधिकाधिक लाभ उठा सके। आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति लोगों के पास जाकर अथवा उन्हें अपने पास बुलाकर उन्हें लाभान्वित होने का अवसर इसी आधार पर देते थे। इस प्रभाव प्रत्यावर्तन में प्रधानतया वाणी ही प्रमुख माध्यम होती थी। गुरु मंत्र, आशीर्वाद, परामर्श में शब्द कम होते थे किन्तु प्रभाव अधिक होता था। इससे स्पष्ट है कि शब्दों के साथ उच्चारण कर्ता की उच्चस्तरीय स्फुरणाएं, क्षमताएँ एवं अभिव्यक्तियाँ प्रचुर मात्रा में रहती है। इसके बिना कोरी बकवास का कुछ अधिक प्रभाव परिणाम नहीं हो सकता।

अनावश्यक अस्त-व्यस्त और अवांछनीय बक-झक करते रहना विकृत व्यक्तित्व का चिह्न है। इसी बात को कुछ यो भी कह सकते हैं कि बकवादी लोग अपने व्यक्तित्वों को विकृत कर लेते हैं। बोलना सीमित होना चाहिए, सोद्देश्य होना चाहिए मुँह खोलने से पूर्व विचार कर लेना चाहिए इस कार्य के लिए क्या बोलना हैं और उसके लिए अपनी अन्तः चेतना को तदनुकूल बना लिया जाय। यदि ऐसा किया जा सके तो उसका प्रभाव परिणाम निस्सन्देह आशा जनक होगा। थोड़े से शब्द ही बहुत काम कर सकेंगे। इससे समय बचेगा, शक्ति बचेगी और सुनने वाला उसे अच्छी तरह समझने तथा पचाने में समर्थ हो सकेगा ‘आँधी -तूफान की तरह शब्दों की झड़ी लगाने वाले- इन शब्दों को हाँकने वाले और बकवास की रेल लगाने वाले’ आत्म प्रवंचना करके अपनी योग्यता पर आप प्रसन्न हो सकते हैं, पर उसका प्रभाव परिणाम अत्यन्त स्वल्प होता है। उच्चारण में हुआ अपव्यय शब्दों के साथ जुड़ी शक्ति को बिखेर देता है और वक्तृत्व की क्षमता क्षत विक्षत अस्त व्यस्त और प्रभावहीन हो जाती है।

आत्मविद्या में मौन को बहुत महत्त्व दिया गया है। उसे वाणी का तप माना गया है। वाक् को देवी सरस्वती कहा गया है। शाप और वरदान देने की क्षमता उसमें भरी पड़ी है। सम्मोहन और विस्फोट के तत्व उसमें भरे पड़े है और वे नगण्य प्रतीत होते हुए भी इतने महत्त्वपूर्ण है कि उनका परिणाम अपने लिए एवं दूसरों के लिए आश्चर्यचकित करने वाला हो सकता है। मंत्र विज्ञान का आविर्भाव इसी आधार पर हुआ है। उपासक का पहला काम अपने अन्तरंग और बहिरंग जीवन को पवित्र व परिष्कृत बनाता है ताकि प्राणऊर्जा आध्यात्मिक विद्युत का भण्डार उसके अन्दर भरा पूरा रह सके। इसके उपरान्त मन की एकाग्रता एवं भावनात्मक श्रद्धा विश्वास का पुट देकर चेतना प्रवाह को एक विशेष दिशा में गतिशील किया जाता है। यह दोनों आधार सुदृढ़ करते चलने वाले मंत्र जपकर्ता अपनी वाणी के माध्यम से अभीष्ट प्रयोजन के लिए आवश्यक शक्ति का आविर्भाव करते हैं। बार -बार के उच्चारण से मंत्र के शब्द प्रवाह स्थूल और सूक्ष्म अंग प्रत्यंगों में अपनी प्रतिध्वनि के साथ द्रुतगति से उमड़ते घुमड़ते रहते हैं फलस्वरूप अपने को सिद्ध पुरुष जैसी स्थिति में अनुभव कर सके और दूसरों को उस उत्पादित ऊर्जा द्वारा लाभान्वित कर सके।

गाली गलौज, कर्कश, कटु भाषण, अश्लील मजाक , कामोत्तेजक गीत, निन्दा चुगली, व्यंग, क्रोध एवं आवेश भरा उच्चारण, वाणी की रुग्णता प्रकट करते हैं। ऐसे शब्द दूसरों के लिये मर्मभेदी नहीं होते वरन् अपने लिए भी घातक परिणाम उत्पन्न करते हैं। विज्ञान वेत्ता बताते हैं कि उच्चारित शब्द मुख से निकलने के बाद पहला प्रभाव उस पद छोड़ता है जिसके लिये उसे कहा गया है। उसके बाद वह समुद्र की लहरों की तरह समस्त ब्रह्माण्ड में दौड़ पड़ता है और एक लम्बी यात्रा करने के बाद शब्दबेधी बाण की तरह अपनी मूल उद्गम स्थल पर लौट आता है और वही विसर्जित होता है। यदि उच्चारित शब्दावली दुर्भाव भरी हो तो उससे विश्व ब्रह्माण्ड में अवांछनीय हलचलें उत्पन्न होगी जीवधारियों और प्रकृति पदार्थों पर हानिकारक प्रभाव पड़ेगा, उन्हें क्षति पहुँचेगी। इसके उपरान्त वह उसका अन्त विसर्जन अपने आप में होगा तो उसकी हानि कारक प्रतिक्रिया अपने को ही भुगतनी पड़ेगी इस प्रकार कटुभाषी व्यक्ति दूसरों को ही नहीं अपने आप को भी घायल करता है और वाणी के दुरुपयोग से अनाड़ी द्वारा किए गए शस्त्र-संचालन की तरह सर्वत्र विग्रह ही उत्पन्न करता है।

कटुभाषी व्यक्ति अपनी ही तरह अपने परिवार का भी भारी अहित करते हैं। वयस्क लोग जो कटु शब्दों के अर्थ और प्रहार को समझते हैं उत्तेजित होकर विद्रोही बनते हैं और कटुभाषण के पीछे छिपे हुए सदुद्देश्य, सदुपदेश को भी मानने से इनकार कर देते हैं। आत्म सम्मान पर जिसके भी चोट पहुँचेगी वह विद्रोही बनेगा। और उस आघात का बदला अवज्ञा के रूप में लेगा। इस प्रकार कटुभाषी का रोष प्रकट करना न केवल व्यर्थ ही जाता है वरन् उलटी हानिकारक प्रतिक्रिया भी उत्पन्न करता है उससे अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में तनिक भी सहायता नहीं मिलती। परिवार में विग्रह और विद्रोह उत्पन्न करने के दोषी उसके कटुभाषी सदस्य ही होते हैं।

छोटे बच्चे शब्दों को अर्थ भले ही न समझे पर उसके प्रभाव से अपनी सुकोमल संवेदन शक्ति के कारण और भी अधिक प्रभावित होते हैं उनके व्यक्तित्व के सही विकास में भारी अवरोध घर का क्रोध युक्त वातावरण ही उत्पन्न करता है जिन घरों में बात बात पर चख चख झक झक होती रहती है उन घरों में पलने वाले बालक बड़े होने पर कभी सुयोग्य और सुविकसित नहीं हो सकते। इन तथ्यों को यदि बारीकी से समझा जाय तो यह सहज ही अनुभव हो सकेगा कि व्यक्ति और परिवार और समाज की सुव्यवस्था में वाणी का भारी योगदान है अतः बोलते समय हमें काफी सोच विचार के बाद ही कुछ उच्चारण करना चाहिए।


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