इसका एक बड़ा कारण पारिवारिक जीवन का असंतोष भी है। हाथ पाँव चलने तक लोग अपनी आजीविका पर गुजर करते हैं अपनी शारीरिक आवश्यकताएँ स्वयं सम्भालते हैं पर वृद्धावस्था में जब शरीर की शक्ति और आमदनी चुक जाती है तो उन्हें दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। संतानें इन अनुत्पादक अभिभावकों को ‘आफत’ मानती है और इनसे जैसे बने पीछा छुड़ाना चाहती है। अपनी दयनीय दुर्दशा पर क्षुब्ध होकर वे अक्सर पागल हो जाते हैं या आत्महत्या कर बैठते हैं।
कोरीनर डॉ० मिलने ने बताया कि उन्हें एक वर्श में 400 मृत शरीरों की परीक्षा करनी पड़ी उनमें से 180 आत्महत्या करके मरे हुए वृद्ध लोग थे। दुखी वृद्धावस्था के संताप जिन्हें पागल बनाते और आत्महत्या के लिए प्रेरित करते हैं ऐसे लोगों की संख्या दिन- दिन बढ़ती ही जाती है।
आध्यात्मवादी उदार दृष्टिकोण में वृद्धों और असहायों की सेवा सहायता करने की गुँजाइश है। भौतिकवादी अर्थशास्त्र में जब अनुत्पादक गाय बैलों को तुरन्त कसाई के हवाले करने का जोर-शोर से प्रतिपादन किया जाता है तो उसी मान्यता से प्रभावित पीढ़ी को किस मुँह से यह कहा जाए कि उन्हें वृद्ध माता-पिता की सेवा सहायता करनी चाहिए। आत्मवादी मान्यताओं की आवश्यकता बुद्धिवादी वर्ग शायद तब समझे जब उसे स्वयं उस प्रकार की असहाय स्थिति का सामना करना पड़े पर तब तक उसे विचार परिवर्तन के लिये बहुत देरी हो चुकी होती है।