संगठन और सहयोग पर सृष्टि-व्यवस्था टिकी है।

January 1973

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यह समझना भूल है कि व्यक्ति एकाकी भी पर्याप्त है। उसकी सरी विशेषताएँ सहयोग संगठन प्रक्रिया पर टिकी हुई हैं। शरीर देखने पर एकाकी है वस्तुतः वह अनेक अंग-प्रत्यंगों का- कोशिकाओं और नाड़ी तंतुओं प्रभृति अनेक घटकों का समूह मात्र हैं। इनमें से एक भी पुर्जा यदि अस्त व्यस्त हो जाय तो देखते-देखते सुदृढ़ प्रतीत होने वाला काय कलेवर आधि-व्याधियों से ग्रस्त दीन दुर्बल हो जाता है।

परिवार के छोटे से देश प्रदेश में -घर घोंसले में व्यवस्था, विश्राम और आनंद-उल्लास का लाभ मिलता है। एकाकी व्यक्ति कितनी ही सुविधाओं से सम्पन्न क्यों न हो, परिजनों के अभाव में किसी शून्यता और रिक्तता का ही अनुभव करता रहेगा। इस प्रकार सामाजिक सहकारिता से रहित, मात्र अपने ही गोरखधन्धों में उलझा रहने वाला व्यक्ति क्रमशः स्वार्थी और संकीर्ण ही नहीं नीरस और कर्कश भी बनता जाता है। सहकारिता का स्नेह सौजन्य जिसे नहीं मिला, सेवा सहायता के आधार पर जिसने अपने आत्म भाव को विस्तृत नहीं किया, वह आत्मिक आनंद से तो वंचित रहेगा ही भौतिक जीवन में भी महत्त्वपूर्ण प्रगति का मार्ग अवरुद्ध ही अनुभव करेगा।

न केवल मानव जीवन में वरन् प्रकृति के हर क्षेत्र में यह संगठन और सहयोग की प्रक्रिया चल रही है। जड़ चेतन जगत इसी आधार पर परस्पर सुसम्बद्ध है और अपने क्रम से आगे चल रहा है, यदि इस विधि व्यवस्था में अंतर पड़ जाय तो समझना चाहिए कि अगले ही क्षण घोर अव्यवस्था की अंधकार पूर्ण स्थिति सामने आकर खड़ी होने वाली है।

परमाणु के बारे में पूर्ण मान्यता यह थी कि वे एकाकी और अपने आप में पूर्ण हैं। पर पीछे पता चला कि परमाणु भी एक परिवार सत्ता की तरह है और उसके साथ भी एक के भीतर परतें जुड़ी हुई हैं।

सन् 1803 में जान डाल्टन ने परमाणुवाद के सिद्धांत को जन्म दिया। उनका कहना था कि-प्रत्येक पदार्थ सूक्ष्म कणों से मिलकर बना है परमाणु अविभाज्य है और उसकी क्रिया से विभाजित नहीं हो सकता। सारे परमाणु आकार, रूप, भार आदि में समान होते हैं। लेकिन अलग अलग तत्त्वों के परमाणुओं के गुण, आकार, रूप , मात्रा आदि अलग-अलग होते हैं। जो दो परमाणु मिलते हैं तो वे पूर्ण संख्या में मिलते हैं। खंडों में नहीं। परमाणु के खंड नहीं होते। परमाणु न उत्पन्न किये जा सकते हैं और न वे नष्ट होते हैं।

डालटन के परमाणु सिद्धांत अर्वाचीन शोधों ने बहुत अंशों में झुठला दिये हैं। डालटन की कल्पना थी कि परमाणु विभाजित नहीं हो सकते हैं परंतु अब द्रव्य को परमाणुओं से भी सूक्ष्म कणों से बना हुआ ज्ञात किया गया है। परमाणु धन और ऋण विद्युत कणों के बने होते हैं। जिन्हें प्रोटोन और इलेक्ट्रान-कहते हैं। अतः परमाणु इलेक्ट्रान और प्रोटोन आदि में विभक्त हो सकते हैं। यह भी आवश्यक नहीं कि किसी तत्व के समस्त परमाणु समान हों और यह भी आवश्यक नहीं कि दो विभिन्न तत्त्वों के परमाणु भिन्न-भिन्न ही हों, वे समान भी हो सकते हैं।

रेडियम और उसकी किरणों को आरंभ में स्व निर्भर माना गया था पर अब उसके अंतर्गत भेद विभेदों की परतें स्पष्ट होती चली जा रही हैं। आज की रेडियम संबंधी मान्यता में उनके तीन विभाजन हैं। [1] अल्फा [2] बीटा [3] गामा किरणों की त्रिविधि प्रकृति में विशेषता प्रकृति में रेडियम विभक्त हैं। उनकी अपनी-अपनी विशेषता और क्षमता है, फिर भी वे तीनों परस्पर मिली जुली ही रहती हैं और उनका समन्वय ही रेडियम का समग्र अस्तित्व विनिर्मित करता है।

धातु कण और प्राणियों के मूल उत्पादक तत्व भी अब इस रूप में देखे समझे जाने लगे हैं। कि वे न केवल जीवंत ही हैं वरन् परस्पर सहयोग भी करते हैं और मिल-जुलकर एक अस्तित्व का परिचय देते हैं। पदार्थों के समस्त रूपों में धातुओं के कण ही सबसे भारी होते हैं। तब भी उनमें जीवन विद्यमान् है। भारतीय विज्ञान वेत्ता प्रो० जे० सी० बोस ने रायल इंस्टीट्यूशन के सामने यह प्रमाणित किया था कि माँस पेशियों की तरह हो धातुओं में भी हलके किस्म का जीवन विद्यमान् है। उन्होंने विभिन्न वनस्पतियों में जीवन ही नहीं संवेदना भी सिद्ध की और प्रमाणित किया कि मिट्टी पत्थर भी निर्जीव नहीं हैं। उर्वरा भूमि तो अनेक प्रकार के बैक्टीरियों जैसे सूक्ष्म कृमियों को जन्म देती रहती है और उनका पोषण करती है, इन्हीं का अग्रिम विकास धरती पर उगी वनस्पतियों के रूप में दिखाई देता है।

रसायन क्षेत्र पर दृष्टिपात करें तो भी यही संगठन और सहयोग का - परस्पर मिलन और समन्वय का सिद्धांत मूर्तिमान् होता दिखता है।

छः तत्त्वों का सम्मिश्रण ऐसा भी हो सकता है जिसमें वे परस्पर पूरी तरह आत्मसात् हो जायें और अपना-अपना अस्तित्व खोकर एक नये यौगिक के रूप में विकसित होने लगें।

यथा- मैग्नेशियम को हवा में जलाने से सफेद राख बनती है। इस राख का एक ‘यौगिक’ कह सकते हैं क्योंकि उसमें आक्सीजन और मैग्नेशियम का सम्मिश्रण पाया जाता है। इसी प्रकार पानी भी दो तत्त्वों से मिलकर बनता है उसमें हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का सम्मिश्रण है। कोयले को जलाने से कार्बन डाई आक्साइड बनता है वह भी एक यौगिक है।

रासायनिक प्रीत उसे कहते हैं जिसमें दो पदार्थ मिल कर एक रस हो जाते हैं यह भी एक यौगिक प्रक्रिया ही है। दो के मिलने से तीसरी वस्तु बनने की यह भी एक प्रक्रिया है।

यथा- लोहा और गंधक गर्म करने पर मिल जाते हैं और यौगिक बनाते हैं। गंधक और पारा मिला देने से भी ऐसा ही मिश्रण होता है। यह मिलन कई प्रकार का होता है। सोडियम के टुकड़े का पानी में डालने पर दोनों के कणों में पारस्परिक मिलन होता है और उससे हाइड्रोजन गैस बनती है। नमक के घोल और सिल्वर नाइट्रेट का घोल मिलाने से सिल्वर बनता है। ताँबा और नाइट्रिक एसिड मिलाने से ताम्र नाइट्रेट बनना आदि।

मिश्रण उसे कहते हैं जिसमें कुछ पदार्थ आपस में मिलकर ऐसे दीखते हैं मानो वे परस्पर घुल-मिल गये पर वस्तुतः ऐसा नहीं होता, उनमें पृथकता बनी रहती है। कोई अपना अस्तित्व नहीं खोता, और न उनके मिलने से कोई तीसरी चीज बनती है। आवश्यकतानुसार उन्हें पृथक किया जा सकता है। बाहर से एकता भीतर से पृथकता की यह मिश्रण पद्धति रसायन क्षेत्र में आसानी से देखी जा सकती है।

नमक, मिट्टी और लोहे के बुरादे को मिलाकर एक मिश्रण बनाया जा सकता है। खड़िया, कोयला, शकर आदि मिलाकर एक चीज बन सकती है। अल्कोहल जल और नारियल का तेल मिलाकर एक नई जैसी चीज का अस्तित्व सामने आता है। गंधक, शोरा और कोयला मिलाने से बारूद बनती है। यह मिश्रण प्रयोगशाला में आसानी से पृथक किये जा सकते हैं।

जीव रसायन (डी.एन.ए.) भी न्यूक्लिओ टाइड वर्ग के चार अन्य रसायनों का सम्मिश्रण हैं। इनके नाम है (1) एडिनिन (2) गुआनिन (3) लाइमीन (4) साइटोसीन। न्यूक्लिक एसिड के विभिन्न खंडों को जो विभिन्न गुणों को निर्धारित करते हैं जीन करते हैं। रासायनिक दृष्टि से प्रत्येक जीन’ न्यूक्लिक एसिड का बना होता है।

गैसों की विधि व्यवस्था को गौर से देखा जाय तो उनमें से पारस्परिक सहयोग के कारण उत्पन्न होने वाली क्षमता और विशेषता का परिचय पग-पग पर प्राप्त होता है। नाइट्रोजन जीवधारियों और पौधों के शरीर की वृद्धि के लिए अत्यंत आवश्यक तत्व है। वह वायुमंडल में प्रचुर मात्रा में विद्यमान् भी है पर आश्चर्य इस बात का है कि शरीर या पौधे हवा के नाइट्रोजन को सीधा ग्रहण नहीं कर सकते।

वायुमंडल का नाइट्रोजन विद्युत प्रभाव से आक्सीजन में मिलकर नाइट्रिक अम्ल बनाती है और पृथ्वी तल पर गिरकर धरती के अन्य लवणों से क्रियान्वित होकर नाइट्रेट में परिणत होती है। इतनी लंबी प्रक्रिया में से गुजरने के बाद तब कहीं नाइट्रोजन इस योग्य बनती है कि उसे प्राणियों के शरीर और पौधे सोखकर आत्मसात् कर सकें।

पौधों के नाइट्रेट लवणों में प्रोटीन बनाते हैं। वनस्पति, उसकी पत्ती, फल-फूल खाकर उसके उस तत्व को प्राणी अपने शरीर में ग्रहण करते हैं। जानवर मल और मूत्र के द्वारा बहुत सा नाइट्रोजन धरती को लौटा देते हैं। जो उनके शरीर में बचा रहता है। वह मरने के बाद सड़ने या जलने पर फिर लौटकर धरती को या वायुमंडल को मिल जाता है। इस प्रकार वायुमंडल का नाइट्रोजन जल, वनस्पति, प्राणी, धरती और फिर वायुमंडल में भ्रमण करके एक सुव्यवस्थित चक्र की तरह घूमता रहता है।

आकाश स्थित नाइट्रोजन वायु का बादल बिजली की सहायता से वर्षा के साथ खाद बनकर धरती पर आना, पृथ्वी के संयोग से उसका वनस्पति के रूप में उगना, वनस्पतियों का प्राणियों द्वारा भक्षण किया जाना और उसका प्रोटोन जैसे उपयोगी पदार्थों में परिवर्तित होना। मलमूत्र द्वारा उसका फिर धरती पर आना, वस्तुओं की सड़न से उसका फिर आकाश में लौटना,

यह एक ऐसा चक्र है जो निरंतर चलता रहता है इसे जीवन चक्र भी कह सकते हैं इसे धरती पर सजीवता बनाये रखने में नाइट्रोजन की महान् भूमिका भी कह सकते हैं।

उसके अतिरिक्त पौधों को नाइट्रोजन प्राप्त होने का एक और भी तरीका है। सेम, बटला, मटर जैसी जाति के पौधों की पतली जड़ों में अत्यंत सूक्ष्म बैक्टीरिया कीड़े रहते हैं उनमें यह विशेषता है कि वे वायुमंडल से सीधे नाइट्रोजन लेते हैं और उसे नाइट्रेट बना देते हैं। जिन्हें पौधे आसानी से आत्मसात् कर लेते हैं।

सहअस्तित्व का - परस्पर सहयोग का यह अनोखा उदाहरण है। कीड़े पौधों को खुराक देते हैं और पौधे कीड़ों को। इस प्रकार दोनों एक-दूसरे के लिए जीवन के साधन प्रदान करते रहते हैं।

पृथ्वी में भी कुछ ऐसे सूक्ष्म कीड़े रहते हैं जो पदार्थों में से नाइट्रोजन बनाते हैं और वायुमंडल से जितना अंश धरती निवासियों का प्राप्त होता है उसे वापिस करते रहते हैं।

वायुमंडल में नाइट्रोजन का बहुत बड़ा भंडार है। धरती की सतह से दो सौ मील तक की ऊँचाई में जो वायु का आवरण है उसमें 75 प्रतिशत नाइट्रोजन गैस का भाग है। जिस तरह ऑक्सीजन श्वास नलिका से फेफड़े तक जाकर रक्त की अशुद्धि दूर कर उसे शुद्ध बनाती है उसी तरह नाइट्रोजन मनुष्यों , पेड़ पौधों तथा अन्य जीवधारियों के भोजन की व्यवस्था जुटाती है। जैसे आटा ऐसे ही कच्चा नहीं खाया जा सकता उसकी रोटी बनाकर खाने से काम चलता है उसी तरह नाइट्रोजन सीध भोजन नहीं हे, उसके कारण प्रोटीन तथा दूसरे पदार्थ बनते हैं और वे हमारे आहार का प्रयोजन पूरा करके जीवन रक्षक ही सिद्ध होते हैं।

चाहे जन-जीवन की बात हो चाहे प्रकृतिगत जड़ समझे जाने वाले पदार्थों की, सबके मूल में एक ही प्रधान तथ्य काम करता दिखाई पड़ेगा संगठन और सहयोग। जहाँ इस प्रक्रिया को जितना अधिक अपनाया जाएगा वहाँ उतना ही अधिक उत्कर्ष एवं असुखकर परिस्थितियाँ उत्पन्न होंगी।


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