फ्रायड ने धर्म को एक प्रकार की व्यापक दिमागी बीमारी- यूनीवर्सल अवसेशनल न्यूरा सेस माना गया है वे अपनी ‘दी फ्यूचर आफ एन इल्यूजन’ में लिखते हैं - “ जब मनुष्य अपने आपको बाह्य प्रकृति और अन्तः प्रवृत्ति के झकझोरों का सामना करने में असमर्थ पाता है तो अपनी असहाय अन्तः व्यथा को ठण्डा करने के लिए धर्म का सहारा लेता है। “
धर्म अवांछनीय है और काम प्रवृत्ति मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है। इन दो प्रतिपादनों से खुले अनाचार को छूट मिलती है। थोड़े कर्मकाण्डों और प्रथा प्रचलनों को अलग रखकर देखा जाये तो धर्म विशुद्ध रूप से नीति शास्त्र है उसमें नागरिक शास्त्र और समाज शास्त्र के अस्तित्व से इनकार कर देना और किनारे पर पड़े हुए सीप घोंघों को ही समुद्र सम्पदा मान बैठना भूल है।
धर्म को अनुपयोगी इसलिए कहा जाने लगा है कि उसमें पूर्वाग्रह, रूढ़िवादिता एवं साधारण कर्मकाण्डों का अत्युक्ति पूर्ण माहात्म्य भर दिया गया है। निहित स्वार्थों से प्रेरित धर्माचार्यों के अन्धविश्वास ने ऐसे तत्व धर्मक्षेत्र में घुसेड़ दिये है जिनसे उनका व्यक्तिगत लाभ तो खूब होता है पर श्रद्धालु के पल्ले समय और पैसे की बर्बादी के अतिरिक्त और कुछ नहीं पड़ता यदि यह दोष निकाल दिया जाय तो धर्म का नैतिक एवं सामाजिक पक्ष अपने असली स्वरूप में आ सकता है उसका बुद्धिवाद का हर पक्ष एक स्वर से समर्थन कर सकता है। मनोविज्ञानी धर्म को मनः चेतना पर अनावश्यक और अवांछनीय भार डालने वाला जब बताते हैं तब वस्तुतः उसका मंतव्य उसी धर्म विडम्बना की कटु आलोचना करना होता है जो आज पाखण्ड के रूप में सभी सम्पदाओं में समान रूप से अपना रखी है।
मनोविज्ञान वेत्ता विलियम जेम्स, डीवे, तयाजुंग ने धर्म में नैतिक अनैतिक - एवं यथार्थ भ्रान्त तत्त्वों के संशोधन की आवश्यकता पर बल दिया है वे कहते हैं जब तक धर्म के शुद्ध और अशुद्ध पक्षों का वर्गीकरण न किया जाएगा तब तक उसके पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा जाता रहेगा। उसकी संतुलित विवेचना भी संभव न हो सकेगी और न इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकेगा कि धर्म की उपयोगिता में कितना तथ्य है।
स्पष्ट है कि यह समीक्षा धर्म प्रवंचना की ही है। यह धर्म तत्व अपने मूल रूप में परिष्कृत स्तर का बन सके तो उसे मनोविज्ञान दर्शन के आधार पर भी अनावश्यक एवं भारभूत न ठहराया जा सकेगा।
धर्म के मूल तत्त्वों को भूलकर जो स्थानीय और सामयिक धर्म प्रवर्तकों में खो जाते हैं वे ही धर्म को बदनाम करते हैं। पूर्वजों के कुछ आचरण और निर्देश अपने समय में ठीक समझे और कहे जाते होगे पर बदली हुई परिस्थितियों में उनका यथावत् बने रहना सम्भव नहीं। शाश्वत में धर्मतत्त्व का मूल दर्शन ही है। उसके आचरण में अन्तर होते रहते हैं। यदि तत्व को भुलाकर किसी समय के धर्माचरण को ही मुख्य मान लिया जाय अथवा अमुक धर्म प्रवर्तक की उक्तियों अथवा गतिविधियों को सनातन मान लिया जाय तो फिर धर्म प्रतिभागी ही बन जाएगा और कालान्तर में विकृत होकर विग्रह ही उत्पन्न करेगा।
मनोविज्ञान को जिस प्रयोजन के लिए आज - कल प्रयोग किया जाता है वह उसके मूल शब्दार्थ का एक बहुत छोटा भाग ही प्रकट करता है। अंग्रेजी में जिसे साइकोलॉजी कहते हैं इसका मूल अर्थ है आत्मा का विज्ञान। इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले सन् 1950 में रुडोल्फ गोमेकले ने किया। मूल रूप में यह यूनानी भाषा के साइके और लोगंस शब्द से मिल कर बना है। साइके का अर्थ है - आत्मा। लोगंस कहते हैं चर्चा अथवा विज्ञान। जिस संदर्भ में आत्मा की चर्चा या विवेचना की जाय उसे साइकोलॉजी कहा समझा जाना चाहिए। प्लेटो और अरस्तू इसी अर्थ में प्रयोग करते रहे है।
मनोविज्ञान की परिभाषा करते हुए कुछ दार्शनिक इस प्रकार कहते है-
मनोविज्ञान वह विवेचना है जो व्यवहार के पीछे छिपे मानसिक दिशा की जानकारी कराता है। - जेम्स ड्रेवर
जीवन के सम्मुख प्रस्तुत होने वाली परिस्थितियों एवं वस्तुओं के सम्बन्ध में जो प्राणी की प्रतिक्रिया होती है उसी का विश्लेषण मनोविज्ञान है। - चार्ल्स ई. स्किनर
वातावरण से प्रभावित व्यक्ति की विभिन्न मनः स्थितियों के स्वरूप की जानकारी को मनोविज्ञान कह सकते हैं। - वुडवर्थ
मानवी चिन्तन एवं कर्तृत्व के पीछे छिपी अचेतन मन की गतिविधियों का नाम मनोविज्ञान है। - ब्रिजेज
मनोविज्ञान मानवी अनुभवों एवं व्यवहारों का तात्त्विक दिग्दर्शन है। - थाउलस
त्याग, बलिदान, सेवा, तपस्या की कष्ट साध्य प्रक्रिया को अपनाने में कितने ही व्यक्ति असाधारण आनन्द, संतोष एवं गर्व अनुभव करते हैं यह समष्टि मन की ही तुष्टि है। पाशविक मन तो इसी प्रकार के कदम उठाने की कभी कल्पना ही नहीं कर सकता। भोग की लालसा मात्र शोषक स्वभाव को ही परिपुष्ट करेगी। प्रेम जैसे अध्यात्म तत्व से तो ऐसे लोगों को सर्वथा वंचित ही रहना पड़ेगा प्रेम तो उदारता ओर आत्मदान की भूमि पर ही विकसित होता है, जिसे अपने ही भोग की आपाधापी पड़ी है उसे शोषक का दृष्टिकोण ही पल्ले पड़ेगा और कुत्साओं में ग्रस्त रहने के अतिरिक्त उसके हाथ और कुछ न लगेगा।
विकसित व्यक्तित्व और प्रखर प्रतिभा की प्रशंसा सर्वत्र कही सुनी जाती है, यह और कुछ नहीं केवल समष्टि गत मन के विकास की व्यक्तिगत जीवन में दीख पड़ने वाली झाँकी मात्र है। सुगठित चरित्र निष्ठा, मनस्विता, दूरदर्शिता, प्रगतिशीलता, तत्परता एवं साहसिकता के रूप में हम केवल समष्टि मन की प्रौढ़ता का ही दर्शन करते हैं। इसकी तुलना उन भोग परायण नर कीटकों से नहीं की जा सकती जो तुच्छता के कारण गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से पग-पग पर घृणित और पतित सिद्ध होते रहते हैं। आत्मा का संदेश, ईश्वर का प्रकाश जिन्होंने सुना, देखा है वे समष्टि मन की प्रौढ़ता का प्रसाद ही अनुभव करेंगे
मन की भोंड़ी और उथली परत के नीचे दो और मन है- अतीन्द्रिय मन और समष्टिगत मन। अचेतन मन के यह दो भाग कितने महत्त्वपूर्ण है इसे मनस्वी और मनःक्षेत्र की साधना करने वाले लोग ही जान सकते हैं। चेतन मन के स्वरूप और प्रभाव से सभी लोग परिचित है। उसे सुयोग्य बनाने के लिए अध्ययन, अनुभव, परामर्श, मनन, चिन्तन आदि उपयोग को अपनाया जाना चाहिए। अचेतन मन की गरिमा और सम्भावनाओं का पता लगाने के लिए मनः शास्त्री जितने गहरे उतरते जाते हैं, उतना ही यह अनुभव करते हैं कि इस रत्नागार में छिपी बहुमूल्य सम्पदा इतनी अपार और असीम है जिनकी कल्पना तक कर सकना कठिन है।
अतीन्द्रिय मन में वे समस्त सम्भावनायें विद्यमान् है जिनका योगी तपस्वी तथा सिद्ध पुरुषों के चमत्कारों तथा सिद्धि साधनों के संदर्भ में वर्णन किया जाता है। परोक्ष जगत में जिन अनैतिकताओं और अति मानवी उपलब्धियों की चर्चा होती रहती है उनका बीज मूल इस अचेतन मन में ही प्रसुप्त स्तर पर पड़ा होता है, जो उसे जागृत कर लेते हैं वे उस अद्भुत को भी प्रत्यक्ष करते रहते हैं जो साधारण तथा असंभव और अप्रत्याशित समझा जाता है।
समष्टि मन को दूसरे शब्दों में विश्वात्मा कह सकते हैं। प्राणि मात्र में एक ही दिव्य ज्योति विभिन्न रंग रूपों और आकार प्रकारों में चल रही है। सामूहिकता, सद्भावना, प्रेम, उदारता, सेवा, संयम, ममता जैसी उच्च प्रवृत्तियाँ इसी स्तर के प्रस्फुरण से विकसित होती है। तुच्छ से नरपशु को महामानव के रूप में परिणत कर देने का श्रेय इसी मनः स्तर को है। अनीति की ओर बढ़ते कदमों को यही अन्तः प्रेरणा रोकती है। अतीन्द्रिय और समष्टि मन की अन्तः स्फुरणाओं के प्रभाव से ही व्यक्ति ऋषि, दृष्टा, तत्त्वज्ञानी , देवदूत एवं अवतारी बनता है। समष्टि मन का प्रभाव ही समाज सेवा, लोक मंगल एवं चरित्र निर्माण के रूप में देखा जाता है ओर अतीन्द्रिय मन की विभूतियों का सौंदर्य अतिमानवों के- देवदूतों के रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ देखा जा सकता है।
उथले स्तर की मनः विकृतियों को ही समग्र मानसिक चेतना मान बैठने वाले ही यह कह सकते हैं कि “ पशु प्रवृत्तियों के दमन से मानसिक रोगों की उत्पत्ति होती हैं। इसलिए उन्हें खुल खेलने देना चाहिए और नैतिकता, अनैतिकता , मर्यादा, उच्छृंखलता का विचार नहीं करना चाहिए। “ यह प्रतिपादन वस्तुतः मनुष्य के घृणित और वीभत्स स्तर की ही वकालत है और उसे पशु एवं पिशाच बनने का निर्लज्ज प्रोत्साहन है। यदि यह बात सत्य रही होती तो मानवी संस्कृति का जो विकास अब तक हो सका है वह कदापि संभव न रहा होता, फिर आदर्शवादिता और उत्कृष्टता के लिए संयम और सद्भाव के लिए मनुष्य चरित्र में कोई स्थान ही न रहा होता।
सच तो यह है कि नैतिक भावनाओं का उन्नयन मन को अत्यन्त संबल एवं उत्पादक बना देता है और ऐसे आनन्द, संतोष से भर देता है जिसकी तुलना में काम वासना सरीखी पशु प्रवृत्तियों का तुष्टिकरण तुच्छतम ही प्रतीत हो सकता है। धूप जहाँ नहीं पहुँचती वहाँ सीलन रहती है, प्रकाश जहाँ नहीं होता वहाँ अँधेरा छाया रहता है। ठीक इसी प्रकार समष्टि मन के मूर्छित पड़े रहने पर स्वार्थवादी एवं इन्द्रिय परायण अहंता जग पड़ती है और उसकी ललक, वासना तृष्णा की पशु चेष्टाओं में भटकती रहती है। फ्राइड सरीखे मनोविज्ञानी इसी भटकाव को मनुष्य की मूल प्रवृत्ति मान बैठे है। वे यह नहीं सोच सके कि उनके निष्कर्ष मानवी महानता को पतनोन्मुख बनाने का कितना घातक परिणाम प्रस्तुत करेंगे
मनः शास्त्री जुग ने समष्टि मन की क्षमता पर बहुत प्रकाश डाला, उसका कहना है कि इसी की प्रेरणा से वे सभी गतिविधियाँ उत्पन्न होती है जिनके आधार पर मनुष्य और समाज का सराहनीय रूप बनता है। वस्तुतः यही मूल प्रवृत्ति है। देवत्व यही है। सतोगुण एवं आत्मबल इसी को कहते हैं। वातावरण की गंदगी मन पर जमते रहने पर एक अनैतिक परत भी जमती रहती है। पर उसके उन्मूलन में भी दैवी प्रवृत्ति निरन्तर संलग्न रहती है। सद्गुरु की शिक्षा एवं आत्म-प्रेरणा के रूप में इसी संशोधन परिष्कार को आत्मवेत्ता चित्रित करते रहे है। समष्टि गत आकांक्षाओं के प्रतिकूल उच्छृंखलता एवं अनैतिक आचरण करने वालों को न केवल राजसत्ता द्वारा, सामाजिक घृणा द्वारा दण्ड मिलता है वरन् आत्मताड़ना द्वारा अनेकों शारीरिक मानसिक रोगों की उत्पत्ति भी होती है। यह तथ्य अब दिन-दिन अधिकतम स्पष्ट होते चले जा रहे है और उच्छृंखलतावादी मनोवैज्ञानिक प्रतिपादनों की निरर्थकता स्वयं सिद्ध बनती चली जा रही है।
जिस प्रकार धान के ऊपर अनुपयोगी छिलका चढ़ा होता है उसी प्रकार किसी- किसी के मन की ऊपरी परतें भी ऊबड़-खाबड़ हो सकती है। पर यह आवश्यक नहीं कि सुसंस्कृत वातावरण में जन्मे और पले व्यक्ति भी अशुद्ध चिन्तन की व्याधि से ग्रसित हो। आज के उचित वातावरण में बहु संख्यक लोगों की मनोवृत्तियों में पशु प्रवृत्तियों का बाहुल्य हो सकता है। संभवतः फ्रायड से यही भूल जान या अनजान में हुई है वे मनुष्य को कामुकता की कीचड़ में सड़ते रहने वाले कृमि-कीटक मात्र ही समझ सके है। वस्तुतः मानवी सत्ता की गरिमा उससे कही ऊँची है जैसा कि उनने समझा है।
पाश्चात्य दार्शनिक मन और आत्मा के बीच का भेद समझ सकने में प्रायः समझ सकने में असफल रहे है। उनमें से अधिकतर दोनों को एक ही मानते हैं। हीगिल और उनके अनुयायियों ने यही प्रतिपादित किया है कि मन की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति धारा का नाम आत्मा है। आर्थर शोयन हार और इमेनुल काण्ट ने आत्मा और मन के भेद को कुछ अधिक स्पष्ट किया है। फिर भी वे इसे विभेद को उतना आगे तक नहीं ले गये है जितना कि भारतीय तत्ववेत्ता कहते हैं।
भौतिक विज्ञान इतना ही मानता है कि मनुष्य को पूर्वपक्ष भूतकाल उसके माता-पिता पितामह, आदि पूर्वजों के साथ जुड़ा है और उतर पक्ष भविष्य पुत्र- पौत्रों के साथ। भौतिकवादी अपने अलावा अपने वंश परिवार को ही सुख समृद्धि सोच सकता है पर आत्मवादी की परमात्मा के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को निबाहने की बात ध्यान में रखनी पड़ती है। वह समाजनिष्ठ होता है जब कि भौतिकवादी की महत्वाकांक्षाएं अपने घर परिवार तक सीमित होकर रह जाती है।
मनोविज्ञान वस्तुतः दर्शन शाखा की ही एक शाखा है। इस शाखा की भी तीन प्रशाखाएँ है 1. जड़वादी अथवा अचेतनवादी - फ्रायड का सिद्धान्त 2. चेतनवादी- जुंग का सिद्धान्त। 3. व्यवहारवादी - मेग्डगल का सिद्धान्त। यदि वह वर्गीकरण कार्यक्षेत्रों के स्तर पर किया जाये तो उसे 1. वैयक्तिक 2. सामाजिक 3. सैद्धान्तिक 4. व्यावहारिक इन चार भागो में विभक्त करना पड़ेगा मानव मनोविज्ञान को बालकों, प्रौढ़ों, महिलाओं, वृद्धों को ध्यान में रखकर भी विभाजन रेखाएँ खड़ी की गई है। और व्यापार , चिकित्सा, कानून, शिक्षा, शासन आदि से सम्बन्धित कितने ही प्रयोजनों के लिए स्वतन्त्र शासनों के रूप में प्रतिपादित किया गया है।
अतीन्द्रिय मन के सम्बन्ध में कभी यही सोचा जाता था कि यह दैवी अनुग्रह का वरदान चमत्कार है। अब यह स्पष्ट हो चला है कि मंत्रों और देवताओं के माध्यम से जो कुछ प्राप्त किया जाता है वह वस्तुतः कही बाहर से नहीं आता वरन् भीतर से ही उदय होता है। मंत्रों में, साधन अनुष्ठानों में अलौकिक क्षमता मानी जाती है उसके उद्गमस्थल अचेतन मन की यही उच्चस्तरीय परत है। मंत्र, देवता या साधना विधान किसी के लिए फलप्रद होते हैं। किसी के लिए नहीं, इसका एक मात्र कारण साधक के अतीन्द्रिय मन की परिस्थितियों का ऊँचा नीचा स्तर ही है। अलौकिकताओं का ध्रुव केन्द्र यही मर्म स्थल है। ब्रह्मबिन्दु इसी को कहते हैं।