समाज सेवा में परमार्थ ही नहीं स्वार्थ भी सन्निहित है।

January 1973

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अध्यात्म का मुख्य उद्देश्य है आत्मा का विस्तार करना। आत्मा के विस्तार का अर्थ है-संपूर्ण प्राणियों को भगवान का प्रतिरूप मानकर उनके साथ स्नेह सौजन्य और ममता भरा हितकारी व्यवहार करना तथा प्राणिमात्र की सेवा में स्वयं को विस्मृत कर देना।

वस्तुतः जितने भी जप-तप संयम-साधन अनुष्ठान आदि किये जाते हैं उनका मुख्य उद्देश्य भी यही है कि आत्म विस्तार किया जाये। परंतु साधारणतया लोग माला के मनके फिरा कर और भगवान पर थोड़े से पत्र पुष्प चढ़ाकर ही यह सोच लेते हैं कि पूजा का उद्देश्य पूरा हो गया। परंतु वे गहरे भ्रम में पड़े हुए हैं। माला फिराने की क्रिया मात्र से आध्यात्मिक प्रगति कदापि संभव नहीं। जिस प्रकार किसी जीने पर चढ़ने के लिए क्रमशः पहली, दूसरी सीढ़ी चढ़कर ही सबसे ऊँचे सोपान पर पहुँचा जा सकता है। उसी प्रकार अध्यात्म की सर्वोच्च सीढ़ी पर पहुँचने के लिए जप-तप तो प्रथम सीढ़ी मात्र-साधन मात्र है। जप का प्रारंभिक उद्देश्य भगवान के चरणों में चंचल मन को एकाग्र करना है। पूजा-पाठ तो आध्यात्मिक प्रगति के लिए एक आँशिक प्रयत्न मात्र है।

आध्यात्मिक उन्नति की कसौटी है इंद्रिय-संयम तथा मनोनिग्रह। जिस प्रकार किसी रथ में दश घोड़े हों और वे सभी दश विभिन्न दिशाओं की और दौड़ने लगें तो रथ नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा उसी प्रकार ये दस इंद्रिय रूपी घोड़े यदि अपने-अपने विषयों की और दौड़ने लगे तो आध्यात्मिक उन्नति का रथ भी चरमरा कर टूट जाएगा उन्नत बनने के लिये इंद्रियों पर संयम रखना अत्यंत आवश्यक है। इच्छाओं और वासनाओं की नदी शुभ और अशुभ दो मार्गों पर दौड़ती है। हम सभी का यह पुनीत मानवोचित कर्तव्य है कि उसे प्रयत्न पूर्वक शुभ तथा लोकोपकारी मार्ग पर ही दौड़ायें। अपने वैयक्तिक स्वार्थ और वासनाओं को गौण बनाकर, उनमें शक्तिक्षय न कर सामाजिक अभ्युदय के लिए शक्ति, प्रतिभा और श्रम नियोजित करें।

जब सुंदरता, कुरूपता के प्रति कोई आकर्षण न रहे, रूखे-सूखे भोजन या षट् रस व्यंजन दोनों में समानता लगे, कटु वचन सुनकर भी क्रोध न आये, बड़े से बड़े प्रलोभन में भी लाभ न हो, हानि-लाभ से मन विचलित न हो, असफल होने पर भी निराशा न हो तब समझना चाहिए कि मन और इंद्रियाँ वश में हो गये हैं।

आत्मविकास के लिए राग-द्वेष मोह-मत्सर काम-क्रोध लोभ, अहंकार आदि का त्याग परमावश्यक है। इन मनोविकारों पर जब तक नियंत्रण न किया जायेगा तब तक न तो आत्मशक्ति ही मिलेगी और न पूजा-उपासना ही फलवती होगी।

मनों विकारों पर विजय प्राप्त करने का सरल तथा सही उपाय ही है कि हम जनसेवा का भाव लेकर कार्यक्षेत्र में उतर पड़े। समाज में सक्रिय रूप से कार्य करते समय सुख-दुःख मान-अपमान , हानि-लाभ क्रोध-द्वेष आदि के अनेकों अवसर आयेंगे अनेकानेक कठिनाइयों और प्रतिकूल परिस्थितियों में से होकर गुजरना होगा। ये अवसर ही यह मापदण्ड हैं जिनसे मनुष्य की परख होती है। क्रोध, लोभ, मोह आदि की परिस्थितियाँ आने पर भी ये मनोविकार मन को व्यग्र न बनायें तभी समझना चाहिए कि सच्चे अर्थों में हम संयमी बन गये हैं।

मनोविकारों को जीत कर जैसे-तैसे मनुष्य जनसेवा की ओर बढ़ता है, उसके गुण-कर्म और स्वभाव का परिष्कार होता जाता है तथा आचार-विचार निर्मल बनाते जाते हैं। आचार-विचार पवित्र हो जाने से आत्मविकास तथा आत्मविस्तार स्वतः ही हो जाता है। और तब समस्त समाज, राष्ट्र और विश्व उसका अपना परिवार बन जाता है। तथा साधक सच्चिदानंद परमात्मा की उपलब्धि कर लेता है। इस प्रकार जनसेवा के मंगलमय मार्ग का अवलंबन करने से स्वार्थ तथा परमार्थ दोनों की साधना पूरी हो जाती है।


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