मुख में से निकलने वाली अपनी अन्तरंग मनः स्थिति का बाह्य जगत को परिचय देती है और उसे प्रभावित करती है। सामान्य जीवन में उसकी कितनी उपयोगिता है और उस शक्ति के कुण्ठित होने पर कैसी असहाय स्थिति होती है इसे किसी गूँगे और मुखर व्यक्ति के तुलनात्मक अन्तर को देखकर सहज ही माना जा सकता है।
मधुर संयत और सुसंस्कृत वाणी को वशीकरण मंत्र बताया गया है। उसके आधार पर पराये अपने हो जाते हैं। दूसरों का स्नेह, सम्मान, और सहयोग अर्जित करना संभव होता है। प्रगति के असंख्य द्वार खुलते हैं। वाणी के परिष्कृत प्रभाव का लौकिक जीवन की प्रगति और प्रसन्नता में कितना अधिक योगदान होता है इस पर जितना अधिक विचार किया जाय उतनी ही अधिक गरिमा स्पष्ट होती जाती है।
आत्मिक शक्ति संचय की साधना में से वाणी को प्रधान माध्यम ही मानना चाहिए। स्कूली अध्यापकों और छात्रों तक की शिक्षा प्रक्रिया वाणी के आधार पर ही चलती है। विद्या का- ब्रह्मविद्या का आधार भी वही हैं। सत्संग, प्रवचन, कथा, कीर्तन, स्तवन, जप आदि के लिए वाणी ही माध्यम है।
वाणी का दुरुपयोग भी हो सकता है और सदुपयोग भी। कटु वचन, अपमान, तिरस्कार, व्यंग, निन्दा, चुगली जैसा व्यवहार किया जाय तो शत्रुता बढ़ती है और वैर, विरोध असहयोग एवं संघर्ष का वातावरण ही उत्पन्न होता है। उसकी प्रतिक्रिया अपने लिए विग्रह, उद्वेग एवं अशान्ति का कारण बनती है।
सदुपयोग से - मधुर - स्नेहसिक्त, हितकर वचन बोलने से सत्य बोलने - सद्भावना व्यक्त करने से - दूसरों को भी प्रगति पथ पर बढ़ने - में सुख शान्ति का आधार प्राप्त करने में - सहायता मिलती है और अपने को भी उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप सम्मान, सहयोग, स्नेह, सद्भाव प्राप्त करने का अवसर मिलता है। यह सुखद स्थिति जीवन में उल्लास एवं आनन्द का ही आविर्भाव करती है।
इससे आगे बढ़कर आत्म - कल्याण - श्रेय साधना के लिए मंत्र विद्या का समस्त आधार वाणी की पृष्ठभूमि पर ही आधारित है। मंत्रविद्या का जो कुछ भी चमत्कार कहा, सुना और देखा जाता है उसका आधार वाणी ही है। सत्य, मौन, अभक्ष्य अवरोध, जप आदि की साधना पद्धतियाँ सामान्य समझी जाने वाली वाणी को असामान्य ‘वाक्’ में परिणत करती है। उसकी अद्भुत शक्ति जड़ जगत को हिला सकने और चेतन जगत से व्यापक भाव प्रवाह उत्पन्न कर सकने में समर्थ होती है। इसलिए वाक् साधना को आत्मविद्या का प्रधान आधार माना गया है।
मंत्र की जो कुछ महिमा है उसका आधार वाणी को ‘वाक्’ रूप में परिणत कर देना है। इसके लिये मन, वचन और कर्म में ऐसी उत्कृष्टता का समन्वय करना पड़ता है कि वाणी को दग्ध करने वाला कोई कारण शेष न रह जाय। यदि वाणी दूषित, कलुषित, दग्ध स्थिति में पड़ी रहे तो उसके द्वारा जप किये गये मंत्र भी जल जायेंगे और बहुत संख्या में बहुत समय तक जप , स्तवन, पाठ आदि करते रहने पर भी अभीष्ट फल न मिलेगा। परिष्कृत जिह्वा में वह शक्ति रहती है जिसके बल पर किसी भी भाषा का - कोई भी मंत्र प्रचण्ड और प्रभावशाली हो सकता है। उसके द्वारा उच्चारित शब्द मनुष्यों के अन्तस्थल को असीम अन्तरिक्ष को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकता। उसे साधक की कामधेनु एवं तपस्वी का ब्रह्मास्त्र कहने में तनिक भी अत्युक्ति नहीं है। इसी परिमार्जित जिह्वा को ‘सरस्वती’ कहते हैं। साधना क्षेत्र में प्रवेश करने वाले व्यक्ति की - दीक्षा की - महत्ता समझनी चाहिए। वाक् साधना को अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए प्रथम चरण मानना चाहिए और समझना चाहिए कि जो इस प्रयोजन को पूरा कर सकेगा वही मंत्रविद्या का - प्रार्थना उपासना का लाभ उठा सकेगा। वाणी के अशुद्ध रहते उपासना की सफलता संदिग्ध ही रहेगी इस तथ्य को ध्यान में रखा जा सके तो जप अनुष्ठान आदि की प्रक्रिया के साथ -साथ वाणी के परिष्कार की बात भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण समझनी होगी और उसको भी साधना का एक अनिवार्य अंग मानकर चलना होगा। मंत्र शक्ति की महत्ता का शास्त्रों ने इस प्रकार वर्णन किया है -
तीक्ष्णोषवो ब्राह्मणा हेतिमन्तो,
यामस्यन्ति शरव्यां न सा मृषा।
अनुहाय तपसा मन्युना चोत,
दूरादेव भिन्दन्त्येनम् ॥
- अथर्व 5।18।9
जीभ जिसकी प्रत्यंचा है उच्चारण किया हुआ शब्द जिसका बाण हैं। संयम जिसका वाणाग्र है, तप से जिसे तीक्ष्ण किया गया है, आत्मबल जिसका धनुष है, ऐसा ब्राह्मण अपने मंत्र बल से समस्त देशद्रोही तत्त्वों को बेध डालता है।
जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाड् ,
नाड़ीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः।
तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून् ,
हृद्बलै र्धनुभि र्देवजूतैः ॥
- अथर्व 5।18।8
आत्मबल रूपी धनुष, तप रूपी तीक्ष्ण बाण लेकर तप और मन्यु के सहारे जब यह तपस्वी ब्राह्मण मंत्रशक्ति का प्रहार करते हैं तो अनात्म तत्त्वों को दूर से ही बेध कर रख देते हैं।
अस्मानं चिद् ये विभिदुर्वचोंभिः।
- ऋग्वेद 4।16।9
उन शक्ति सम्पन्न उपकरणों ने पत्थरों को भी फोड़ डाला।
यत् त आत्मनि तन्वां घोरमस्ति.................
सर्वं तद्वाचापहन्मो वयम्।
- अथर्व 1।18।9
तेरे शरीर में जो अनिष्ट है उन्हें मंत्र पूत वाणी से हम नष्ट करेंगे।
तामेतां वाचं यथा धेनुं वत्सनोपसृज्य प्रत्तां।
दुहीतैवमेव देवा वाचं सर्वान् कामान् अदुह्रन् ॥
- जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण
जिस प्रकार बछड़ा गाय का दूध पीता है उसी प्रकार देव पुरुष दिव्य वाणी का आश्रय लेकर समस्त कामनाएँ पूर्ण करते हैं।
मंत्र शक्ति की महत्ता वाक् शक्ति पर निर्भर है। इस वाक् को स्वर भी कहते है-- साम भी और सरस्वती भी। यदि इसे शुद्ध एवं सिद्ध कर लिया गया तो फिर मंत्र के चमत्कार का प्रकट होना सुनिश्चित है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए मंत्र से भी बढ़कर ‘वाक्’ की प्रशंसा की गई है। कारण स्पष्ट है। परिष्कृत वाक् ही मन्त्रों की सार्थकता बनाती है। भ्रष्ट वाणी से किये हुए मन्त्रानुष्ठानों को सफलता कहाँ मिलती है।
अस्थि वा ऋक्।
- शतपथ 7।5।2।25
मंत्र तो हड्डियाँ मात्र है।
प्राणो वै स्वरः।
- ताण्डय ब्राह्मण 24।11।9
प्राण तो स्वर है।
एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः सुष्टु प्रयुक्तः
स्वर्गे लोके च काम धुग भवति।
- श्रुति
एक ही शब्द की तात्त्विक अनुभूति हो जाने से समस्त मनोरथों की पूर्ति हो जाती।
वाक्य सिद्धिद्धिधां प्रोक्ता शापानुग्रह कारिका।
- शक्ति पंचकम्
वाक् सिद्धि दो प्रकार की होती है एक शाप देने वाली दूसरी वरदान देने वाली।
स या वाचं ब्रह्म त्वपास्ते यावद्वाचो गतं
तत्रास्य यथा कामचारो भवति।
छान्दोग्य 7।2।2
जो वाणी को ब्रह्म समझ कर उपासना करता है उसकी वाणी की गति इच्छित क्षेत्र तक हो जाती है।
वाक् को ब्रह्मस्वरूप माना गया है। वही ब्रह्म की ब्रह्मविद्या की अविच्छिन्न शक्ति है। देवता उसी के वश में रहते हैं। उच्चारण और स्वर में यही अन्तर है कि उच्चारण कंठ, होठ, जीभ, तालु, दाँतों की संचालन प्रक्रिया से निकलता है और वह विचारों का आदान - प्रदान कर सकने भर में समर्थ होता है। पर स्वर अन्तः करण से निकलता है। उसमें व्यक्तित्व, दृष्टिकोण और भाव समुच्चय भी ओत - प्रोत रहता है। इसलिए मंत्र को स्वर कहा गया है। वेद पाठ में उदात्त - अनुदात्त स्वरित की उच्चारित प्रक्रिया का शुद्ध होना ही इसी ओर संकेत करता है। साधना क्षेत्र में स्वर का अर्थ वाक् शक्ति के माध्यम से किये जाने वाले सशक्त जप अनुष्ठान से ही है।
यामाहुर्वाचं कवयो विराजम्।
- अथर्व 7।2।5
समस्त संसार का निर्माण करने वाली यह विराट् वाक् ही है।
यावद् ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक्।
- ऋग् 10।114।8
जहाँ तक ब्रह्म विस्तृत है, उतनी ही वाक् विस्तृत है।
विराट् वाक्।
- अथर्व 9।15।24
यह वाक् विराट् है।
यावद् ब्रह्म विश्ठितं तावती वाक्।
- ऋग् 10।114।8
जितना बड़ा ब्रह्म है, उतनी ही विशाल वाक् है।
तद्यत् किचार्वाचीनं ब्रह्मणं स्तद् वागेव सर्वम्।
- जै0 उ॰ 1।11।1।3
ब्रह्म के पश्चात् वाक् ही उत्पन्न हुई।
वाग् वै विष्वकर्मशिः वाचा हीदं सर्व कृतम्।
- यजु 1 3।58
वाक् ही विश्वकर्मा ऋषि है। उसी ने यह संसार बनाया।
प्रजापतिर्वा इदमेक आसं तस्य वागेव स्वमासीत् वाग् द्वितीया स ऐक्षतेमामेव वाच विसृजा।
इयं वा इदं सर्व विभवन्त्येश्यतीति।
- ता. ब्रा. 20। 14
प्रजापति अकेले थे। उनके पास ‘वाक्’ ही एक संपत्ति थी। उनने विचार किया मैं इस वाक् को प्रखर करूं। यही सब कुछ बन जायेगी।
तिस्रो वाचो प्रवद ज्योति रभा।
- ऋग् 7।101।1
उस वाक् का ज्योति रूप में दर्शन होता है।
स्वरूप ज्योति रेवान्तः परावागतपायिनी।
- महाभारत
यह वाक् ज्योति रूप में परिलक्षित होती है।
आगमोक्तं विवेकाच्च द्विधा ज्ञानं तथोच्यते ॥
शब्दब्रह्माऽऽगमय परं ब्रह्म विवेकजम्।
- अग्निपुराण
एक शब्द ब्रह्म है दूसरा परब्रह्म। शास्त्र और प्रवचन से शब्दब्रह्म और विवेक मनन चिन्तन से परब्रह्म की प्राप्ति होती है।
शब्द ब्रह्माणि निष्णातः पर ब्रह्माधिगच्छति।
- शतपथ
शब्द ब्रह्म को ठीक तरह जानने वाला ब्रह्मतत्त्व को प्राप्त करता है।
वागेव विश्वा भुवनानि जज्ञे वाच इर्त्सवममृतं यच्च मर्त्यम्।
- शतपथ
वाक् सृष्टि का मूल तत्व है। यह मनुष्य लोक का अमृत है। शब्दों में जो शक्तियाँ भरी है वे अद्भुत है।
वाक् शक्ति की आराधना यदि ठीक प्रकार की जा सके तो मन्त्र शक्ति के प्रार्थना के - वरदान, आशीर्वाद के- जड़ चेतन जगत को प्रभावित करने के - सिद्धि साधना के समस्त प्रयोजन उसी तरह पूर्ण हो सकते हैं जैसे कि शास्त्रों में लिखे है। वरिष्ठ साधकों की तरह आज भी साधना के वैसे ही प्रतिफल मिल सकते हैं। शर्त केवल एक ही है- वाक् साधना का महत्त्व समझा जाय और उस पर समुचित रूप से ध्यान दिया जाय।