व्यक्ति का समाज के प्रति और समाज का व्यक्ति के प्रति क्या कर्तव्य है उसकी मर्यादाओं का निर्धारण नीति शास्त्र, नागरिकशास्त्र और समाजशास्त्र के अंतर्गत हो जाता है। प्राचीन काल में इन्हीं का संक्षिप्त सार लेकर धर्मशास्त्र के व्यवहार पक्ष का निर्धारण हुआ था। मनुष्य की लिप्साएं और लालसाएं बहुधा अत्यन्त तीव्र हो उठती है और उस आवेश में यह भुला दिया जाता है कि उचित और अनुचित के भेद को ध्यान में रख कर ही स्वार्थों की पूर्ति की जानी चाहिए। इसी आवेश पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए सदाचार परक मर्यादाओं की स्थापना की गई है।
थामस एक्वीनास ने कहा था- ईश्वर की इच्छा के द्वारा संचालित संसार में शाश्वत नियम कार्य कर रहे है। कानून का- न्याय व्यवस्था का आधार इन्हीं नैतिक नियमों पर निर्धारित करना चाहिए। विचारक गोटियस ने सार्वभौम एवं सर्वजनीय न्याय व्यवस्था को ही आदर्श माना है और कहा है कि उसका आधार ईश्वरीय निर्देश समझने वाले मानवी अन्तः करण के उच्च स्तर से निकले ‘प्राकृतिक नियम’ ही होने चाहिए।
योरोप में केल्सन और कोहलेर प्रभृति विचारकों की इस बात को भी महत्त्व दिया गया कि उच्च आदर्शवादिता को आधार मानकर केवल सज्जनों के योग्य न्याय व्यवस्था बन सकती है। दुष्ट- दुरात्मा वर्ग के लिए प्रतिशोधात्मक और प्रतिबंधात्मक कठोरता अपनाया जाना भी आवश्यक है।
प्लेटो और ऐरिसटाटिल ने न्याय के आधार पर न्याय के सिद्धान्त पर काफी विचार विवेचन किया है। वे प्राकृतिक न्याय- नेचुरल जस्टिस- के सार्वभौमिक और प्रचलित न्याय- कन्वेंशनल जस्टिस के अन्तर को बताते हुए कहते हैं कि प्राकृतिक न्याय के अनुसार जो किसी से उधार लिया गया है उसे वापिस किया ही जाना चाहिए किन्तु प्रचलित न्याय का सिद्धान्त यह है कि तीन या छः वर्श बाद उन देनदारी से कानूनी छुटकारा मिल सकता है। प्राकृतिक न्याय शाश्वत है उसे धर्म या नीति अथवा ईश्वर आज्ञा की संज्ञा दी जा सकती है किन्तु प्रचलित न्याय सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप बनाये जाते हैं और वे समय-समय पर बदलते रहते हैं।
जूरिस प्रूडेन्स मर्म वेत्ता सालमंड और पोलक ने अपराध की परिभाषा में एक कड़ी और जोड़ी कि मात्र दूसरों को हानि पहुँचाना ही नहीं अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा करके समाज की व्यवस्था और विकास क्रम में बाधा पहुँचना भी एक अपराध है। तब से इस तथ्य को भी कानून की धाराओं में सम्मिलित कर लिया गया।
शेनेरिस का कथन है कि कानूनों का पालन मात्र आतंक या राज्य आज्ञा से ही नहीं हो सकता उसे वास्तविक मान्यता तभी मिलती है जब जनता उसे उचित समझती और पसन्द करती है। वे कहते है- कानून ही न्याय हो ऐसी बात नहीं, पर इतना मानना पड़ेगा कि न्याय की रक्षा के लिए कानून के अस्त्र का प्रयोग किसी न किसी रूप में करना ही पड़ेगा
ऐसे प्रसंग भी आते हैं जब लोग व्यक्तिगत कर्तव्य उत्तरदायित्वों की अवज्ञा करके ऐसे कर्म करते हैं जिनसे दूसरों के उचित अधिकारों का हरण होता है एवं सामाजिक अव्यवस्था फैलती है। यदि उन दुराचरणों की ऐसे ही उपेक्षा की जाय तो अपराधी तत्व अपना मार्ग निर्बाध पाकर और भी अधिक दुस्साहस करने पर उतारू हो जाते हैं। इसलिए समाज की अन्य व्यवस्थाओं के साथ-साथ अपराध नियन्त्रण भी एक आवश्यक माना गया है। राजसत्ता द्वारा ऐसी व्यवस्था बनाई गई है कि मर्यादाओं का उल्लंघन करके अनाचरण करने वालों को अपराधी ठहराया जाय। उन्हें पुलिस पकड़े, न्यायालय विचार करे और दण्ड विधान करके उनको समाज की नाराजगी से अवगत कराये और दूसरों को अवगत कराये कि किसी का अनाचरण समाज को सहन स्वीकार नहीं। उसे सार्वजनिक तिरस्कार का- कष्ट साध्य दण्ड प्रताड़ना का भागी बनना ही पड़ेगा फलस्वरूप वह सर्वसाधारण की दृष्टि में अवांछनीय व्यक्ति ही गिना जाएगा और लोगों के विश्वास के अभाव में पग -पग पर जन असहयोग का अनुभव करके अपने प्रगति पथ को अवरुद्ध अनुभव करेगा। समाज इतनी प्रताड़ना देता है। लोक जीवन को पहुँचाई गई क्षति का प्रतिशोध लेना हो तो उसे अनुचित नहीं कहा जा सकता।
आस्टिन ने कानून की पद्धतियों का वर्गीकरण करते हुए- 1. मानसिक चेतना- साइकिक अवेयरनेस 2. उद्देश्य - मोटिव 3. मंशा- इन्टेन्शन को ध्यान में रखकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की बात कही है। आस्टिन ने ईश्वर के प्रति, समाज के लिए राज्य के प्रति और स्वयं अपने प्रति कर्तव्य का पालन करने के लिए हर नागरिक को प्रतिबंधित माना है और सौंपे हुए अथवा स्वीकार किये कर्तव्यों की उपेक्षा अवहेलना करना एवं लापरवाही बरतने को भी अपराधों की श्रेणी में ही गिना है।
दण्ड विधान के तीन सिद्धान्त है- 1. प्रतिबंधात्मक- प्रीवेन्टिल थ्योरी 2. सुधारात्मक- रिफारमेटिव थ्योरी 3. भय उत्पादक- डिटरेण्ट थ्योरी।
प्रतिबंधात्मक थ्योरी के अंतर्गत दंड विधान संभावित अपराधी को, अपराध के लिए उद्यत होने से रोकता है। सुधारात्मक थ्योरी से अपराधी को समाज के अनुरूप ढलने के लिए अभ्यस्त एवं तत्पर बनाने का प्रयास किया जाता है। भय उत्पादक थ्योरी के अनुसार व्यक्ति के साथ निर्मम व्यवहार करके दूसरों का आतंकित करने का प्रयास किया जाता है ताकि और लोगों को वैसा करने की हिम्मत न पड़े कानून में हृदय परिवर्तन के तत्व नहीं है। वह न्यूनतम नैतिकता के विरुद्ध आचरण करने भर के विरुद्ध है।
परम्पराओं पर स्वीकृति की मुहर लगा देने वाले ऐसे कानून भी कम प्रचलित नहीं है जिनका न्याय अथवा विवेक से कतई सम्बन्ध नहीं है। पुरुषों को कई स्त्रियो का अधिकार होना किन्तु स्त्रियो को उस अधिकार से वंचित करना- जाति या धर्म विशेष को अतिरिक्त सुविधाएँ देना- गुलाम प्रथा जैसी परिपाटियों का सहन करना, सामाजिक कुरीतियों का हानियाँ अनैतिकताओं जैसी होने पर भी उन्हें पुराने ढर्रे के अनुकूल चलने देना भले ही बहुसंख्यकों को अभीष्ट हो पर उससे न्याय तत्व की रक्षा नहीं होगी। बहुसंख्यकों की अनुचित इच्छा को भी अल्प संख्यक वहन करे यह औचित्य नहीं। भले ही कानून में उस अवांछनीयता को सहन या स्वीकार किया गया हो।
दंड, किसे कितना इस विधि व्यवस्था के अनुसार दिया जाय, इसका दर्शन शास्त्र ‘जूरिस प्रूडेन्स’ कहलाता है। इस विधि विधान के अनुसार अपराध के कारण, स्वरूप एवं परिस्थितियों पर विचार करके यह निर्धारण करना पड़ता है कि अपराध किस मनः स्थिति में - किस परिस्थिति में किया गया। यह विवेचन किये बिना मात्र अपराध का ब्रह्म स्वरूप देखकर भावावेश में हल्के या कठोर दण्ड की व्यवस्था कर दी जाय तो वह व्यक्ति और समाज के प्रति अन्याय ही होगा। न्याय तो अपराधी को ही मिलना चाहिए। उसे उतना ही दण्ड मिलना चाहिए जितना कि वह अन्तरंग और बहिरंग दृष्टि से भ्रष्ट हुआ है।