मन बैसाखी गधे की तरह है जिसे नहला धुला देने पर भी मलीनता प्रिय लगती है और दूसरे ही दिन धूलि में लौटकर फिर पहले जैसी गंदगी में लिपट जाता है। हाथी की आदत भी ऐसी ही होती है। नदी तालाब में बैठा स्वच्छ होता रहेगा पर जब बाहर निकलेगा तो सूँड़ में रेत भर कर सारे बदन पर डाल लेगा। न जाने गंदगी में इन्हें क्या मजा आता है?
मन की आदत भी ऐसी ही गंदी है। स्वाध्याय और सत्संग के सम्पर्क में आकर कुछ समय के लिए ऐसा सज्जन बन जाता है मानो सन्त हो। रामायण गीता सुनते समय आँखों में आँसू आते हैं। नरक की पीड़ायें जानकर पश्चाताप भी होता है और मृत्यु की जब याद दिलाई जाती है जब डर भी लगता है कि मौत के दिन समीप आ पहुँचे। जिंदगी बीत चली। अब बचे कूचे दिनों का तो सदुपयोग कर ले। पर यह ज्ञान देर तक नहीं ठहरता किसी मुर्दे की जलाने जाते हैं तब मरघट में श्मशान वैराग्य’ उठता है। काया नाशवान् होने की बात सूझती है और लगता है इस क्षणभंगुर जीवन के लिए क्या बुराइयाँ ओढ़नी क्या पाप करने। क्या अहंकार करना- किस बात पर इतराना। उस समय तो यही ज्ञान जंचता है पर घर आते आते वह वैराग्य न जाने कहाँ हवा में उड़ जाता है और उसी पुराने ढर्रे पर गाड़ी के पहिये लुढ़कने लगते हैं।
यही स्थिति सदा बनी रहे तो ज्ञान, परमार्थ की बात बेकार है। चिकने घड़े की तरह यदि श्रेष्ठता भीतर घुसे ही नहीं तो बाहर की लीपा-पोती से क्या काम चलेगा। ज्ञान की सार्थकता तो तब है जब उसका प्रभाव अन्तः करण पर पढ़े और जीवन की रीति- नीति बदले। ऐसा न हो सका तो पढ़ने सुनने के - पोथी के बेंगने भूख को कहाँ बुझाते हैं।
हमें यह ध्यान में रखकर चलना चाहिए कि मन की मलीनता बढ़ाने के लिए कुछ बड़े और लगातार प्रयत्न करने पड़ते हैं तब कही वह काबू में आता है। घोड़े को सही रास्ते पर चलाने के लिए उसके मुँह में लगाम लगानी पड़ती है और हाथ में चाबुक रखना पड़ता है ऐसा ही प्रबन्ध मन के लिए किया जा सके तो ही वह रास्ते पर चलेगा।
नित्य स्वाध्याय की नियमित व्यवस्था रखनी चाहिए। स्वाध्याय का विशय केवल एक होना चाहिए- आत्म निरीक्षण एवं आत्म परिशोधन का मार्गदर्शन जो पुस्तकें इस प्रयोजन को पूरा करती है, आन्तरिक समस्याओं के समाधान में योगदान करती है केवल उन्हें ही इस प्रयोजन के लिए चुनना चाहिए। कथा पुराणों का उपयोग इस प्रसंग में निरर्थक है। आज की गुत्थियों को- आज की परिस्थितियों में- आज के ढंग में किस तरह सुलझाया जा सकता है- सो उसका दूरदर्शिता पूर्ण हल प्रस्तुत करे वही उपयुक्त स्वाध्याय साहित्य है। ऐसी पुस्तकों को हमें छाँटना और चुनना पड़ेगा उन्हें नित्य नियमित रूप से गंभीरता और एकाग्रतापूर्वक पढ़ने के लिए समय नियत करना पड़ेगा अन्तः करण की भूख बुझने के लिए यह स्वाध्याय साधना नितान्त आवश्यक है।
स्वाध्याय के बाद आता है मनन- चिंतन। जो पड़ा है उस पर बार-बार कई दृष्टिकोणों से विचार करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि उस प्रकाश को बढ़ाने का क्या उपाय है? आदर्शों को अपने व्यक्तित्व में घुलाने के प्रसंग पर ऊहापोह करना, मनन और चिंतन का मुख्य उद्देश्य है। कमरे में नित्य झाडू लगाते हैं, स्नान रोज करते हैं, दाँत रोज साफ किये जाते हैं, बर्तन रोज साफ करने पड़ते हैं। मन की मलीनता की आदत से विरत करने के लिए उसे स्वाध्याय और मनन-चिंतन के बन्धन में नित्य बाँधना चाहिए। रास्ते पर चलने के लिए वह तभी सहमत हो सकेगा।