अथर्व वेदीय पिप्पलाद संहिता के प्राण सूक्त में निर्भयता का संकल्प ऐसा है जिसे बार बार दुहराया जाना और पाठ किया जाना अभय रहने का आत्म विश्वास करता है।
डरना केवल दो से चाहिए एक ईश्वर के न्याय से और दूसरे पाप- अनाचार से। जो इन से डरता, बचता रहेगा उसे और किसी से डरने की आवश्यकता न पड़ेगी आत्म बोध और आत्म बल का ज्ञान न होने के कारण लोग छोटे-छोटे कारणों को लेकर चिन्ताग्रस्त, आशंकित, आतंकित एवं भयभीत होते हैं। इस भीरुता को हेय ठहराते हुए प्राणसूक्त में हमने निम्नांकित मंत्रों में यही निर्देश दिया गया है कि अपने को देशवासियों की पंक्ति में बिठाये, और उन्हीं की तरह निर्भय उल्लसित जीवन जिये।
यथा द्यौश्च पृथिवी च न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः ॥1॥
जिस प्रकार द्यौ और पृथ्वी न तो किसी से डरते हैं और न क्षीण होते हैं। उसी तरह हे प्राण तू न तो किसी से डर और न क्षीण हो।
यथा वायुश्चान्तरिक्ष च न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः ॥2॥
जिस प्रकार वायु और अन्तरिक्ष न किसी से डरते हैं और न क्षीण होते हैं। उसी तरह हे प्राण तू न तो किसी से डर और न क्षीण हो।
यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः ॥3॥
जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा न किसी से डरते हैं और न क्षीण होते हैं। उसी तरह हे प्राण तू न तो किसी से डर और न क्षीण हो।
यथा हश्च रात्री च न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः ॥4॥
जिस तरह दिन और रात न तो किसी से डरते हैं और न क्षीण होते हैं। उसी तरह हे प्राण तू न तो किसी से डर और न क्षीण हो।
यथा धेनुश्चानंवांश्च न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः ॥5॥
जिस तरह गाय और बैल किसी से न तो डरते हैं और न क्षीण होते हैं। उसी तरह हे प्राण न तो तू डर और न क्षीण हो।
यथा मित्रश्च वरुणश्च न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः ॥6॥
जिस तरह मित्र और वरुण न तो किसी से डरते हैं और न क्षीण होते हैं। इसी तरह हे प्राण न तो तू डर और न क्षीण हो।
यथा ब्रह्म चक्षत्रं च न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः ॥7॥
जिस तरह ब्रह्म और क्षत्र न तो किसी से डरते हैं और न क्षीण होते हैं। इसी तरह हे प्राण न तो तू डर और न क्षीण हो।
यथेन्द्रश्चेन्द्रियं च न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः ॥8॥
जिस तरह इन्द्र और इन्द्रियाँ न तो किसी से डरते हैं और न क्षीण होती है। इसी तरह हे प्राण न तो तू डर और न क्षीण हो।
यथा वीरं च वीर्यं च न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः ॥9॥
जिस तरह वीर और शौर्य न तो किसी से डरते हैं और न क्षीण होते हैं। इसी तरह हे प्राण न तो तू डर और न क्षीण हो।
यथा प्राणश्चापानश्च न बिभीतो न रिष्यतः।
एवा में प्राण मा बिभेः एवा में प्राण मा रिषः ॥10॥
जिस तरह प्राण और अपान न तो किसी से डरते हैं और न क्षीण होते हैं। इसी तरह हे प्राण न तो तू डर और न क्षीण हो।