महात्मा गाँधी तब वर्धा में थे। आश्रम का नियम था कि हर किसी को अपने जूठे बर्तन स्वयं माँजने थे। मात्र मेहमानों को ही थाली छोड़ने की छूट थी पर प्रायः होता यह था कि सभी आगन्तुक भी अपने-अपने बर्तन साफ कर देते थे।
एक बार हिंदी साहित्य परिषद के कई सदस्य आये हुए थे। भोजन के उपरांत और सब लोगों ने तो अपनी थालियाँ साफ कर दी पर एक सज्जन ने जूठी थाली वहीं छोड़ दी। उसे कौन धोये? अभी सब ताक ही रहे थे कि महादेव भाई ने लपक कर थाली उठाई और हाथों हाथ धो डाली। गाँधी जी को किसी ने यह बात बताई तो वे बोले मेरे पास रहने का इतना प्रभाव तो पड़ना ही चाहिए।