अपनों से अपनी बात

January 1973

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वसन्त पर्व अपने परिवार का सबसे बड़ा त्यौहार

वसन्त पर्व अब अति निकट आ गया। यह अंक परिजनों के हाथ में पहुँचने के लगभग एक महीने के उपरान्त 8 फरवरी को बसन्त पंचमी का पुनीत त्यौहार है। उसे गत वर्श की भाँति इस वर्श भी भाव भरी श्रद्धा और उत्साह आवेश भरी तत्परता के साथ मनाया जाना चाहिए। अपने परिवार का यह सबसे बड़ा त्यौहार है। इसलिए आयोजनों की - समारोहों की दृष्टि से उसे सर्वोपरि सर्व प्रथम स्थान दिया जाता रहा है।

बसन्त पर्व ज्ञान की देवी भगवती सरस्वती का जन्म दिन है। सृष्टि के आदि काल में मनुष्य को इसी शुभ अवसर पर विद्या बुद्धि का- ज्ञान सम्वेदना का अनुदान प्राप्त हुआ था। जीवन का एक अंश तो जड़ पदार्थों में भी है- कृमि कीटक भी जीवितों की श्रेणी में आते हैं और अचेतन की - प्रेरणा से विविध - विधि हलचलें करने से निरत रहते हैं। मनुष्य को इन सबसे ऊँची स्थिति मिली है इसका एकमात्र कारण क्रमबद्ध - सोद्देश्य चिन्तन प्रेरणा ही है। यदि यह विशेषता उसमें न रही होती तो अनेक बातों में कितने ही जीवधारियों की तुलना में वह गया गुजरा हेटा - ठहरता। शरीरगत कोमलता और दुर्बलता को देखते हुए वह प्रकृति से संघर्ष करते हुए अपना अस्तित्व भी कठिनाई से बनाये रह सकता था। किन्तु सोद्देश्य चिन्तन चेतन का जो वरदान मिला, उसने उसे धन्य बना दिया। इस धरती पर जो शोभा सौंदर्य भरा व्यवस्था क्रम चल रहा है उसमें मानवी बुद्धि वैभव का योगदान कम नहीं है। दूसरे शब्दों में इसी बात को यों कह सकते हैं कि विश्व - वसुधा की शोभा गरिमा में भगवती सरस्वती के ही अनुग्रह ने चार चाँद लगाये है। मनुष्य को सृष्टि के अन्य प्राणियों की तुलना में जो गौरव मिला है उसके पीछे भगवती वीणा - पाणि की अनुकम्पा ही झाँक रही है।

जिसका अजर अनुग्रह पाकर नर पशु में - विभूतिवान् मानव का उदय हुआ उस सरस्वती माता के धरती पर अवतरण का शुभ दिन निस्सन्देह हमारे परम सौभाग्य का दिन है। उसे कृतज्ञता भरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाना चाहिए। सो मनाया भी जाता रहा है। चिरकाल से वसन्त पर्व विविध - विधि आयोजनों के साथ सम्पन्न किया जाता है। प्रकृति उन दिनों अपने आन्तरिक उल्लास को उभारती है - वन-संपदा पर यौवन का उन्माद छाया रहता है। पतझड़ के खंडहरों की कुरूपता समाप्त करते हुए पल्लवों की शोभा आभा से वृक्षावली लद जाती है। प्राणियों में भीतर ही भीतर एक अभिनव हलचल का संचार होता है। कोकिल गूँजती है, भ्रमर गूँजते हैं , हर जीवधारी एक गुदगुदी अनुभव करता है। प्रणय निवेदन से लेकर - हास - परिहास तक की उल्लास अभिव्यक्तियों का बाहुल्य बिखरा पड़ा दीखता है। लगता है कोई मधुर उन्माद जड़ चेतन में नई उमंग, तरंगों की धारा लहलहाने में अदृश्य रूप में संलग्न है।

मनुष्यों में भी यह अभिव्यक्ति सहज ही उभरती , उफनती दीखती है। उत्साह उमंगता है और उस दिशा में वह निकलता है जिस दिशा में मनुष्य की सहज रुचि होती है। हर व्यक्ति उन दिनों अपनी हलचलें तेज करता है, अचेतन सत्ता वृक्षों के पतझड़ को ही नवजीवन प्रदान नहीं करती - मनुष्यों के भीतर भी वही हलचल गतिशील होती है ओर वह भी ढर्रे के कोतर में से सिर बाहर निकाल कर कुछ आगे बढ़ने - कुछ ऊँचा उठने के लिए पंख फड़फड़ाता है। जिसे जितना अवसर मिलता है अपने स्तर के अनुरूप कुछ करता ही है। लेखा - जोखा न रखने के कारण भले ही उसका प्रत्यक्ष विवरण अविज्ञात बना रहे पर हर जीवधारी के कुछ कदम प्रगति की दिशा में बढ़ते ही है - मनुष्य के भी। कौन किस दिशा में कितना बढ़ा , यह उसके चेतनात्मक स्तर पर निर्भर है पर प्रकृतिगत प्रेरणा उसे यथा अवसर मिलती ही है और उससे कुछ न कुछ अग्रगमन होता भी है।

भगवती सरस्वती के जन्म दिन को परा और अपरा प्रकृति के दिव्यलोकों में किन मधुर सम्वेदनाओं के साथ मनाया जा रहा है इसका परिचय जड़ और चेतन जगत की प्रकट एवं अप्रकट मृदुल सम्भावनाओं को देखकर सहज ही प्राप्त किया जा सकता है। सरस्वती पर्व का यही उद्देश्य है। विद्या की, कला की देवी का अभिवन्दन इसी रूप में वसन्त पर्व पर होता है। सृष्टि के आदि में अनगढ़ मनुष्य विद्या के आधार पर बुद्धि को, और कला के आधार पर भावनाओं को समुन्नत बनाने के लिए तत्पर हुआ था और अब तक वही क्रम निरन्तर क्रमिक विधि व्यवस्था के साथ बढ़ता चला आ रहा है। वस्तुतः यही है समग्र मानवी प्रगति का तात्त्विक इतिहास - रहस्यमय इतिहास। इन चेतनात्मक उपलब्धियों के बिना मनुष्य न तो कुछ बन सकता था और न भविष्य में कुछ बन या रह सकता था।

सरस्वती पूजन की विविध विधि , व्यवस्थाओं के पीछे यही प्रयोजन सन्निहित है कि सर्वतोमुखी प्रगति के जिस आधार को अपनाकर इतनी प्रगति की जा सकी है उसे और भी अधिक अग्रगामी बनाया जाय - उसे और भी अधिक व्यवस्थित एवं परिष्कृत किया जाय। प्रगति के उद्गम को देखा परखा जाय और उसमें और भी अधिक ऊँचे स्तर का लाभ उठाने के लिए आवश्यक सरंजाम जुटाया जाय।

बसन्त पर्व - भारतीय समाज में अति महत्त्वपूर्ण त्यौहार है। विशेषतया विज्ञ समाज में उसे उच्चस्तरीय प्रमुखता दी जाती है। धनवान् दिवाली को - शक्तिवान विजयदशमी को - विनोदी होली को - तपस्वी श्रावणी को - छात्र गुरु पूर्णिमा को अधिक मान देते हैं पर जिन्हें विद्या और कला की गरिमा का ज्ञान है वे सभी सरस्वती पूजन को समान रूप से महत्त्व देते हैं। कला के उपासक - विद्या के आराधक अपनी श्रद्धा भरी भाव अभिव्यंजना सरस्वती के जन्म दिवस पर व्यक्त करने के लिए किसी न किसी प्रकार के उत्सव का आयोजन करते हैं। भारत में ही नहीं संसार भर में यह परम्परा प्रचलित है। बसन्त पर्व अपने देश की ही साँस्कृतिक परम्परा का अविच्छिन्न अंग नहीं है अपितु उसे सार्वभौम पर्व कह सकते हैं। प्रायः सभी देशों में अपने - अपने ढंग से उसे मनाया जाता है। बसन्तोत्सव के विविध विधि क्रिया - कलापों का परिचय संसार के किसी भी देश में किसी न किसी स्तर पर प्राप्त किया जा सकता है।

युग - निर्माण परिवार के लिए यह दुहरी प्रेरणा का पर्व है। एक तो सहज सनातन प्रक्रिया के अनुरूप हम लोग प्रबुद्ध वर्ग की श्रेणी में आते हैं जिसमें विवेक बुद्धि और सद्भाव सम्वेदनाओं को सर्वोपरि स्वीकारा गया है। संजीवनी विद्या - जीवन कला के हम लोग उपासक आराधक है इसलिए स्वभावतः सरस्वती पर्व को बसन्त पंचमी के लिए मनाया ही जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त और भी बड़ी बात यह है कि अपने मिशन का जन्म इसी दिन हुआ है। युग - निर्माण अभियान - नव - निर्माण आन्दोलन का श्रीगणेश जिस दिन हुआ वह बसन्त पर्व की ही पुण्य बेला थी।

यह अनायास आकस्मिक रूप नहीं हुआ वरन् एक सुनिश्चित मुहूर्त के रूप में ही उस शुभारम्भ को किया गया। मुहूर्त विद्या में यदि कुछ तथ्य हो तो उस आधार पर इतना ही कहा जा सकता है कि ऋतु पर्वों की तरह कोई आध्यात्मिक पर्व भी हो सकते हैं और उनमें दिव्य चेतनाओं की मेघ माला बरसने की अनुमति हो सकती है। यदि श्रावणी वर्षा के स्वागत का पर्व हो सकता है तो विद्या और कला के दिव्य कारणों का बाहुल्य बसन्त के दिन रहना भी आश्चर्यजनक नहीं है। उपयुक्त अवसर पर उपयुक्त कार्य करने के निर्णय जिस आधार पर किये जाते हैं उसी आधार पर युग परिवर्तन का ब्रह्म मुहूर्त में किसी उपयुक्त घड़ी में होना उपयुक्त ही है। कहना न होगा कि युग सन्ध्या का मंगलाचरण यदि बसन्त पर्व को हुआ तो उसे स्वर्ण सुयोग ही कहा जायेगा।

युग प्रभात का रहस्यमय उदय उद्भव जिस दिन हुआ जिस दिन गुरुदेव को उनके मार्ग - दर्शक ने भागीरथी तपश्चर्या की प्रेरणा का उद्बोधन आह्वान प्रस्तुत किया और उस निर्देश को शिरोधार्य करने के लिए गुरुदेव तत्क्षण उद्यत हो गये सर्व विदित है कि पन्द्रह वर्श की आयु में गुरुदेव में अपनी चौबीस वर्षों में सम्पन्न होने वाली उग्र गायत्री तपश्चर्या आरम्भ की और वे एकनिष्ठ भाव से समग्र श्रद्धा नियोजित करके उसी प्रकार तत्पर रहे जिस प्रकार कि गंगावतरण का लक्ष्य लेकर भागीरथ ने कठोर तप साधना की अग्नि में प्रवेश किया था। हर वर्श एक गायत्री महापुरश्चरण प्रारम्भ करके चौबीस वर्षों में उस साधन शृंखला की चौबीस कड़ियाँ पूरी की गई। जिसके आधार पर उन्हें महत्त्वपूर्ण क्षमताएँ, प्रतिभाएँ, विभूतियाँ एवं सिद्धियाँ प्राप्त हो सकी। कहना न होगा कि इसी पूँजी के बल पर उन्होंने युग परिवर्तन की प्रचण्ड धाराओं को द्रुतगति से प्रवाहित कर सकने में आशातीत सफलताएँ प्राप्त की।

गुरुदेव का आध्यात्मिक जन्म दिन हम बसन्त पर्व को ही जानते मानते हैं। यो उनका शरीर आश्विन मास में जन्मा था पर उन्होंने कभी पार्थिव काया का मूल्य स्वीकार नहीं किया - वे आरम्भिक पन्द्रह वर्षों को ऐसे ही पशु जीवन के दिन मानते हैं। असली जन्म तो उसी दिन हुआ जिस दिन उन्होंने श्रेय साधना का प्रकाश प्राप्त किया और परमार्थ पर कदम बढ़ाया इसी प्रकाश के - इसी प्रवाह के प्रतीक प्रतिनिधि रूप में उनका अवतरण प्रस्तुत हुआ। निर्दिष्ट लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्हें कई प्रकार के क्रिया - कलाप अपनाने पड़े पर दिशा एक सीधी रेखा की तरह ही बनी रही। वे अपनी उसी निर्दिष्ट पथ पर बिना क्षण भर भी प्रमाद किये अनवरत रूप से चलते ही चले आ रहे है और निश्चित है कि अन्तिम साँस रहते उसी एक कार्य में निरत रहेंगे यह शुभारम्भ बसन्त पर्व के दिन हुआ इसलिए गुरुदेव का आध्यात्मिक जन्म दिन भी - युग - निर्माण आन्दोलन के जन्म दिन के साथ अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध है। हम सब अखण्ड ज्योति परिवार के परिजन जो गुरुदेव के प्रति - युग निर्माण मिशन के प्रति निष्ठा रखते हैं उनके जन्म दिन को उसी श्रद्धा और उमंग के साथ मानते मनाते रहे है।

गुरुदेव की व्यक्तिगत और सार्वजनिक गतिविधियों का प्रत्येक अध्याय बसन्त पर्व के दिन आरम्भ होता रहा है। वे अपने एक वर्षीय कार्यक्रम निर्धारित करते रहे है। वैयक्तिक साधना उपासना का क्रम निर्धारण उन्होंने सदा बसन्त पंचमी को किया है और ठीक एक वर्श में उस पूर्व निश्चित योजना को पूर्ण कर लिया। उस दिन वे अपने ऊपर दिव्य प्रेरणा की प्रकाश किरणों का अवतरण होना स्वीकार करते हैं और कहा करते हैं कि यह दिन हर वर्श एक नया सन्देश देकर नव प्रभात की तरह उनके अन्तरंग अन्तरिक्ष में आविर्भूत होता है। इसी प्रकाश को वे ईश्वरीय मार्ग-दर्शन के रूप में अंगीकार करते हैं और तदनुसार एक वर्श के लिए उठाये जाने वाले कदमों का निर्धारण करते हैं।

उनके प्रत्यक्ष कार्यक्रमों के बारे में यही बात रही है। प्रत्येक महत्त्वपूर्ण कार्य का आरम्भ उन्होंने बसन्त पर्व से ही किया है। पन्द्रह वर्श की आयु में गायत्री महापुरश्चरण की शृंखला का आरम्भ - अखण्ड-ज्योति पत्रिका का प्रकाशन - गायत्री तपोभूमि का शिलान्यास - सहस्र कुण्डी गायत्री महायज्ञ का संकल्प - वेदों के अनुवाद का श्रीगणेश - युग-निर्माण पत्रिका का आरम्भ - मराठी, अंग्रेजी गुजराती आदि पत्रिकाओं का प्रकाशन - युग- निर्माण प्रेस की स्थापना - गायत्री परिवार एवं युग- निर्माण परिवार का प्रारम्भ - शान्तिकुञ्ज का संस्थापन प्रभृति अनेकों ज्ञात और अविज्ञात कार्य गुरुदेव द्वारा आरम्भ किये गये। मंगल कार्यों का शुभारम्भ इसी वसन्त पर्व में होता रहा है।

यह सब अनायास आकस्मिक रूप से नहीं हुआ वरन् एक परम मंगलमयी शुभ घड़ी के रूप में इस पर्व को समझा गया है। इसका कारण यो उस दिन दैवी चेतना का बाहुल्य - प्रकृति की हर श्रेष्ठ कार्य के लिए अनुकूलता अथवा युग परिवर्तन के लिए महाकाल की स्फुरणा का प्रादुर्भाव जैसे अविज्ञात सूक्ष्म कारण हो सकते हैं। पर हमें तो उस आरम्भ को गुरुदेव के आत्मबोध पर्व के रूप में मानना और युग-निर्माण अभियान के जन्म दिन के रूप में ही मानना अधिक प्रेरणास्पद हो सकता है। विद्या और कला की मस्तिष्कीय और हृदयगत चेतना को उभारने की ही अपनी कार्य - पद्धति है। यह प्रेरणाएँ सरस्वती पर्व से - बसन्त पंचमी से - सहज ही सम्बन्धित है।

अखण्ड - ज्योति की सदस्यता - युग निर्माण परिवार के प्रति संबद्धता - एवं गुरुदेव की प्रगाढ़ आत्मीयता के आधार पर हम लाखों भावनाशील व्यक्ति एक अत्यन्त भाव भरी किन्तु सुदृढ़ शृंखला में बँधे हुए है। प्रत्यक्ष रूप में हम सब अपने घर, परिवारों और व्यवसाय उत्तरदायित्वों की प्रत्यक्ष जिम्मेदारियों के साथ भी जुड़े बँधे है पर इतनी ही छोटी सीमा तक कोई सीमित नहीं है। सहज ही परिवार का प्रत्येक सदस्य यह अनुभव करता है कि वह शरीर यात्रा से सम्बन्धित क्रिया कलापों की ही सीमा में अवरुद्ध नहीं वरन् ईश्वर प्रदत्त इस विशेष अवसर के लिए सौंपी गई जिम्मेदारियों से भी वह बंधा हुआ है। युग - निर्माण परिवार की सदस्यता हम सबको इसी जिम्मेदारी को निबाहने के लिए निरन्तर उद्बोधन ओर प्रोत्साहन करती रहती है।

बसन्त पर्व उसी स्नेह शृंखला में आबद्ध होने की व्रत शीलता का उद्बोधन कराने हर वर्श आता है। और यह सन्देश प्रस्तुत करता है कि इस देव परिवार की सदस्यता के साथ उनकी जो जिम्मेदारियाँ है उनका निर्वाह करने के लिए विगत की अपेक्षा आगत में कुछ और भी महत्त्वपूर्ण कदम उठाये जाने चाहिए कर्मकाण्ड के आधार पर स्थूल गुरु दीक्षा के बंधन में आबद्ध भले ही न हो पर उनके व्यक्तित्व, प्रतिपादन एवं प्रकाश से हम सभी प्रभावित है। भावनात्मक एवं बौद्धिक स्तर पर हम में से प्रायः सभी उनके अनुगमन की चेष्टा करते हैं। यह सम्बन्ध सूत्र भले ही भौतिक दृष्टि से उतना प्रत्यक्ष उतना आकर्षक न हो पर अन्तः करण के मर्म स्थल में उठने वाली दिव्य स्फुरणाओं के साथ उसकी सघनता असंदिग्ध रूप से है। जब कभी हम एकाकी एवं शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होते हैं तो देखते हैं कि माता के दूध की तरह एक भाव भरी और शक्तिशाली धारा अपने अन्तरंग में निरन्तर झरने लगी है और एक अभिनव प्रकाश किरण अपने आलोक से अन्तःकरण को आलोकित करने लगी है। इस अनुदान को हम चाहे तो गुरुदेव के उस सहज स्नेह की प्रतिक्रिया मान सकते हैं जिसके साथ हम अनायास ही सघन घनिष्ठता के साथ बंध गये है। गुरुदेव के साथ अपने सम्बन्ध सूत्र को हम चाहे तो इन्हीं अनुभूतियों के रूप में निरन्तर करते रह सकते हैं।

इन तथ्यों पर दृष्टिपात करते हुए बसन्त पर्व न केवल भगवती सरस्वती का - युग-निर्माण अभियान का- गुरुदेव का जन्म दिन रह जाता है वरन् उसी परिवार के सघन सदस्य होने के नाते अपनी दिव्य चेतना की स्फुरणा का भी जन्म दिन बन जाता है। महान् सम्बन्धनाओं के उस दिव्य आलोक का भी जन्म दिन मान सकते हैं जो क्रमशः अधिक दीप्तिमान होता चला आ रहा है और अन्ततः जीवन लक्ष्य की चरम अवधि तक पहुँच देने का आश्वासन देता है। इस अवसर पर हमें अपनी पुण्य अभिव्यक्तियों को अवरुद्ध नहीं करना चाहिए वरन् उन्हें ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने के लिए उत्साह भरा उपक्रम करना चाहिए।

इन सब तथ्यों पर जितनी अधिक गंभीरता से विचार करते हैं उतना ही यह आवश्यक हो जाता है कि बसन्त पर्व पर अपनी भाव स्फुरणा को प्रस्फुटित - विकसित होने का अवसर मिलना ही चाहिए। इसके लिए उस दिन अधिकाधिक ऐसा आत्मचिन्तन करना चाहिए जो जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए अधिकाधिक बल एवं उत्साह प्रदान कर सके। सूक्ष्म जगत में दिनों दिन एक ऐसा दैवी प्रवाह एवं प्रकाश उभर रहा है जो हर जीवन अन्तःकरण में गुदगुदी उत्पन्न करता है और ऊँचा उठने - आगे बढ़ने - के लिए दुलारता, पुचकारता है। सीप की तरह यदि हम तनिक भी मुँह खोल सके तो इन दिनों झर रही कई स्वाति बूँदें उसमें गिर सकती है और कई मोती गर्भ में आ सकते हैं। गुरुदेव पर जो दैवी अनुग्रह बरसते रहे है वे ही अपने लिये भी सहज उपलब्ध है। आवश्यकता केवल उन प्रबल भाव भाव-संवेदनाओं की है जिनके आधार पर उपलब्धियों को हृदयंगम और आत्मसात् कर सकना सम्भव हो सके।

ऐसी दिव्य सम्वेदनाओं का आह्वान करने के लिए अभी से तैयारी आरम्भ की जानी चाहिए। सूर्य उदय होने से कुछ समय पूर्व ही ब्राह्ममुहूर्त का प्रभात काल प्रस्तुत हो जाता है हम में से प्रत्येक को यह अंक पहुँचने पढ़ने के दिन से ही भीतर एक ऐसी स्थिति उत्पन्न करनी चाहिए कि बसन्त पर्व के आस-पास कुछ अतिरिक्त दैवी प्रकाश के दर्शन का लाभ मिल सके। इस अवसर को ऐसे ही उपेक्षा अवस्था में चला नहीं जाने देना चाहिये अपने स्वरूप, कर्तव्य और भविष्य के बारे में हम में से प्रत्येक को इन दिनों कुछ अतिरिक्त ही आत्म चिन्तन करना चाहिए।

हम अपने को ईश्वरीय चेतना के अत्यधिक निकटवर्ती क्षेत्र में रहने वाली आत्माओं में से एक अनुभव करे और उस तथ्य को समझे कि युग परिवर्तन अभियान महाकाल की ऐसी स्फुरणा है जो असंदिग्ध रूप में अगले दिनों पूर्ण ही होकर रहेगी। पेट और प्रजनन के लिए भूतकाल में अनेकों जन्म मिल सकते हैं पर इस जन्म को एक ऐसी पवित्र धरोहर के रूप में ही माना जाना चाहिए जो मानव जाति के भविष्य निर्माण में बढ़े चढ़े योगदान प्रस्तुत करने के लिए ही उपलब्ध हुआ है। इन दिनों लोक मंगल के लिये कुछ साहसिक कदम बढ़ाने के लिये जो हूक अन्तःकरण में उठती रहती है उसे विशुद्ध रूप से आत्मा की पुकार अथवा ईश्वरीय आह्वान उद्बोधन मानना चाहिए और उसकी अवज्ञा उपेक्षा करते रहने की भूल को तत्काल सुधारने का साहस उत्पन्न करना चाहिए।

बसन्त पर्व हम सबके लिये आत्मबोधन का - आत्मोत्कर्ष का प्रेरणा पर्व बन सके इसके लिये हमें अपनी मनः स्थिति को अभी से विकसित परिष्कृत करने में लग जाना चाहिए। अब से लेकर बसन्त तक का समय प्रभातकालीन ब्रह्ममुहूर्त समझना चाहिए और हर दिन इस प्रकार से पुण्य चिन्तन में व्यतीत करना चाहिए जिसकी पृष्ठभूमि में देव जीवन में अपने को अधिक गतिशील बनाने का आवश्यक साहस मिल सके।

बसन्त पर्व मनाने का दूसरा कार्य उस अवसर पर कुछ समारोह आयोजन करने के रूप में सम्पन्न किया जाना चाहिए। जिनमें थोड़ी प्रतिभा है - सार्वजनिक जीवन का अनुभव है - उन्हें युग- निर्माण सम्मेलन के सार्वजनिक समारोह का कुछ न कुछ स्वरूप बनाना ही चाहिए। छोटा गायत्री यज्ञ इन सम्मेलनों के साथ जुड़ा ही रहना चाहिए। यज्ञ वह स्थूल कर्मकाण्डात्मक प्रक्रिया है जिसे अगले दिनों व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में गहराई तक प्रवेश करने से ही नव-निर्माण का प्रयोजन पूरा होगा इसलिये इस प्रतीक प्रतिष्ठा को छोटे या बड़े रूप में प्रदर्शित किया ही जाना चाहिए। लाल मशाल का सम्बल किसी न किसी रूप में अपने हर आयोजन में - स्थापित किया जाना चाहिए। लाल मशाल को ध्वजारोहण मंच पर चित्र के रूप में हर आयोजन में स्थापित करने का प्रयत्न करना चाहिए।

आयोजन कहाँ किस रूप में मनाया जा सकता है यह स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप निर्णय किया जाना चाहिए। प्रभात -फेरी, जुलूस, जलयात्रा, रात्रि को दीप दान, यज्ञ, स्थानीय ज्ञानघटों की एक चौकी पर स्थापना और उनका पूजन, सुन्दर यज्ञशाला का निर्माण, सम्मेलन के निकटवर्ती क्षेत्र में वक्ताओं एवं गायकों की आवश्यक तैयारी के लिए साहित्य देना, लाउडस्पीकर व्यवस्था, मंच तथा यज्ञ के उपकरण पर्चे विज्ञापन, ऐलान ऐसे क्रिया कलाप, आयोजनों के लिए आवश्यक होते हैं और घर-घर आकर जन सम्पर्क करके वह वातावरण बनाना पड़ता है जिसमें अधिक लोग अधिक उत्साह के लिए उस आयोजन में सम्मिलित हो सके।

मिल-जुलकर इसके लिये प्रयास किया जाय तो सभी लगभग एक महीना बाकी है इसमें अच्छे समारोह की तैयारी हो सकती है। जन-शक्ति और धन-शक्ति जुटाने को तत्पर हुआ जा सकता है। पर यदि उत्साह अथवा सहयोग की कमी दिखाई पड़े तो भी व्यक्तिगत प्रयास से छोटा हवन और सम्पन्न क्षेत्र के लोगों को आमन्त्रित करके कम से कम एक विचार गोष्ठी जैसा आयोजन तो कर ही लेना चाहिए। जागृत भावनाओं और जीवन्त आस्थाओं की यह कसौटी चुनौती समझी जानी चाहिए कि बसन्त पर्व पर हर परिजन से किसी न किसी प्रकार छोटे बड़े उत्सव आयोजन की कुछ व्यवस्था बन सकी या नहीं। गायत्री तपोभूमि से उस अवसर पर प्रतिनिधि या वक्ता बुलाने की माँग नहीं करनी चाहिए क्योंकि वहाँ बहुत थोड़े प्रचारक है और आयोजनों की संख्या हजारों तक जा पहुँचती है। मिशन के अनुरूप बोल सकने या गा सकने के लिए योग्य व्यक्ति स्वयं ही तलाश करने होते हैं और उन्हें तैयारी के लिये पहले से ही साहित्य देना पड़ता है। प्रेरक कविताओं को मधुर स्वर से गा सकने योग्य छात्रों अथवा वयस्कों को यदि पहले से ही तैयार किया जाय तो उत्साह वर्धक कविता सम्मेलन तो हर जगह हो सकता है और उससे भी मिशन की प्रेरणा को व्यापक बनाने में एक सीमा तक अच्छी सहायता मिल सकती है। इस प्रयोजन के लिए युग-निर्माण योजना द्वारा प्रकाशित कविता पुस्तकें बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

दीवारों पर वाक्य लेखन , विद्यार्थियों का वितरण, पोस्टर का चिपकाया जाना जैसे कई कार्य स्थानीय उत्साह की अभिवृद्धि में सहायक हो सकते हैं। जहाँ अभी तक शाखा संगठन नहीं बने है वहाँ इसी समय उनकी स्थापना हो जाना चाहिए। जहाँ संगठन है वहाँ उन्हें अधिक व्यवस्थित और अधिक सक्रिय बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाये जाने चाहिये।

इन सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अखण्ड-ज्योति तथा युग-निर्माण पत्रिकाओं के सदस्य बनाने और बढ़ाने के लिए उन्हीं दिनों टोली बनाकर निकलना चाहिए पुराने सदस्यों से तो चन्दा वसूल करना ही चाहिये नये सदस्य बनाने का अभियान भी आरम्भ करना चाहिए। यह पत्रिकाएँ ही गुरुदेव की वाणी है वे अधिक लोगों तक मिशन का प्रकाश पहुँचा सके इसके लिये अनिवार्य रूप से यह आवश्यक है कि उनकी प्रेरणा को नियमित रूप से ग्रहण करते रहने वालों की संख्या बढ़ाई जाय और यह कार्य मात्र पत्रिकाओं की सदस्य संस्था बढ़ाने से ही सम्भव हो सकता है। बसन्त पर्व तक कौन कितने सदस्य बनाता है इसके लिये स्वस्थ प्रतिस्पर्धा चलनी चाहिए। लक्ष्य यह रहना चाहिए कि अगले वर्श अखण्ड-ज्योति की सदस्य संख्या कम से कम पाँच गुनी अवश्य हो जाय। इसके लिये हम सब अपना व्यक्तिगत कर्तव्य यह माने कि अपनी भाव भरी श्रद्धांजलि अधिक सदस्य बनाने और बढ़ाने के रूप में प्रस्तुत करेंगे

मिशन के स्वरूप से अभी बहुत कम लोग परिचित है। प्रबुद्ध व्यक्तियों- प्रतिभाशाली वर्ग में- विभूतिवानों में अब इसका क्षेत्र विस्तृत व्यापक किया जाना चाहिए इसके लिये पिछले ही महीने पच्चीस - पच्चीस पैसे मूल्य के चार ट्रैक्ट छिपे है। यह एक रुपये का सैट यदि अपने क्षेत्र के विचारशील लोगों में अधिक उत्साह के साथ पढ़ाया जाय तो कुछ ही समय में अधिक महत्त्वपूर्ण लोगों का - अधिक महत्त्वपूर्ण मात्रा में सहयोग उपलब्ध हो सकता है। जिस प्रकार झोला पुस्तकालयों द्वारा मिशन की प्रेरणाएँ व्यापक बनाने का क्रिया-कलाप चलता है उसी प्रकार इस महीने इन चार ट्रैक्टों द्वारा युग-निर्माण आन्दोलन का स्वरूप समझाने के लिये उपरोक्त ट्रैक्टों के आधार पर प्रयास किया जाना चाहिए।

आत्मबोध एवं आत्मोत्कर्ष के लिए अधिक गहन चिन्तन मनन 2. बसन्त पर्व पर किसी न किसी प्रकार छोटे या बड़े आयोजन 3. अखण्ड-ज्योति एवं युग-निर्माण पत्रिकाओं की सदस्य संख्या अभिवर्धन 4. नये छपे प्रचार ट्रैक्टों द्वारा अपने क्षेत्र में युग-निर्माण अभियान के स्वरूप का प्रचार परिचय, यह चारों ही क्रिया कलाप पूरे करने के लिये हम उत्साह पूर्वक जुट पड़े तो उसका परिणाम इस प्रकार सामने आ सकता है जिसके आधार पर निर्दिष्ट लक्ष्य की दिशा में आशातीत सफलता के साथ आगे बढ़ा जा सके।


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