संगीत शब्द ब्रह्म की स्वर साधना

January 1973

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अणु परिवार की गति विधियों से आगे की शोध करने पर पता चला है कि अपनी धुरी पर तथा कक्षा पर घूमने वाले परमाणु घटकों को जो दिशा, प्रेरणा एवं क्षमता प्राप्त होती है उसका उद्भव एक अतीव सूक्ष्म शक्ति है जिसे ध्वनि का प्रारूप कह सकते हैं।

प्रकृति की प्रेरक शक्ति के अन्तराल में एक प्रकार के स्पन्दन होते हैं। इनकी घड़ियाल में हथौड़ी मारने से उत्पन्न होने वाली टंकार से तुलना कर सकते हैं। टंकार के बाद जो झनझनाहट होती है उसे दिव्य दर्शियों ने ओंकार ध्वनि कहा है। निरन्तर यही ध्वनि सूक्ष्म प्रकृति के अन्तराल में गतिशील रहती है। इसी को प्रकृति ब्रह्म का संयोग कहते हैं, इसी आघात प्रतिघात से सृष्टि की समस्त हलचलों का आरम्भ अग्रगमन होता है। अणु को गति यही से मिलती है। एक सत्ता का बहुसंख्यक विकिरण- एकोऽहम् बहुस्याम की उक्ति के अनुसार इसी मर्म बिन्दु से आरम्भ होता है। विन्दुयोग और नादयोग की नाभि यही है, यही स्वर संस्थान नादयोग है, शब्दब्रह्म का अपनी माया-स्फुरणा इच्छा के साथ चल रहा यही संयोग आकार के रूप में निसृत होकर परा और अपरा प्रकृति के गहन गह्वर में जड़ चेतन गतिविधियों का सृजन करता है।

दीवार घड़ी का चलता हुआ पेण्डुलम, एक बार हिला दिया जाय तो घड़ी में चाबी रहते वह अपने क्रम से निरन्तर हिलता ही रहता है। ठीक उसी प्रकार एक बार आरम्भ हुई सृष्टि स्वसंचालित प्रक्रिया के अनुसार अपना कार्य करती रहती- अपनी धुरी पर एक बार घुमाये हुए लट्टू की तरह देर तक घूमती रहती है। इसका संचालक शब्द ब्रह्म की वह मूल ध्वनि है जिसे ॐकार कहते हैं। जिस प्रकार एक सूर्य में सात रंग की किरणें निसृत होती है उसी प्रकार स्वरब्रह्म अपने को सात स्वरों में विभक्त करता है। वाद्ययन्त्रों में उसे सरगम ध्वनि क्रम से बजाया जाता है। योगसाधना में राजयोग, हठयोग, प्राणयोग, शक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग का नाम दिया जाता है। शरीर में इसी को षट्चक्र और सप्तम ब्रह्मरंध्र - सहस्र कमल के रूप में गिना जाता है। सप्तऋषि, सप्तलोक, सप्तसागर, सप्तमेरु, सप्तदेव, सप्ततीर्थ, सप्तसाधना के रूप में ब्रह्मविद्या का विस्तार हुआ है। भौतिकी विज्ञान भी सात भागो में ही विभक्त है।

इन सबको मिलाकर स्वसंचालित सृष्टि क्रम की अन्तः स्फुरणाओं को ब्रह्म संगीत कह सकते हैं। इसी का अलंकारिक उल्लेख कृष्ण की बंसी, शंकर के डमरू, सरस्वती की वीणा के रूप में किया जाता है। सरस्वती की वीणा मानवी काया का मेरुदण्ड- शंकर का डमरू धधकता हुआ हृदय कहा जा सकता है। लप-डप को, धड़कन को, शंकर का डिम-डिम घोष कहा गया है। श्वास नलिका में वायु का आवागमन ‘सोऽहम्’ की ध्वनि में कृष्ण बाँसुरी के रूप में निनादित होता है। इड़ा, पिंगला और आरोह अवरोह मेरुदंड की वीणा में सप्त व्याहृतियों के सप्त स्वरों की झंकार उत्पन्न करते हैं और उसे कुंडलिनी सर्पिणी की सप्त जिव्हाओं से सप्त नादों के रूप में उद्भूत हुआ सुना जाता है। नादयोग के साधक सूक्ष्म कर्णेंद्रिय के माध्यम से घण्टा नाद, शंख नाद, वेणु नाद, मेघ नाद, निर्झर प्रवाह आदि के रूप में सुनने का प्रयत्न करते हैं और उस आधार पर सूक्ष्म प्रकृति के अन्तराल में चल रही अगणित गतिविधियों के ज्ञाता बनते हैं। इन स्वर निनादों के साथ जो अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है वह प्रकृति पर आधिपत्य स्थापित करने और उसे अपनी अनुयायी- संकेत गामिनी बनाने में सफलता प्राप्त करता है। योगविद्या में स्वर विद्या का अपना स्थान है। स्वर शास्त्र स्वर योग की साधना विज्ञान में महत्त्वपूर्ण स्थान है। नासिका द्वारा चलने वाले सूर्य चन्द्र स्वरों को माध्यम बनाकर कितने ही साधक प्रकृति के अन्तराल में प्रवेश करते हैं और वहाँ से अभीष्ट मणिमुक्तक उपलब्ध करते हैं।

पशु-पक्षियों से लेकर छोटे कीड़े-मकोड़े तक के उच्चारण में एक क्रमबद्धता रहती है। संगीतकारों के गायन वादन क्रम से न सही वे सभी एक निर्धारित ध्वनि प्रवाह के अनुसार ही अपना उच्चारण करते हैं। प्रातः काल चिड़ियों की चहचहाहट में एक स्वर क्रम रहता है उसी से वह कर्णप्रिय लगती है। मुर्गे की बाँग, कोयल की कूक, मोर, कौआ, पपीहा, तीतर आदि पक्षियों की वाणी अपने ढंग और क्रम से चलती है। पशुओं में भेड़ का मिमियाना, गधे का रेंकना, घोड़े का हिनहिनाना, हाथी का चिंघाड़ना, शेर का दहाड़ना, कुत्ते का भौंकना क्रमबद्ध रहता है। किसी भी पशु की किसी भी पक्षी की आवाजें सुनी जाये उनमें एक व्यवस्थित क्रम जुड़ा हुआ प्रतीत होगा। छोटे कीड़ों में भी यही बात देखी जाती है, झींगुर रात भर बोलते हैं, झिल्ली की झंकार उठती है उसे सुनने वाले अनुभव कर सकते हैं कि निद्रा लाने वाली एक मनोरम स्वर लहरी इन तुच्छ से कीटकों के माध्यम से सुनाई जाती है। मनुष्य के कानों की पकड़ से बाहर प्रायः प्रत्येक जीवधारी द्वारा निसृत होती है और पेड़ पौधों से लेकर जड़ समझे जाने वाले पदार्थों तक से एक प्रश्वास जैसी निरन्तर स्वसंचालित स्वर क्रम निरन्तर निनादित होता रहता है।

सेनाएँ जब किसी पुल को पार करती है तो उन्हें आज्ञा दी जाती है कि लैफ्ट राइट क्रम के अनुसार कदम मिलाकर न चले। क्योंकि कदम मिलाकर चलने से एक ऐसी प्रचण्ड शक्तिशाली ध्वनि उत्पन्न होती है जो अमुक स्थिति में उन पुलों को ही गिरा सकती है। बिजली की तड़कन शब्द से बड़ी- बड़ी आलीशान इमारतें कोठियाँ फट जाती है। धड़ाके की आवाज से कानों के पर्दे फट जाते हैं। इस शक्ति का यदि क्रमबद्ध रूप से उपयोग किया जा सके तो शारीरिक मानसिक स्वस्थता के लिए ही नहीं सृष्टि के अनेक पदार्थों और संसार की बहुमुखी परिस्थितियों एवं वातावरणों को आश्चर्यजनक रूप से प्रभावित किया जा सकता है।

वेदों का अवतरण शब्द ब्रह्म के सहित हुआ है। स्वर अपौरुषेय है इसलिए वेदों को अपौरुषेय कहा जाता है। प्रत्येक वेद मंत्र को ऋचा एवं छन्द कहा जाता है उससे उसकी स्वरबद्धता स्पष्ट की गई है। वेदों के गायन की ध्वनि पद्धतियों को ही सामगान कहते हैं। सामवेद के अपने मंत्र तो उँगलियों पर गिनने जितने ही है शेष प्रायः सभी अन्य तीन वेदों से लिये गये है और उनका संकलन विशिष्ट स्वर लिपियों के साथ किया गया है। किसी समय सामगान वैदिक साधना पद्धति का प्रधान अंग था। इसी आधार पर स्व , पर कल्याण के अनेकों प्रयोजन सिद्ध होते थे। वेद मंत्र में जो शिक्षायें सन्निहित है वे तो साधारण है, उनसे भी अधिक स्पष्ट और प्रभावी शिक्षायें, स्मृतियाँ तथा अन्यान्य धर्मग्रन्थों में मौजूद है। वेद मंत्रों का महत्त्व मात्र उनके अर्थों या निर्देशों तक सीमित नहीं है वरन् उनकी गरिमा उन शक्तियों में अन्तर्निहित है जो इन ऋचाओं के सस्वर उच्चारण से प्रादुर्भाव होती है।

सूक्ष्म विज्ञानी जानते हैं कि रक्ताभिषरण, श्वास-प्रश्वास आकुंचन प्रकुञ्चन का शरीर में निरन्तर चलने वाला क्रिया-कलाप विभिन्न प्रकार की स्वर ध्वनियाँ उत्पन्न करता है और उन्हीं के तरंग प्रवाह से जीवन गति चलती है। नादयोग के पूर्वार्द्ध में साधक अपनी कर्णेन्द्रिय का संयम करके इन्हीं ध्वनियों को सुनता है और सपेरे एवं अहेरी की रीति अपनाकर मन रूपी मृग एवं सर्प को वश में करता है। कहा जा चुका है कि सृष्टि के विभिन्न क्रिया-कलापों को संचालित करने वाली भौतिक शक्तियाँ तथा भावनात्मक अभिव्यंजनाएँ सूक्ष्म प्रकृति के अन्तराल में मूलतः ध्वनि प्रवाह बनकर ही कार्य कर रही है। यह ध्वनि प्रवाह संख्या में सात है। शरीर में भी इनकी संख्या सात है और सृष्टि के अन्तराल में भी वे सात ही है। वेद मंत्रों की स्वर संरचना इसी तथ्य को ध्यान में रखकर हुई है। उनका विधिवत् उच्चारण जहाँ प्राण धारियों में विभिन्न स्तर की स्फुरणाएं उत्पन्न करता है वहाँ सृष्टिगत हलचलों के मूल में चल रहे स्पन्दनों के साथ भी अपना सम्बन्ध बनाता है। इसी आधार पर वेद मंत्रों के आश्चर्यजनक प्रभाव प्रकट होते हैं। शाप वरदान की शुभ के अभिवर्धन और अशुभ के निराकरण की जो शब्दश्रुति में भरी पड़ी है उसका आधार यह वैदिक स्वर विज्ञान ही है। लय योग के साधक ‘अनहद नाद’ के नाम से इसी व्याख्या करते हैं और नाद बिन्दु योग को आधार मानकर परब्रह्म के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करते हैं। सिद्धियाँ और विभूतियाँ इसी तादात्म्य से स्पष्ट होती है। प्राचीनकाल में समय -समय पर वेद-मंत्रों के सस्वर उच्चारण का प्रयोग स्वरविद्या के रूप में- मानवी व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए उससे उत्पन्न अवरोधों का समाधान करने के लिए किया जाता रहा है। प्रयत्न किया जाय तो उस विज्ञान को पुनर्जीवित करके वैसा ही लाभ फिर उठाया जा सकता है जिससे व्यक्तित्व में देवत्व का उदय और समाज में स्वर्गीय परिस्थितियों का अवतरण किया जा सके।

फ्राँसीसी प्राणि शास्त्री वास्तोव आन्द्रे ने थलचरों, जलचरों और नभचरों पर विभिन्न ध्वनि प्रवाहों की- स्वर लहरियों की होने वाली प्रतिक्रियाओं का गहरा अन्वेषण किया है तदनुसार वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि संगीत प्रायः प्रत्येक जीवधारी के मस्तिष्क एवं नाडी संस्थान पर आश्चर्यजनक प्रभाव डालता है, उनकी प्रकृति और मनः स्थिति के अनुरूप यदि संगीत बने तो उन्हें मानसिक प्रसन्नता और शारीरिक उत्साह प्राप्त होता है। किन्तु इनकी कर्णेन्द्रिय को कर्कश लगने वाली अरुचिकर ध्वनियाँ बजाईं जाये तो उससे उन्हें अप्रसन्नता होती है और स्वास्थ्य संतुलन भी बिगड़ता है। किस प्राणी की किस स्थिति में किस प्रकार का संगीत क्या प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है उसका अध्ययन करने जर्मन प्राणि शास्त्री यह आशा करत है कि भविष्य में विभिन्न जीवधारियों की मनः स्थिति में आशाजनक परिवर्तन समय समय पर किया जा सकेगा। हिंस्र पशुओं को भी कुछ समय के लिए शान्त किया जा सकेगा और अवांछनीय जीवों को उनके लिए अरुचिकर सिद्ध होने वाली ध्वनियाँ करके उन्हें दूर भगाया जा सकता है। इसी प्रकार उन्हें कई प्रवृत्तियों में संलग्न और उदासीन बनाने का कार्य भी संगीत के माध्यम से किया जा सकता है।

सर्प का बीन की नाद पर मुग्ध होकर लहराने लगना, हिरनों का अहेरी का वाद्य सुनकर खड़े हो जाना, प्रसिद्ध है। वाद्य बाल वृद्ध सभी को आकर्षित करता है। उसे प्रत्येक उत्सव आयोजन में स्थान दिया जाता है। मनोरंजन में तो उसका स्थान किसी न किसी प्रकार रहता ही है। थके हारे लोग इस माध्यम से नवीन स्फूर्ति प्राप्त करते हैं। संगीत शब्दब्रह्म की स्वर साधना है उससे मनुष्यों का ही नहीं समस्त प्राणियों का श्रेय साधन हो सकता है और सर्वत्र उल्लास, आनन्द का विस्तार हो सकता है।


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