गुरु और शिष्य शहर से बाहर घने जंगल में एक झोपड़ी बनाकर रहते थे। जंगल में चूहे अधिक थे अतः दिन में तो नहीं पर रात में झोपड़ी में घुस आते और गुरु की नींद हराम कर देते। चूहों को कुछ नहीं मिलता तो धार्मिक ग्रन्थों को ही काट जाते। गुरु ने सोचा ऐसे काम चलने वाला नहीं है अतः उन्होंने एक बिल्ली पाल ली।
बिल्ली के डर से चूहे झोपड़ी में प्रवेश नहीं करते और गुरु शिष्य का जीवन भी निश्चिन्तता के साथ बीतने लगा। बिल्ली गुरु से बहुत हिल-मिल गई थी। हर समय उनके आगे पीछे ही घूमती रहती। वह खाना खाने बैठते तो बिल्ली सामने बैठ जाती, पर उसमें यह अच्छाई थी भोजन सामग्री भले ही खुली रहे बिल्ली उसमें मुँह न डालती थी।
सुबह शाम गुरुजी जब साधना के लिए बैठते तो वह उनकी गोद में आकर बैठ जाती और उनका ध्यान टूट जाता अतः साधना के लिए बैठते समय पास में बिछे तख्त के एक पाये में उसे बाँध देते। इस तरह बिल्ली गुरु के पास भी बनी रहती और साधना में किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचती कुछ दिनों के बाद गुरु, और उनके वियोग में बिल्ली दोनों ही इस संसार से विदा हो गये। अब मार्ग दर्शन के लिए अनेक अनुयायियों ने उनके शिष्य के पास जाना शुरू कर दिया। सुबह-शाम उनके आसन पर बैठकर शिष्य ने साधना प्रारम्भ कर दी, पूर्व का अभ्यास न होने के कारण शिष्य का मन न लगता। 10-15 मिनट की साधना के बाद ही ध्यान टूट जाता।
शिष्य अपनी कमजोरी पर गम्भीरता से विचारने लगा। गुरु के समस्त क्रिया-कलापों पर एक विहंगम दृष्टि डालने से उन्हें पता चला कि वह तो एक बिल्ली पाले हुए थे और उसे ध्यान के समय पास में ही बाँध लेते थे। जरूर मुझे भी ऐसा यत्न करना चाहिए। वह अपने भक्तों के पास गये और एक बिल्ली ले आये। उनके भक्त भला साधारण सी बात के लिए मना करते?
उनका ऐसा ख्याल था कि पास में बिल्ली बाँधने से साधना में एकाग्रता बनी रहती है। अनेक शिष्य गुरु की आदतों की इसी प्रकार नकल करते हैं और कार्य-कारण के सम्बन्ध को समझने की कोशिश नहीं करते। इस तरह की नकल व्यर्थ प्रत्येक व्यक्ति को गुरु के मार्ग दर्शन में अपनी प्रकृति तथा क्षमतानुसार साधना मार्ग विकसित करना चाहिए। अविवेकी ढंग से किया गया अनुकरण सफलता की ओर अग्रसर नहीं करता।