आग की पिघली नदी में, तैरने वाले कहाँ है?
बिछ रही बारूद सिकता की तरह से हर डगर में,
फँस रहा संसार सारा, ध्वंस की उठती लहर में?
द्वेष की सरिता तटों को लाँघ, उफनाई हुई है,
मील से उखड़े विटप हैं, बाढ़ वह आई हुई हे,
इस गरल के पर्व का फल लूटने वाले कहाँ हैं?
आग की पिघली नदी में, तैरने वाले, कहाँ हैं?
त्रस्त मानव के दुःखों की, चीत्कारों की कहानी,
ढल रहा फौलाद, घर्घर-नाद से आकाश चुप है,
व्योम तक अणु-घुल उड़ती, सिंधु के उच्छवास चुप है,
यंत्र पीडित्रत इस सदी से जूझने वाले कहाँ हैं?
आग की बहती नदी में, तैरने वाले कहाँ हैं?
मत भस्मासुर उठाये हाथ, इतना बढ़ गया है,
बुद्धि का उद्दण्ड बेटा, चंद्रमा पर चढ़ गया है!
रौंदने को सतत् आतुर, दूर मंगल की सतह को,
मनुज के द्दग देखते हैं, आग बरसाती सुबह को,
विश्व-मंगल का सवेरा, मेंटने वाले कहाँ हैं?
आग की बहती नदी में, तैरने वाले कहाँ हैं?
मंत्र की महिमा, पराजित, यंत्र-विषधर कर रहे हैं,
धूम्र के फूत्कार दंशित, स्वप्न, मनु के मर रहे हैं,
ये विषैले नाग, भू का प्राण- सागर पी रहे हैं
मंत्र-सृष्टा दिव्य दृष्टा, दीन बनकर जी रहे हैं,
यज्ञ से युग-व्याल का विष कीलने वाले कहाँ हैं?
आग की पिघली नदी में ,तैरने वाले कहाँ हैं?
भौतिकी सैलाब में, डूबी हुई सारी धरा हैं,
डालते पतवार, जिनकी बाहुओं का आसरा हैं,
तो अमृत के पुत्र बोलो, कौन फिर माँरुी बनेगा-विश्व-नैया का खिवै, कौन जो, साथी बनेगा?
नाश की घुमड़ी घटाये, मोड़ने वाले कहाँ हैं?
आग की पिघली नदी में तैरने वाले कहाँ हैं?
*समाप्त*