आनुवांशिकी प्रगति में आत्मबल का प्रयोग करना होगा

January 1973

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निकट भविष्य में जीन के रासायनिक संश्लेषण का सबसे अधिक प्रभाव चिकित्सा प्रणाली पर पड़ेगा। तब गोली, कैप्सूल, मिक्चर, इंजेक्शन घटिया दर्जे के प्रयास माने जायेंगे और रोग का मूल कारण जीनों की विकृतियों में तलाश किया जाएगा आजकल जिस तरह किन्हीं विकृत या टूटे-फूटे अंगों की चीर-फाड़ करे उन्हें सुधारा जाता है या नये अंग का आरोपण किया जाता है उसी प्रकार जीनों की मरम्मत-स्थानान्तरण या प्रत्यारोपण की प्रक्रिया काम में लाई जाय करेगी और उस इलाज का परिणाम पीढ़ी दर पीढ़ी देखने को मिला करेगा। रोगों की तह में जिन ऐंजाइमों या जीव रसायनों की कमी कीटाणुओं में पाई जाया करेगी तब उसी की पूर्ति की जटिल किंतु रामबाण व्यवस्था बनाई जाया करेगी।

कारण यह है कि अब ताब, पित्त कफ़ का प्रकोप, रोग कीटाणुओं का आक्रमण, आवी, वादी, खाकी, विष, असंतुलन, आयुर्वेदिक एलोपैथी, तिब्बी, होमियोपैथी चिकित्सा पद्धतियाँ गये युग की पुरातन पंथी मूढ़ मान्यतायें बनती चली जा रही हैं और आनुवांशिकी विज्ञान यह सिद्ध कर रहा है कि कोशिकाओं के गर्भ में अंतर्निहित गुण सूत्रों में रुग्णता और आरोग्य की आधार शिलायें सन्निहित हैं। रूस के उज़्बेकिस्तान प्रांत में प्रायः सभी लोग शतायुषी होते हैं वरन् इससे भी अधिक जीते हैं जबकि उनके आहार-विहार में साधारण लोगों की अपेक्षा कुछ भी विशेषता नहीं है।

इसी प्रकार बंगालियों की नस्ल दुबली और पंजाबियों, सीमा प्राँतियों की नस्ल मजबूत पाई जाती है। रोगी और निरोग भी प्रायः परम्परागत विशेषताएँ धारण किये रहते हैं। कुछ शारीरिक रोग और मनोविकार वंश परम्परागत पाये जाते हैं। एकाध पीढ़ी के अंतर से वे दबते उभरते भी रहते हैं। दोनों की विकृतियाँ परस्पर मिल-जुलकर नये-नये कायिक और मानसिक रोगों का सृजन करती हैं। कई बार उसकी जड़े इतनी गहरी होती हैं कि दवा दारु का उन पर कोई स्थिर प्रभाव नहीं होता, कितने ही रोगियों पर हर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग प्रायः असफल ही रहते हैं और लगता है चिकित्सा व्यवसाय मात्र अटकल–पच्चू सिद्धांतों पर खड़ा किया गया है अन्यथा छोटी-मोटी बीमारियों के उन्मूलन में वह क्यों असफल रहता है।

अब शरीर शास्त्री इस निष्कर्ष पर पहुँचते जा रहे हैं कि सुदृढ़ स्वास्थ्य की उपलब्धि एवं रोगों की निवृत्ति के लिए ‘जीन ‘ बीजों तक पहुँच बनानी पड़ेगी और वहाँ जड़ जमाये पीढ़ी विकृतियों जड़ उखाड़ सकने की वहाँ नये आशा भरे बीज जमाने की विद्या प्राप्त करने की तैयारी करनी पड़ेगी। समग्र स्वास्थ्य की समस्या इसके बिना हल नहीं सकेगी। औषधि उपचार और शल्य क्रिया की पहुँच पत्ते धोने सींचने की तरह है। जड़ की स्थिति सुधारे बिना शरीर वृक्ष की हरियाली संदिग्ध ही बनी रहेगी।

यों-शरीर कोषाणुओं से बना है, पर उसका आरंभ एक कोष से होता है। यह एक भी दो आधे-आधे टुकड़ों से मिलकर बना होता है। इन टुकड़ों में एक माता का भाग होता है-एक पिता का। यह आरंभिक जीवन कोष-जैव रसायनों का एक सम्मिश्रण मात्र है। इसके चारों और एक खोल चढ़ा रहता है। इस खोल के भीतर जीव द्रव [प्रोटोप्लाज्म] के दो भाग हैं। बीच का गहरा भाग ‘कोष केंद्र’ [न्यूक्लियस] कहलाता है। उसके चारों ओर एक हल्का शुक्र कीटाणु [साइटोप्लाज्म] है।

मनवा कोष के अंतर्गत 46 आकारों के होते हैं- जिन्हें ‘क्रोमोसोम’ कहते हैं। अणु खुर्दबीन से देखा जाय तो क्रोमोसोम के भीतर हजारों कीड़े रेंगते दिखाई देंगे उन्हें ‘उत्पत्ति कण’ [जीनी] कहते हैं।

प्रत्येक कोशिका में 23+23=46 गुणसूत्र पाये जाते हैं। पर अपवाद रूप से किसी किसी में मूल संख्या 23 से तीन गुने अर्थात् 69 भी पाये जाते हैं।

गुणसूत्रों की विकृतियाँ और रुग्णतायें ही अक्सर कष्ट साध्य और असाध्य रोगों के रूप में उभरती हैं। मामूली बुखार खाँसी आहार-बिहार की गड़बड़ी से हो सकते हैं। पर जब बीमारी गहराई में घुसी बैठी होती है- उसकी जड़ कोशिकाओं के अंतरंग में प्रविष्ट हो जाती है तो साधारण रासायनिक पदार्थों की पहुँच वहाँ तक नहीं हो पाती और शुद्ध उत्पादन की तरह रुग्ण उत्पादन भी भीतर चलता रहता है। बहुत बार तो यह कोशिकागत गुणसूत्रों में बैठी हुई रुग्णता विकृत आकृति एवं प्रकृति बन ने लगती हैं।

स्वास्थ्य संरक्षण से लेकर दीर्घ जीवन तक के सूत्र इन्हीं कोशिकाओं के उस कक्ष में भरे पड़े हैं जिन्हें ‘जीन’ कहते हैं। इनकी आश्चर्यजनक क्षमता का एक छोटा सा प्रमाण तब प्रत्यक्ष देखा जाता है जब वे विकास का लक्ष्य सामने रखकर अपने विस्तार में प्रवृत्त होते हैं।

आश्चर्य तो देखिये भ्रूण कलल आरंभ करते समय पहली युग्म कोशिका का भार एक ओंस के दस लाखवाँ भाग की बराबर होता है पर 285 दिनों में वह भार लगभग सात पौण्ड हो जाता है। यों युवा शरीर में 70 खरब कोशिकाएँ पाई जाती है नव जात शिशु में भी वे खरबों की संख्या क्षेत्र में प्रवेश कर चुकी होती है। एक से अनेक और लघु से विराट् बनने का यह कैसा अद्भुत उपक्रम है।

कोशिकाओं के प्रमुख तीन भाग होते हैं [1] केंद्रक [2] जीव-द्रव (3) कोशिका भित्ति। कोशिका के भीतर के पदार्थ का बाहर आना या बाहर वाले का भीतर जाना इस भित्ति में होकर ही होता है। यह भित्ति अनुपयुक्त पदार्थों को भीतर जाने में अवरोध का काम करती है। जीव द्रव जैसे वैज्ञानिकों की भाषा में साइटोप्लाज्म कहते हैं, कोशिका के बढ़ने, बेकार पदार्थ को बाहर निकालने एवं साँस लेने का काम करती है कोशिका द्रव के मध्य में एक घना, गाढ़ा पदार्थ होता है जिसे कोशिका नाभि अथवा केंद्रक कहते हैं। यह पूरी कोशिका का नियंत्रण एवं निर्देशन भी करता है। जीवन के समस्त रहस्य इस नाभिक में ही छिपे हैं। इसी के निर्देश पर विभिन्न कोशिकाएँ अपने-अपने अंगों के निर्माण के विभिन्न क्रिया कलापों में संलग्न रहती है। आमतौर से सभी जीवधारियों में यही क्रम चलता है। अमीबा और बैक्टीरिया जैसे निम्न श्रेणी के जीव ही इसके अपवाद हैं। उनमें विखंडन से ही नये जीव का निर्माण आरंभ हो जाता है। नाभिक के दो भाग हुए कि दो जीवों का अस्तित्व तैयार। उसका जनम, जनन, परिवर्तन और मृत्यु का सिलसिला ऐसे ही चल पड़ता है। साधारणतया दो जनन कोशिकाओं का परस्पर मिलन भी किसी जीव जाति की पीढ़ियाँ बनाने और बढ़ाने का आधार रहता है।

इन कोषों के- जींस को- विकसित एवं परिष्कृत किया जा सकता है। यह प्रयोजन मानव शारीरिक उधेड़ बुन से नहीं वरन् मानसिक ऊर्जा का संवेग तीव्र करने से संपन्न हो सकता है। पशुओं और पेड़-पौधों में इस स्तर की उलट पुलट भौतिक प्रयोगों से भी एक हद तक संभव हो गई है पर मनुष्य की कायिक स्थिति में भी हेर-फेर किया गया है प्रकृति की जिसमें स्वस्थता की मूलभूत क्षमता भी सम्मिलित है- प्रबल मनः शक्ति की ही अपेक्षा करती है। यदि मनोबल तीव्र हो तो संकल्प शक्ति एवं चित्त की एकाग्रता के आधार पर संपन्न किये जाने वाले ध्यानयोग जैसे उपायों से कोशिकाओं की अंतरंग स्थिति में हेर-फेर किया जा सकता है।

विश्व के समस्त जीवधारियों के शरीर इन कोशिकाओं की सूक्ष्म इकाइयों के मिलने से ही बने। एक कोशिका वाले अमीबा से लेकर विशालकाय हाथी तक के शरीरों में इन कोशिकाओं की ही ईंटें लगी हैं। इस सिद्धांत को स्कलीडन और थियोडन नामक जर्मन वैज्ञानिकों ने और भी अधिक स्पष्ट रूप से सिद्ध कर दिया।

एक औसत कोशिका का आकार व्यास एक सेंटीमीटर का दो हजारवाँ भाग होता है। देखते-देखते इनमें से लाखों करोड़ों मरती और जन्मती रहती हैं। माता और पिता से सिर्फ दो नन्ही कोशिकाएँ सारे पैतृक गुणों का सार लेकर आपस में मिलती हैं और उसी मिलन के आधार पर एक नये प्राणी का सृजन होता है। ये दो नन्ही कोशिकाएँ जब इंजीनियरिंग के सिद्धांत पर एक शानदार शरीर बनाने में जुट जाती है और सफलता पूर्वक अपना कार्य भ्रूणावस्था में आरंभ करके प्रजनन स्थिति आने तक बहुत कुछ पूरा कर लेती है।

पादरी ग्रेगर जोहान मेडेल के मटर पर किये गये और डच वैज्ञानिक ह्यूगोदर्वी के मक्का पर किये गये प्रयोग इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि कोई जीव स्वतः ही संतान की विशेषताएँ उत्पन्न नहीं करता वरन् उसके पीछे कोशिकाओं में सन्निहित पीड़ियों में संगृहीत संस्कार काम करते रहते हैं। प्रो. वेटसन ने इस तथ्य पर और अधिक प्रामाणिक प्रकाश डाला। जर्मनी के कोरेंस और आस्ट्रिया के शेरमाक वैज्ञानिकों के प्रयास से आनुवांशिकी विज्ञान पर और अधिक प्रकाश पड़ा और वह इस स्थिति में पहुँचा कि उस पर विश्व भर के वैज्ञानिक अधिक गंभीरता पूर्वक और अधिक सुनिश्चित पद्धति के अनुसार विचार कर सकें।

डॉ० स्टेवार्ड के तत्वावधान में चल रही अमेरिकी जीव शोध ने गाजर की कुछ कोशिकाओं से पूरा गाजर का पौधा बनाने में सफलता प्राप्त कर ली है। गाजर की विभिन्न कोशिकाओं में प्रायः एक ही तरह के जीन होते हैं वस्तु उसका एक कोषाणु समग्र गाजर के रूप में सहज ही परिवर्धित हो सकता है।

चिकित्सा शास्त्री तब चकित रह जाते हैं जब शारीरिक मानसिक दृष्टि से स्वस्थ प्रतीत होने वाले माता-पिता की गोद में भी विद्रूप बालक आ जाते हैं। उसी प्रकार उस स्थिति में भी आश्चर्य होता है जब पिछड़ी हुई शारीरिक, मानसिक, आर्थिक स्थिति में भी कीचड़ से कमल उत्पन्न होते हैं। इसका कारण अनेक पीड़ी ऊपर के किसी पूर्वज की वह विशेषता ही उभरी होती है जो एक दो ऊपर की पीड़ियों में कहीं दबी ही पड़ी रही और उस प्रकार की विचित्रता का कोई आभास तक नहीं मिला।

इस प्रकार की विकृतियों की चिकित्सा तभी संभव है जब कोशिकाओं के मर्म स्थल तक पहुँच सकना और गुण सूत्रों में हेर-फेर कर सकना संभव हो सके। यह सफलता मिल सके तो ही इच्छानुसार संतान लड़की या लड़का पैदा कर सकने वाली बात में कोई तुक है। यदि पुरुष के एक्स प्रकृति के गुण सूत्र मूर्छित और यदि प्रकृति के सशक्त किये जा सके तो ही शर्तिया पुत्र उत्पन्न होने वाली आकांक्षा पूरी हो सकती है। यदि पुरुष के एक्स गुण सूत्र अधिक सक्रिय हों तो उसके द्वारा उत्पादित संतान केवल कन्यायें ही कन्यायें हो सकती हैं।

कुछ खूँख्वार प्रकृति के अपराधियों का जब शारीरिक विश्लेषण किया गा तो उनमें तीन-तीन ‘वाई’ गुण सूत्र पाये गये। वकील ने अपने इन अपराधी मुवक्किलों के पक्ष में बहस करते हुए कहा इसमें दोष उनका नहीं यह आनुवांशिकी प्रेरणा का फल है इसलिए जिस प्रकार पागलों को छोड़ दिया जाय।

गर्भ स्थापना और उससे कन्या या पुत्र का जन्म होना अथवा बन्ध्या नपुंसक रहना इन्हीं ‘जींस’ की स्थिति पर निर्भर है। मनोवाँछित संतान प्राप्ति का स्वप्न दवादारु के आधार पर देखा भले ही जाता रहे पर वह सार्थक, साकार उसी दिन होगा जब आनुवांशिकी विज्ञान के अंतराल में उतर कर जींस एवं गुण सूत्रों की गतिविधियों पर नियंत्रण करने में सफलता प्राप्त कर ली जायेगी।

नारी के दोनों गुण सूत्र एक्स वर्ग के होते है॥ यदि उनमें एक-एक ही सक्रिय और मूर्छित हो तो फिर उसे कभी कोई संतान न होगी, उसे बंध्या ही रहना पड़ेगा। गर्भाशय की छोटी-मोटी खराबी के कारण यदि संतानोत्पादन नहीं हो रहा है तो उसका उपचार डाक्टर कर सकते हैं पर यदि गुण सूत्रों में कोई विकृति है तो उसे चिकित्सा शास्त्र की अब तक की उपलब्धियों से सुधारा नहीं जा सकता। उसके लिए उस समय की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी जबकि चिकित्सा विज्ञानी ‘जीनों’ का उपचार, आप्रेशन, स्थानान्तरण अथवा निराकरण कर सकने की क्षमता प्राप्त कर लें। गर्भपात की दुर्घटनाओं में गर्भाशय की खराबी की अपेक्षा गुण सूत्रों की गड़बड़ी का कारण अधिक रहता है। यदि स्त्री को दो एक्स सूत्रों की अपेक्षा तीन एक्स हो तो फिर उसमें से नारीतत्त्व को कोमलता एवं उमंगें चली जायेंगी और वह नपुंसक जैसी मानसिक और शारीरिक स्थिति में होगी। पुरुष में यदि एक की बजाय दो एक्स हो तो वह ‘ल्माइने फेल्टर’ का शिकार हो जाएगा और लौकिक तथा मानसिक दृष्टि से अविकसित ही रहेगा। अमेरिका में 400 में से प्रायः एक लड़का इस प्रकार की कमी का शिकार पाया जाता है।

वैज्ञानिक सोचते हैं कि कुछ बाधायें दूर हो जाये तो एक गाँधी से अनेक गाँधी बन सकते हैं। इसी प्रकार एक ही आइंस्टीन या कनेडी के सहारे अनेक आइंस्टीन कनेडी प्रयोगशाला में बनाये जस सकते हैं इसमें जहाँ लाभ है वहाँ रावण, कंस , हिटलर जैसे त्रासदायक व्यक्तित्व की प्रतिलिपियाँ कोई उपजाने लगे तो तो अपरिहार्य संकट भी खड़ा हो सकता है।

भारतीय तत्वेत्ता मनोबल एवं आत्मबल की उस क्षमता से परिचित थे जिसके आधार पर गुण सूत्रों -जीन शृंखलाओं से परिचित थे जिसके आधार पर गुण सूत्रों -जोन शृंखलाओं को दिशा दे सकना पूर्णतया संभव था। उसी आधार पर वे अपनी स्वतंत्र पीढ़ियाँ विनिर्मित करते थे। ये अमैथुनी होती थी। नर-नारी के संपर्क में मात्र गर्भ कलल की स्थापना हो सकती है और उसका प्रतिफल शिशु जन्म के रूप में सामने आ सकता है पर आत्मिक प्रवाह में बहाने और बहने का उपक्रम यदि बन सके तो व्यक्तित्व का मर्म स्थल ही बदल सकता है। गुरु परम्परा से भी अपने यहाँ गोत्र चलते हैं और वे पिता की तरह प्रामाणिक होते हैं कारण स्पष्ट है। प्रजनन शृंखला से बढ़ चढ़कर प्रत्यावर्तन शृंखला हैं। आत्मिक विद्युत की भट्टी में तपाकर किये जाने वाले रासायनिक परिवर्तनों की तरह मनुष्य के व्यक्तित्व में भी आत्मवेत्ता परिवर्तन उत्पन्न कर सकते हैं और उसे कुछ से कुछ बना सकते हैं। आनुवांशिकी विज्ञान यदि विकसित होता रहा तो एक दिन उसी स्थान पर जा पहुँचेगा जहाँ आत्मविद्या के ज्ञाता साधना तपश्चर्या के आधार पर पहुँचते रहें हैं। आत्म विज्ञान और भौतिक विज्ञान की प्रगति यदि यथावत् होती हरे तो वह दिन दूर नहीं जब मनुष्य की शारीरिक , मानसिक विकृतियों को ही दूर नहीं किया जा सकेगा वरन् व्यक्ति को सर्वांग सुंदर और अपूर्णताओं से मुक्त होने का स्वपन् किया जा सकेगा।


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