भीड़ का नहीं- न्याय का राज्य चले

January 1973

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उन दिनों भीड़ का राज्य था। यों नाटक न्याय का ही रचा जाता था। पर भीड़ की चिल्लाहट में इंसाफ की आवाज इतनी धीमी पड़ती थी कि कोई उसे सुन ही न पाता था।

सोचने के चलते हुए ढर्रे को बदलने की क्या जरूरत है? और परम्पराओं को बदलने की अधार्मिकता क्यों अपनाई जाय? पुरातन पंथी यह मानते थे और यही कहते थे। उन्हें यह तनिक भी नहीं रुचा कि ईसा ऐसा कुछ कह जिसमें प्रचलित मान्यताओं के प्रति अनास्था उत्पन्न होती ही। इसी का धर्म प्रचार उन्हें अधर्म जैसा लगा। वे कहते थे जो चल रहा है उसे चलने देना ही धर्म परम्परा है। उसे कोई तोड़े नहीं।

ईसा के तीखे उपदेश लोगों की धर्म भावनाओं को नई दिशा दे रहे थे। सुनने वालों को यथार्थता और परंपरा के बीच का अंतर बना रहे थे पुरातन पंथियों के लिए इस प्रकार के प्रयास सदा रोष का कारण बनते रहे हैं। ईसा भी उससे बच न सके।

उस वर्ष का महायाजक ‘हन्ना’ था। धर्म पुरोहित ही अभियोग बनाते थे और हाकिम दंड देता था हन्ना चाहते थे कि ढर्रे में अवरोध उत्पन्न करने वाले ईसा का प्राण दंड मिले। सो उनके अधीनस्थ पुरोहितों ने जाकर उन्हें पकड़ा और महायाजक के सामने उपस्थित किया।

याजक ने पूछा- मैंने जो कुछ कहा है खुले में और विरुद्ध विद्रोह करने के उपदेश दिये हैं।

ईसा ने कहा - मैंने जो कुछ कहा है खुले में और मंदिरों के आँगन में कहा है- सो सुनने वालों से ही पूछिए कि क्या मैंने ऐसा कुछ कहा है।

एक पुरोहित ने ईसा को चाटा मारा और कहा- महायाजक के सामने बढ़ चढ़ कर बोलता है?

ईसा ने कहा- मैं कुछ झूठ कहता हूँ तो कहो मैंने क्या झूठ बोला। बिना कारण मारने से क्या होगा?

पुरोहित मंडली के गवाह आगे आये। उनने कहा- यह कहता है पुराने मंदिरों के स्थान पर नये मंदिर खड़े होने चाहिए। पुराने राजा के स्थान पर नये रजा का शासन स्वीकार करना चाहिए।

ईसा ने कहा- मैंने मंदिरों का नहीं, उनकी आड़ में पलने वाली अधार्मिकता का विरोध किया है और धरती के राजा के विरोध में नहीं स्वर्ग के राजा के शासन के बारे में कहा है। यदि मैं धरती के राजा का विद्रोह करता तो मेरे पास भी सैनिक होते और इस प्रकार निहत्था न पकड़ा जाता।

महायाजक ने प्रतिवादी की एक न मानी और दोष लगाने वालों की बातों पर ही कान धरते रहे। उन्होंने अपराध वालों की बातों पर ही कान धरते रहे। उन्होंने अपराध लगाते हुए प्राण दंड देने की सिफारिश के साथ ईसा को न्यायाधिकारी पीलातुस के पास भेजा दिया।

पीलातुस ने छानबीन की और ऐसा कुछ न पाया। वह चाहते थे इस निर्दोष को दंड न दिया जाय। पर भीड़ ने चिल्लाकर कहा ईसा विद्रोही है, उसे फाँसी लटकाया जाना चाहिए। न्यायाधिकारी ने पूछा- क्या कोड़े लगाने की सजा से काम चल सकता है? भीड़ ने कहा- नहीं,, नहीं॥

भीड़ का बोल बाला था। न्याय तो काष्ठपुतली मात्र था। राज्य तो अविवेकियों की भीड़ कर रही थी। पीलातुस ने अपनी कुछ चलती न देखी तो एक उपाय सोचा। ईसा गलील प्राँत का नागरिक है सो उसे संहिता के अनुसार उसी देश के राजा को दंड देने का अधिकार है। अस्तु उसे गलील प्राँत के राजा हैरोदेश के पास भेजना चाहिए। उन्होंने वैसा ही किया भी।

राजा हैरोदेश ने गहराई के साथ पूरी छानबीन की पर ईसा पर कोई दोष सिद्ध नहीं हुआ। सो उन्होंने बंदी को पीलातुस के पास वापिस भेजते हुए लिखा- मेरी राय में वह न तो अपराधी है और न दंड का अधिकारी।

पीलातुस, निर्दोष को दंड नहीं देना चाहते थे पर भीड़ की चिल्लाहट प्राण दंड से कम पर राजी नहीं हो रही थी। सो खीज़ कर न्यायाधिकारी ने कहा- तुम्हें जो दीखे से करो। मुझे विवश न करो।- पर भीड़ भला क्यों मानने लगी उसने कहा हमारी इच्छानुसार दंड देने में ही तुम्हारी भलाई है।

भीड़ के राज्य में न्यायाधिकारी की क्या चलती। ईसा को क्रूस की ओर घसीटा जाने लगा तो पीलातुस ने एक और प्रयत्न किया। उस दिन पर्व का दिन था। पर्व पर एक अपराधी को क्षमादान किये जाने की प्रथा थी। सामने दो अपराधी थे एक हत्यारा डाकू, वरअब्बा, दूसरे ईसा। दोनों में से न्यायाधीश ईसा को छोड़ना चाहते थे। पर भीड़ चिल्लाई- वरअब्बा को भले ही छोड़ दिया जाय पर ईसा को तो क्रूस पर ही चढ़ना चाहिए।

न्याय की एक न चली, हुआ वही जो भीड़ ने चाहा। क्रूस की ओर घसीटते हुए ईसा को सिपाहियों ने कोड़े मारे, लात घूँसे लगाये, थूका काँटों की टोपी पहनाई और तरह तरह से सताया। भीड़ को खुश करने को उत्सुक सिपाहियों के लिए इनके सिवाय और कोई उपाय था भी नहीं।

संसार में सदा से बहु संख्यक अविवेकी लोग ही रहे हैं। विचारशील की संख्या उनसे सदा कम रहती है सो भीड़ की बात जहाँ चलती है वहाँ न न्याय की बात चलती है और न औचित्य को मान्यता मिलती है। भीड़ जो चाहे सो करले, अब ऐसी स्थिति आ जाय तो न कोई तथ्य को देखता है और न सत्य को।

प्रवाह का विरोध करने के लिए बहुत बड़ा आत्मबल चाहिए। उथले आदमी सत्य का समर्थन तभी तक करते हैं जब तक वैसा करना निरापद लगता है, जब भीड़ के प्रकोप में अपने ऊपर भी जाँच आती दीखती है तो वे भी उखड़ जाते हैं।

ईसा के बारह शिष्य थे। इस कठिन अवसर पर वे सभी भाग कर कहीं जा छिपे। एक शिष्य पतरस न्यायालय के आँगन तक साथ गया। महायाजक के नौकरों ने कहा- क्या तू भी ईसा का साथी है। तो उसने कसम खाकर कहा मैं तो उन्हें जानता तक नहीं। दस शिष्यों का कहीं पता न था। बारहवें ने एक और चमत्कार किया था- उसने संकट की घड़ी आने से पूर्व ही सरकारी मुखब्बर बन कर ईसा को पकड़वा दिया और तीस रुपया इनाम लिया। उसका नाम था- यहूदा

यों बाद में ईसा की महानता को सब ने समझा भीड़ ने भी। तीस रुपये में गुरु को बेचने वाले यहूदा ने वे रुपये महायाजक को वापिस लौटा दिये और स्वयं आत्म ग्लानि की पीड़ा से बचने के लिए फाँसी लगा कर आत्म हत्या कर ली। वे खूनी रुपये महायाजक ने भी वापिस नहीं लिए और उन्हें खेत में गढ़वा दिया। खून से सने रुपए जिसमें गाढ़े गये थे वह खूनी खेत अभी भी अपने में अंतर्कथा भरे जहाँ का तहाँ पड़ा है।

भीड़ में इतनी कहाँ होती है कि वह विवेक पूर्ण निर्णय कर सके। आवेश के प्रवाह में लाग किधर भी बहते रहते हैं। इसलिए भीड़ की माँग को नहीं, न्याय की पुकार को मान्यता मिलनी चाहिए। ईसा पवित्र बलिदान से निकला यह निष्कर्ष अनंत काल तक आकाश में गूँजता रहेगा।


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