महानता के साथ अवरोध भी जुड़े हुए हैं

January 1973

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ढर्रे का- बेजोखिम का जीवन क्रम बिताते रहना इतना सरल तो है पर उससे यह हानि भी है कि ऊँचे उठने और आगे बढ़ने की संभावना समाप्त हो जाती है। ढीले-पोले और साहस रहित व्यक्ति जोखिम उठाने से डरते हैं। उनका यह डर कठिनाइयों से शायद किसी हद तक बचा भर देता हो पर नई कठिनाई यह उत्पन्न करता है कि नीरस, निर्जीव और हेय स्थिति को पार करने के सारे द्वार प्रायः बंद ही हो जाते हैं। यों कठिनाइयों से सर्वथा बचे रहना तो डरपोक लोगों के लिए भी संभव नहीं, क्योंकि प्रकृति हर किसी में नव जीवन और नव स्फूर्ति भरने के लिए उठक पटक की आवश्यक समझती है। सीधी उँगली से घी कहाँ निकलता है। दुस्साहस के बिना कोई अग्रगामी कहाँ रहता है।

भूगर्भ शास्त्रियों के अनुसार विशाल हिमालय का जनम थोड़ा-थोड़ा करके तीन बार में हुआ। मुख्य हिमालय-जिसे हिमालय का हृदय भी कहते हैं। अब से 5 करोड़ वर्ष पूर्व ‘टीथिस’ समुद्र की तली से उभरा। इसके बाद 2 करोड़ वर्ष पश्चात् लघु हिमालय और उसके 2 करोड़ वर्ष बाद बाह्य हिमालय उस स्थान पर उभरा जहाँ आजकल देहरादून, हरिद्वार, शिमला, नैनीताल प्रकृति नगर बसे हुए हैं।

महान् हिमालय पर्वतमाला का विस्तार 2400 किलो मीटर है। इसे चार खंडों में विभक्त किया जा सकता है (1) पंजाब हिमालय- गिलगिट के समीप सिंधु नदी के मोड़ से सतलज नदी तक 560 किलो मीटर लंबा खंड इसकी सबसे ऊँची चोटी नागा शिखर 26620 फीट ऊँची है। (2) ‘कुमायूँ हिमालय’- सतलज से लेकर काली नदी तक 320 किलो मीटर लंबा खंड, इसके पाँच बड़े शिखर हैं। गंगोत्री शिखर 21700 फीट, केदार नाथ 22770 फीट। बद्रीनाथ 23160 त्रिशूल 23160, नंदा देवी 25645 [3] नेपाल हिमालय - काली नदी से तीस्ता नदी तक 800 किलो मीटर लंबा है। इसके चार बड़े शिखर हैं गोसि अनथक 26261, धौलागिरी 26765, कंचन जंघा 28140, गौरीशंकर [एवरेस्ट] 26141 फीट। [4] आसाम हिमालय-तीस्ता नदी से नामचा बरवा के समीप ब्रह्मपुत्र नदी तक 720 किलो मीटर लंबा। इसके दो शिखर ऊँचे हैं कुलाकाँगड़ी 24754, नामचा वरवा 25445 फीट।

पर्वतों की यह ऊँचाई अनायास ही नहीं मिल गई। इसके लिए उन्हें प्रकृति की उठक पटक का समाना कर सकने का दुस्साहस ही अपनाना पड़ा है।

पर्वत, धरती आदि काल से ही उत्पन्न नहीं हुए हैं। वे बीच-बीच में बढ़ते उगते और नष्ट होते रहे हैं। आदि काल में धरती का जो स्वरूप था उसमें अब भारी अंतर आ गया है। पृथ्वी पर निरंतर काम करने वाली प्राकृतिक शक्तियाँ, प्रवाहमान जल, ज्वालामुखी, भूकंप तथा विभिन्न दिशाओं में क्रियाशील अकल्पनीय दबाव यह सब प्राचीन पर्वतों के विलीन और नये पर्वतों के जन्म के लिए उत्तरदायी है। उदाहरणार्थ 5 करोड़ वर्ष जहाँ ‘टीथिस’ सागर लहराता था अब वहाँ उन्नत मस्तक हिमालय पर्वत खड़ा है। कितने ही पर्वत विशाल ज्वालामुखी विस्फोटों के साथ निकले हुए लावा से बने हैं। धरती में दरारें पड़ने से नीची कमजोर मिट्टी धुल जाती है और मजबूत खड़ी रहती है इस प्रकार बने पर्वतों को अवरोधी वर्ग का माना जाती है। चट्टानों के साथ जुड़ी मिट्टी जब जल प्रवाह में बह जाती है इस प्रकार बने पर्वतों को अवरोधी वर्ग का माना जाता है तो स्थिर चट्टानें खड़ी मिट्टी रह जाती हैं इन्हें ‘विभक्त’ वर्ग के पर्वत कहते हैं। वायु और जल की प्रवाही हलचलों से पूर्व धरातल पर अन्यत्र की मिट्टी तथा रोड़ों की तह जमा होती चली जाती है इन्हें परतदार पर्वत कहते हैं। पर्वत रचना इतिहास में 3 पर्वत निर्मात्री भयंकर हलचलों की चर्चा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 37॥ करोड़ वर्ष पूर्व की कैलोडीयन हलचल, 30 करोड़ वर्ष पूर्व की हरसीनियन हलचल और 12॥ करोड़ वर्ष की अल्पाइन हलचल ऐसी विकट थी कि उन्होंने पिछले सहस्रों पर्वतों को विस्मृति के गर्त में धकेल दिया और उनको जन्म दिया जो आज हमें उभरे उठे हुए दिखाई पड़ते हैं।

प्रगति के पथ पर जोखिम भी हैं। उसमें हानि भी सहनी पड़ती है और खतरा भी उठाना पड़ता है। दुस्साहसी लोग सदा इसके लिए तैयार रहते हैं। जोखिमों से जूझना भी उन्हें एक उत्साहवर्धक खेल प्रतीत होता है।

कोमलता को कठोरता में परिणत करने की प्रक्रिया ही साधारण मिट्टी को पर्वतीय को पर्वतीय चट्टानों के रूप में परिणत करती है। प्रौढ़ता की दिशा में इसी प्रकार चला जाता है कि सरलता की अपेक्षा कठोरता का स्वागत किया जाय और उसे अपनाया जाय।

धरती भिन्न-भिन्न प्रकार के भूखंडों से मिलकर बनी है। कहीं सुदृढ़ चट्टानें है तो कहीं दुर्बल परतदार चट्टानें। अभी कितनी चट्टानों का रूप अधपका है और वे क्रमशः अपनी कच्चाई दूर करने प्रौढ़ता की दिशा में विकसित हो रही है। इसके कारण भीतर ही भीतर कई तरह की घट-बढ़ होती रहती है। पाँच करोड़ वर्ष में कम आयु वाली पर्वतमालाओं के क्षेत्र में अधिक भूकंप आते हैं क्योंकि वहाँ अभी कच्चेपन को पक्केपन में बदलने की प्रक्रिया चल रही है। भारत का हिमालय, योरोप का आल्पसा, अमेरिका राकेज-जापान का फ्युजीयामा पर्वत अभी किशोरावस्था में है। यौवन और प्रौढ़ता प्राप्त करने के लिए अभी इन्हें बहुत ऊँचा उठना और आगे बढ़ना है। तब तक उनके नीचे भूकंप के लिए उत्तरदायी हलचलें होती ही रहेंगी। इन्हें भू रचना भूकंप के वर्ग में गिना जा सकता है।

जिन्हें महानता के उत्तरदायित्व सँभालने का उत्तरदायित्व उठाना पड़ता है उन्हें प्रकृति के आकर्षण विकर्षण का भी सामना करना पड़ता है। मित्रों और शत्रुओं की बाढ़ समान रूप से बढ़ती है। समुद्रों को भी उस स्थिति का सामना करना पड़ता है। सूर्य और चंद्रमा, समुद्र की अथाह जलराशि को देखकर विक्षुब्ध होते हैं, और उसे प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं। प्रतिभायें एक कोने में चुपचाप पड़ी नहीं रह सकती। वे पड़ी रहना चाहें तो प्रकृति उन्हें वैसा नहीं करने देती। सुदूर आकाश में रहने वाले सूर्य चंद्र अकारण ही समुद्र जल को प्रभावित करते हैं और उसकी सतह पर ज्वार-भाटा उठते रहते हैं। इतना सब होते हुए भी समुद्र अपना संतुलन नष्ट नहीं होने देता महान् व्यक्तियों पर जहाँ महान् कार्य संपन्न करने के उत्तरदायित्व रहते हैं वहाँ उन्हें अनुकूलता प्रतिकूलता सहने के लिए भी कटिबद्ध रहना पड़ता है।

समुद्र जल का निश्चित समय पर -नियमित रूप से ऊपर उठना ‘ज्वार’ और नीचे उतरना ‘भाटा’ कहलाता है। खुले सागरों में प्रायः सभी तटों पर पूरे दिन में दो बार हलके ज्वार-भाटा आते हैं। पूर्णिमा’ और अमावस्या की वे विशेष रूप से उग्र होते हैं। सप्तमी अष्टमी के दोनों पक्षों में उन्हें मध्यम स्तर के ढंग में देखा जा सकता है।

सूर्य और चंद्रमा की आकर्षण शक्ति इस उतार-चढ़ाव का मूल कारण है। सूर्य की आकर्षण शक्ति यद्यपि चंद्रमा की आकर्षण शक्ति से ढाई करोड़ गुनी अधिक है तो भी चंद्रमा की अपेक्षा प्रायः 405 गुनी दूर होने के कारण सूर्य की अपेक्षा पृथ्वी पर प्रायः दूना आकर्षण चंद्रमा का ही होता है। अस्तु सागरों में अपने ही अंगों से आप संतानें उत्पन्न करते रहने वाला यह क्रीड़ा अपनी वंश वृद्धि इसी प्रकार करता रहता है और उनका विशाल कुटुंब परिवार धीरे-धीरे एक द्वीप के फिर द्वीप समूह के रूप में बढ़ता चला जाता है। भारी होने पर वे समुद्र की तली में बैठते जाते हैं और प्रवाल पर्वत सुदृढ़ चट्टानों का रूप धारण कर लेते हैं। ज्वार भाटे तथा पवन द्वारा उन की सह पर कीचड़ रेत, बीज, वनस्पति पटकते रहते हैं फलस्वरूप वे हरे-भरे पेड़-पौधे से आच्छादित साधारण समुद्री द्वीपों की तरह दिखाई पड़ते हैं। भारतीय प्रायः द्वीप के दक्षिणी छोर पर -आस्ट्रेलिया के उत्तर पूर्व तट पर - हवाई द्वीप के समीप विकनी द्वीप में अच्छे प्रवाल देखे जा सकते हैं छुट-पुट उनका अस्तित्व तो अनेक स्थानों पर है।

अमावस्या तथा पूर्णिमा को चंद्र, पृथ्वी एवं सूर्य प्रायः एक ही रेखा पर रहते हैं। इन दो तिथियों को सूर्य तथा चंद्रमा की आकर्षण शक्ति अपेक्षाकृत अधिक सशक्त होती है फलतः अधिक ऊँचे ज्वार भाटे आते हैं। कृष्ण पक्ष तथा शुक्ल पक्ष की सप्तमी अष्टमी तिथियों को सूर्य पृथ्वी रेखा चंद्र पृथ्वी रेखा से 60 अंश का कोण बनाता है, तब भी ज्वार-भाटा आते तो हैं पर अधिक ऊँचे नहीं होते। पृथ्वी तथा चंद्रमा दोनों के घूमने के कारण आवृत्ति छः-छः घंटे की न होकर 6 घंटा 12॥ कि मिनट की होती है। इस प्रकार दो ज्वार और दो भाटे कुल 4 क्रियायें 24 घंटे 50 मिनट में संपन्न होती है। अर्थात् ज्वार-भाटे के दैनिक समय में 50 मिनट की देरी होती जाती है। यदि आज ज्वार 5 बजे आया है कल 8 बजकर 50 मिनट पर परसों 6 बजकर 40 मिनट पर यही क्रम आगे भी चलेगा। सब जगह ज्वार भाटा एक ही समय पर नहीं आते आकर्षण शक्ति के प्रभाव की घट-बढ़ से विभिन्न स्थानों पर उनके समय अलग-अलग रहते हैं। ज्वार का प्रधान कारण चंद्रमा ही है।

पृथ्वी का जो क्षेत्र चंद्रमा के समीप है वहाँ चंद्रमा को आकर्षण शक्ति पृथ्वी के केंद्रापसारी बल से अधिक होती है अतएव चंद्रमा की दिशा में समुद्र तल पर खिंचाव बढ़ जाता है। पृथ्वी का जो क्षेत्र चंद्रमा से दूर है वहाँ चंद्रमा की आकर्षण शक्ति पृथ्वी के केंद्रापसारी बल से कम होती है फलतः चंद्रमा से विपरीत दिशा में खिंचवा क्रियाशील हो जाता है। इस प्रकार एक ही समय में दो विपरीत दिशाओं में ज्वार उठते हैं। एक पूर्वी गोलार्ध में दूसरा पश्चिमी गोलार्ध में। सुविस्तृत जलराशि में इस प्रकार की परस्पर विरोधी दो सक्रियता और परिणाम वह होता है जो हमें ज्वार-भाटा के रूप में दिखाई पड़ता है। इस प्रकार प्रत्येक 24 घंटे 50 मिनट में दो विपरीत दिशाओं में दो बार ज्वार-भाटा आते हैं।

समुद्र को ज्वार-भाटों का निरंतर सामना करना पड़ता है वह न कभी उनसे खिन्न होता है न असंतुलित वरन् अपने कंधों पर आये हुए अनेक उत्तरदायित्वों में से एक भार, ज्वार-भाटों का समाना करने का -अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं से जूझने का भी और जोड़ लेता है और परिस्थितियों से धैर्य साहस एवं संतुलन के साथ निपटता रहता है।

समुद्र की तरह ही थलभूमि को भी आंतरिक विग्रह और बाह्य प्रतिरोधों का सामना करना पड़ता है। इसका प्रमाण भूकंपों के रूप में आये दिन हम देखते रहते हैं। इन भूकंपों से जहाँ पृथ्वी को हानि सहनी पड़ती है वहाँ उन्हीं से ऐसी परिस्थितियाँ भी बन जाती है जिन पर से हानि के गर्भ में छिपे लाभ का भी आभास प्राप्त किया जा सके।

सूर्य तपा, शीतलता, पवन-हिमिनद आदि कारणों से जमीन के भीतर और बाहर की वस्तुयें इधर से उधर हटती, गिरती रहती हैं, इससे वजन का पूर्व संतुलन बिगड़ जाता है जैसे कि तराजू के पलड़ों का वजन घटने बढ़ने से वे ऊपर नीचे होते रहते हैं इसे ही भूकंप का रचना परिवर्तन कारण कहते हैं।

अत्यंत भार ढोने वाली माल गाड़ियाँ- उनकी तीव्र गति, परमाणु बमों का विस्फोट आदि मानवीकृत आघात हैं। उल्कापात, व्रजाघात जैसे कई प्रकृतिगत आघात भी ऐसे भयंकर होते हैं कि उनके कारण भूकंप उत्पन्न हो जाते हैं। भूकंप मापक यंत्र-सीस्मॉग्राफ से यह जाना जा सकता है कि पृथ्वी पर भूकंप कहाँ हुआ उसकी गति क्या थी, क्या कारण था और उसका उद्गम स्त्रोत धरती के किस परत में कितनी गहराई पर था।

जिस प्रकार हवा से पेड़ों के पत्ते हिलते रहते हैं उसी प्रकार भूकंपों से धरती का कोई न कोई भाग प्रायः हिलता रहता है। औसतन प्रत्येक तीन मिनट में पृथ्वी पर कहीं न कहीं एक भूकंप आ जाता है। सौभाग्य से सभी भूकंप विनाशकारी नहीं होते। भूगर्भ स्थित चट्टानों के अचानक इधर-उधर हट जाने से जो आघात पृथ्वी की भीतरी गहराइयों में उत्पन्न होते हैं उन्हीं के झटके धरती के बाह्य धरातल को झकझोरते हैं यही भूकंप है, धरती जैसे-जैसे ठंडी होती जाती है वैसे ही वैसे भूगर्भ में सिकुड़न पैदा होती है, उसके कारण पड़ने वाली दरारें पदार्थों को इधर से उधर करती है। गहराई के भीतर होने वाली उठक-पटक को हम भूकंप के रूप में अनुभव करते हैं।

पिछले 300 वर्षों का विनाशकारी इतिहास रोमांचकारी है। सृष्टि के आदि से अब तक निरंतर चलती आ रही इस भूकंपों की शृंखला ने कितनी धन जन की हानि की होगी यह अकल्पनीय है। पिछले कुछ ही दिनों की भूकंप प्रतिक्रिया का विवरण इस प्रकार है-

सन् 1765 लिस्बन [पुर्तगाल] 5000 व्यक्ति मरे पूरा नगर नष्ट। सन् 1817 नेपल्स [इटली] 12000 व्यक्ति मरे। 1861 मिनोओवरी [जापान] 7000 व्यक्ति मरे दोनों नगर नष्ट।1867 शिलाँग [आसाम] 10000 मरे। 1605 काँगड़ा 20000 मरे। 1608 सिसली 76000 मरे। 1615 मध्य इटली 30000 मरे 370 गाम तथा नगर नष्ट। 1623 टोकियो [जापान] 14000 करे। 1623 काँसू [चीन] 100000 मरे। 1634 उत्तरी हार 12000 मरे। 1635 क्वेटा [विलोचिस्तान] 60000 मरे। घायल मनुष्यों की संख्या मृतकों से कम कम चार गुनी आँकी जानी चाहिए पशु धन का भी भारी विनाश हुआ। इसके अतिरिक्त मकान, कारखाने तथा दूसरी प्रकार की जो आर्थिक क्षति हुई उसका ठीक से अनुमान लगाया जा सकना कठिन है। निश्चित रूप से वह संपदा अत्यंत विशाल परिणाम में होगी। यह अत्यंत विशालकाय भूकंपों की बात है। छुटपुट रूप से तो वे कहीं न कहीं आते ही रहते हैं और उनके कारण धन न की हानि होती ही रहती है।

मानव जाति सृष्टि के आदि काल से ही ऐसे प्रकृति प्रकोपों का सामना करती रही है। फिर भी साहस, धैर्य, और ध्वंस के खंडहरों पर निर्माण की मानवी प्रकृति ने कुछ ही समय में उस ध्वंस की क्षति पूर्ति कर ली है। कोई आघात ऐसा नहीं होता जिसकी क्षतिपूर्ति नहीं हो सके। अधीर मनुष्य उसका मूल्य चुकाने और प्रतीक्षा करने को तैयार न होने के कारण निराश हो बैठते हैं पर जहाँ शौर्य और साहस है वहाँ ध्वंस का तांडव समाप्त होते ही सृजन का प्रयास दुर्गति से आरंभ हो जाता है।

न धरती घात प्रतिघातों से बच सकीं है और न समुद्र की जलराशि। प्रकृति के हिलोरों में झूलने वो हर किसी को आगे और पीछे बढ़ने हटने के झोंके लेने पड़ते हैं। अधीर और क्षुद्र उससे बेतरह भयभीत होकर रोते, चिल्लाते हैं पर बहादुर लड़के मेले ठेलों में आने वाले चरखे पर झूलने की तरह ऊपर नीचे आने जाने जाने का आनंद उत्साह पूर्वक उठाते हैं। महत्वाकांक्षी, प्रगतिशील एवं बड़े उत्तरदायित्व वहन करने के लिए समुद्यत लोगों को तो भूकंपों-ज्वार भाटों का सामना अनिवार्य रूप से करना पड़ता है। पर्वतों के उच्च शिखरों का व्यक्तिगत महानताओं का निर्माण भी इस प्रक्रिया का सामना करने पर ही संभव होता है।


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