मैंने अपने भगवान का अपनी कल्पना मान्यता और रुचि के अनुरूप ढाला है साथ ही यह आशा भी की है कि वह मेरी इच्छानुसार सोचेगा और चलेगा।
पर जब देखता हूँ कि दूसरों के ईश्वर मेरी मान्यता और कल्पना से बहुत हद तक भिन्न हैं, उनकी आकृति ही नहीं प्रकृति भी मेरी कल्पना के भगवान से ताल-मोल नहीं खाती।
लगता है हर आदमी ने अपना भगवान अपने ढंग से गढ़ा हैं उसकी निज की आकांक्षाओं और मान्यताओं के ढाँचे में ढाला गया है। लगता है हर व्यक्ति अपनी ही अर्हता को ईश्वर का आवरण पहना कर पूजने रिझाने में लगा हुआ है।
काश सबके भगवान एक होते और उस सार्वभौम एकता ध्यान में रखते हुए एक ऐसा भगवान गढ़ा जाता जो व्यक्ति के इशारे पर चलने को तैयार न होकर-अपने इशारे पर लोगों को चलाने के लिए विवश करता।