जिन्दगी जीनी हो तो इस तरह जिये

January 1973

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जीवन अपने लिए एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। जिसके प्रत्येक पृष्ठ से एक से एक बढ़ कर काम शिक्षायें हमें पढ़ने को मिल सकती है।

कल क्या बीती और कल का दिन कैसे गुजरा इन पर गहराई से विचार करे तो उसमें अनेकों शिक्षाप्रद अनुभव ऐसे मिल सकते हैं जो दूसरों के उपदेश सुनने या विद्वानों को पुस्तकें पढ़ने से भी अधिक कारगर सिद्ध हो सकते है?

कल के समय का जिस प्रकार उपयोग किया गया, और उससे जो पाया गया उससे अच्छा उपयोग नहीं हो सकता था? जिन नासमझियों के कारण कल कई झंझटों में फँसना पड़ा क्या उनसे बचा नहीं जा सकता था? कल किस अवसर पर क्या ऐसे अदूरदर्शी कदम उठ गये जो समझदारी का समय रहते उपयोग करने से टल सकते थे और कुछ किया जा सकता था जो अधिक सुखद और श्रेयस्कर होता? इस प्रकार के प्रश्न यदि अपने आप से पूछे तो सहज ही वे उत्तर सामने आयेंगे जो आगे के लिए ध्यान में रखे जाने पर भावी उन्नति का पथ प्रशस्त कर सकते हैं।

जीवन का रसास्वादन वे लोग नहीं कर पाते जो अपने लिए ही जीते हैं। खुदगर्जी के तंग दायरे में जीना एक प्रकार की लानत है जो आदमी पर हर घड़ी आत्म ग्लानि की तरह बरसती रहती है। कई व्यक्ति खुदगर्जी की राह अपना कर अधिक सुख साधन इकट्ठे कर लेते हैं दूसरों की तुलना में ज्यादा मालदार लगते हैं। इतना होने पर भी ऐसे लोगों को एक ऐसे अभाव से दुखी रहना ही पड़ेगा जो सामूहिक और पारमार्थिक गतिविधियाँ अपनाये बिना मिल ही नहीं सकता। अपने लिए ही जीना अपनी सुख सुविधाओं की ही बात सोचना वस्तुतः मनुष्य का मानसिक बौनापन है। ओछे और उपहासास्पद ही गिने जाते रहेंगे जहाँ व्यक्तित्व की परख होगी वहाँ उन्हें फिसड्डी ही ठहराया जायेगा। जिन्दगी को प्यार करने वाले लोग अपनी सुव्यवस्था के साधन जुटाने के साथ-साथ यह भी करते हैं कि उन्हें दूसरों के लिए कुछ सोचने और करने का अवसर भी मिलता रहे।

दूसरों के दुःख दर्द में हिस्सा बटाना चाहिए पर वह उतना भावुकता पूर्ण न हो कि अपने साध नहीं नष्ट हो जाये और अपना अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाय। आमतौर से उदार व्यक्तियों को ऐसी ही ठगी का शिकार होना पड़ता है। दूसरों को उबारने के लिये किया गया दुस्साहस सराहनीय है पर वह इतना आवेश ग्रस्त न हो कि डूबने वाला तो बच न सके उलटे अपने को भी दूसरे बचाने वालों की ओर निहारना पड़े उदारता के साथ विवेक की नितान्त आवश्यकता है। मित्रता स्थापित करने के साथ वह सूक्ष्म बुद्धि भी सचेत रहनी चाहिए जिससे उचित और अनुचित का सही और गलत का वर्गीकरण किया जाता है। भावुक आतुरता के साथ यदि उदारता को जोड़ दिया जाये तो उससे केवल धूर्त ही लाभान्वित होगे और उन्हें ढूँढ़ सकना संभव ही न होगा जो इस प्रयोग के लिये सर्वोत्तम हो सकते थे। जीवन का आनन्द मैत्री रहित नीरस और स्वार्थी व्यक्ति नहीं ले सकते इस तथ्य के साथ यह परिशिष्ट और जुड़ा रहना चाहिए कि सज्जनता के आवरण में छिपी हुई धूर्तता की परख की क्षमता भी उपार्जित की जाय। ऐसा न हो कि उदारता का कोई शोषण कर ले और फिर अपना मन सदा के लिये अश्रद्धालु बन जाये।

दूसरों के लिये हमें बहुत कुछ करना चाहिए यह ठीक है। पर यह भी कम सही नहीं कि हमें दूसरों से प्रतिदान की अधिक आशाएँ नहीं करनी चाहिए हर किसी को अपने ही पैरों पर खड़ा होना होता है और अपनी ही टाँगों से चलना पड़ता है। सवारियाँ भी समय समय पर मिलती है दूसरों का सहयोग भी प्राप्त होता है। पर वह इतना कम होता है कि उससे जीवन रथ को न तो दूरी तक खींचा जा सकता है और वह तेज चाल से चल सकता है। काम तो अपनी ही टाँगे आती है। खड़ा होने के लिए अपनी ही नस नाड़ियों माँसपेशियों और हड्डियों पर वजन पड़ता है। यदि वे चरमराने लगे तो फिर दूसरे आदमी कब तक कितनी दूर तक हमें खड़ा होने या चलने में सहायता कर सकेंगे?

जो भी योजना बनाये उसमें आत्म निर्भरता का ही प्रधान भाग रहना चाहिए। दूसरों की सहायता के आधार पर जो क्रिया-कलाप खड़े किये जाते हैं वे आमतौर पर अधूरे और असफल ही रहते हैं। दूसरों का सहयोग भी मिलता ही है पर वह आगे तब आता है जब अपनी पात्रता और प्राथमिकता सिद्ध कर दी जाय। ऐसा स्वावलम्बी लोग ही कर सकते हैं वे ऐसी व्यावहारिक गतिविधियाँ अपनाते हैं जो आज की परिस्थितियों, आज के साधनों से अपने बलबूते खड़ी की जा सकती हो। भले ही इस प्रकार का शुभारम्भ छोटे रूप में हो पर उसमें यह संभावना भरी पड़ी है कि उस छोटे काम में बरती गई तत्परता और सावधानी के आधार पर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध की जा सके। यही से दूसरों का सहयोग द्वार खुलता है। भला कोई कैसे पसन्द करेगा कि किसी हवाई कल्पना की उड़ान में उड़ने वाले शेखचिल्ली के नीचे अपनी उँगली फँसा दे और अपनी कीमती सहायता को जोखिम में डालने का खतरा अंगीकार करे।

सहयोग देने की तरह सहयोग लेने की भी आवश्यकता रहती है। पर निर्भर अपने ही पक्षधर रहना चाहिए। इतनी बड़ी बात सोची ही क्यों जाय? इतना बड़ा स्वप्न देखा ही क्यों जाय जिसमें दूसरों का सहयोग न मिलने पर खीज़ या निराशा ही पल्ले बँधे?

कठिनाइयों से कोई बच नहीं सकता। जीवन इतना सरल नहीं है कि उसे गुप-चुप बिना किसी झंझट के जिया जा सके। हमें वह साहस एकत्रित करना ही होगा कि आये दिन नाम रूप बदल कर आने वाली कठिनाइयों का सामना और समाधान करने की सूझ-बूझ परिपक्व होती रहे। शान्ति की आकांक्षा अशान्ति को परास्त करके पाई गई विशय के रूप में की जानी चाहिए। बिना झंझट का सरल और सुख सुविधाओं से भरा पूरा जीवन क्रम एक मधुर कल्पना भर है व्यावहारिक वास्तविकता नहीं जीवन का निर्माण ही खुद इस तरह हुआ है कि उस्तरे की तरह उस पर बार-बार धार रखने की रगड़ से वास्ता पड़ता रहे। जो इस यथार्थता का सामना नहीं करना चाहता, सरलता को ही शान्ति मानता है उसे खाली हाथ ही रहना पड़ेगा अपना शरीर और मन भी क्या कम अशान्ति उत्पन्न करते हैं। नगर निवासियों की तरह ही वनवासी और सक्रियों की तरह ही निष्क्रिय भी क्षुब्ध रहते हैं। उलझनों का स्वरूप बदला जा सकता है पर उनसे न ता कोई गृही बच सकता है और न वैरागी। शान्ति तो उन्हें ही मिल सकती है जो अशान्ति से टकराने की कला के अभ्यस्त और पारंगत बन चुके है।

उत्साह और उल्लास बना रहने के लिए यह आवश्यक है कि अपने सामने कोई दूरगामी लक्ष्य रहे और यहाँ तक पहुँचने के लिए सोचने और करने के लिए बहुत कुछ काम सामने रहे। जीवन का आनन्द तभी तक है जब तक उसने सामने कुछ काम है। जिस दिन व्यक्ति पूर्णतया निश्चित होता है उस दिन या तो वह परमहंस होता है या जड़ मध्यवृत्ति के व्यक्ति के लिए यह स्थिति निरानन्द है और उसमें निराशा एवं निष्क्रियता मिश्रित थकान की ही अनुभूति होगी। उसे सोचना या करना भले ही कुछ न पड़े पर साथ ही आशा एवं तत्परता की ओर प्रेरित करने वाले उल्लास भरे प्रकाश से वंचित ही रहना पड़ेगा

जिम्मेदारियाँ दूसरों पर डालने की इच्छा इसलिए होती है कि उत्तरदायित्व का वजन उठाना कायर और कमजोरों को बहुत भारी प्रतीत होता है। वे पगडंडी ढूँढ़ते हैं और ऐसे सरल रास्ते बच निकलने की बात सोचते हैं जिसमें अपने ऊपर कुछ बोझ न पड़े पर वस्तुतः इसमें भटकाव के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। उत्थान और पतन का ही नहीं।, सुख और दुःख का उत्तरदायित्व भी हमें अपने ऊपर लेना चाहिए और सफलता असफलता की अपनी ही जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं है। वर्तमान में जो परिस्थितियाँ सामने खड़ी है उनमें यत्किंचित् दूसरे भी निमित्त हो सकते हैं पर अधिकतर अपनी ही रीति-नीति और गतिविधियों की प्रतिक्रिया सामने रहती है। भविष्य में भी जो कुछ होना या बनना है उस में भी अपने ही क्रिया-कलापों के प्रतिफल सामने होगे। दूसरों का सहयोग अवरोध एक सीमा तक ही हमारा भला बुरा कर सकता है। तथ्य यह है कि अपना व्यक्तित्व ही हर दिशा में प्रतिध्वनि की तरह गूँजता है।

किन्हीं असफलताओं के लिए दूसरों को दोष देने की अपेक्षा यह अधिक लाभदायक है कि हम अपनी उन त्रुटियों को ढूँढ़े जिनके कारण सफलता से वंचित रहना पड़ा इसी तरह प्रगति की दिशा में जितने कदम बढ़ सके उनके पीछे उस सुव्यवस्थित रीति-नीति को समझे जिसे अपना कर हम स्वयं ही नहीं और भी कितने ही लोग आगे बढ़ सकने में समर्थ हुए हैं। सद्गुण ही किसी को ऊँचा उठा सकते ओर आगे बढ़ा सकते हैं। यह रहस्य जिन्हें विदित हो सका वे अपने को परिष्कृत करने में जुटते हैं ताकि एक के बाद दूसरी उत्कर्ष की परतें खुलती चलें।


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