प्रत्यक्षवादी मान्यताएँ भी सर्वथा सत्य कहाँ है?

January 1973

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प्रत्यक्षवादी भौतिक विज्ञान को आदि बुद्धिजीवी वर्ग में सघन मान्यता मिली है। हर बात प्रत्यक्ष की कसौटी पर कसी जाती है और यह देखा जाता कि जो कहा जा रहा है वह इन्द्रियगम्य और बुद्धिगम्य है या नहीं? इस कसौटी पर अध्यात्म और धर्म जब कसे नहीं जा सकते तो कहा जाता है कि अध्यात्मवाद आस्तिकता एवं धर्म धारणा मिथ्या है।

श्रद्धा और तत्व चिंतन को झुठलाते समय बुद्धिवादी यह भूल जाते हैं कि जिस तर्कवाद - और प्रत्यक्षवाद को माध्यम बनाकर वे सत्य की परख करने चले है, वह आधार भी कम लचर नहीं है। उसमें आये दिन परिवर्तन होते रहते हैं। इतना ही नहीं जो कुछ देखा समझा जाता है वह भी कदाचित ही सर्वथा सत्य होता है।

सूर्य का प्रकाश तब चमकता है जब धरती के इर्द-गिर्द वायुमंडल एवं धूलि किरणों से इसकी किरणें टकराकर तिरछी चलती है। वायुहीन शून्य आकाश में सूर्य किरणें चलती ही है पर प्रकाशित नहीं होती। प्रकाश का प्रकटीकरण तब होता है जब उसके टकराने के लिए कुछ माध्यम मिले।

आवश्यकतानुसार अन्तरिक्ष में प्रकाश उत्पन्न करने के लिए कुछ वैज्ञानिक उपकरण प्रस्तुत करने पड़ते हैं। फिर भी पृथ्वी पर जिस तरह प्रकाश में हर वस्तु सभी तरह दीख पड़ती है वैसा अन्तरिक्ष में नहीं होता। वहाँ कुछ का कुछ दीखने की कठिनाई बनी रहती है।

प्रकाश एक सेकेण्ड में एक लाख छियासी मील की चाल से चलता है और इस चाल से सूर्य के प्रकाश को हम तक आने में आठ मिनट लग जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि हम सूर्य की वास्तविक स्थिति को कभी भी नहीं देखते, वरन् उसे आठ मिनट पहले वाले ही स्थिति देख पाते हैं। यह भ्रम अधिक दूरवर्ती तारों के बारे में और भी बढ़ता जाता है। उनमें से कोई-कोई तो ऐसे है जो सैकड़ों वर्षों पूर्व अपना अस्तित्व तक समाप्त कर चुके, मर गुजर गये, किन्तु उनका प्रकाश तब से चलकर अब कही पृथ्वी पर आ पहुँच आ रहा है, इसलिए वे अभी भी उगते अस्त होते दीखते हैं।

विशिष्ट कोणों पर रखी गई कुछ वस्तुएँ तो अन्तरिक्ष में उत्पन्न किए गए कृत्रिम प्रकाश में बिलकुल ही गायब हो जाती है। कुछ विचित्र प्रकार की दीखती है। बड़े-बड़े गोले छोटी बिन्दी जितने लगते हैं, एक बड़ा कटोरा झुकी हुई लकीर जैसा लगता है। बेलनाकार मोटी छड़ें - समानांतर रेखाओं में फैलती सिकुड़ती और अदृश्य होती प्रतीत होती है। अन्तरिक्ष में उत्पन्न प्रकाश कई बार इतना चमकीला होता है कि नंगी आँखों से देखने पर मनुष्य आँखों से अन्धा तक हो सकता है। किसी वस्तु के हर पक्ष को देखने के लिए कई दिशाओं से यदि प्रकाश पैदा न किया जाये तो फिर उसका स्वरूप ठीक से समझा या देखा ही न जा सकेगा। गैलीलियो ने यह सिद्ध किया था कि पृथ्वी घूमती है और सूर्य स्थिर है। इससे पूर्व लेक्शन के मतानुयायी पृथ्वी को स्थिर और सूर्य का चक्कर लगाता हुआ मानते थे। फिर यह माना जाने लगा कि पृथ्वी और सूर्य दोनों ही घूमते हैं। बाद में यह सुधार और जोड़ दिया गया कि समस्त सौरमण्डल एक महासूर्य की परिक्रमा करता है। इतना ही नहीं ऐसे-ऐसे असंख्य महासूर्य एक ध्रुव तारे की प्रदक्षिणा करने में संलग्न है। अभी यह खोजा जाना शेष है कि ब्रह्माण्ड का ध्रुव केन्द्र अब की मान्यता की अनुसार स्थिर है अथवा वह भी आकाशस्थ तारा समूह के साथ किसी अज्ञात लक्ष्य की ओर दौड़ा जा रहा है।

सत्रहवीं शताब्दी में न्यूटन व हाइजन ने प्रकाश की प्रकृति पर अलग-अलग दो नियम बताये। न्यूटन के सिद्धान्त के अनुसार प्रकाश की किरणों में छोटे-छोटे कण होते हैं तथा वे कण जब आँखों की पुतली ‘रेटिना’ से टकराते हैं तो हमें प्रकाश का ज्ञान होता है। हाइजन के सिद्धान्तानुसार प्रकाश में छोटी-छोटी तरंगें - वैव्स- होती है जो प्रकाश किरण -‘बीम’ - के साथ-साथ में आगे बढ़ती है। दोनों ही सिद्धान्त एक दूसरे से भिन्न है। अठारहवीं सदी में न्यूटन का निष्कर्ष और उन्नीसवीं सदी में हाइजन का सिद्धान्त सही माना गया। आज इन दोनों सिद्धान्तों पर भी कई और नये विचार भी रखे गये है। मूर्धन्य वैज्ञानिक इन दिनों यह आशा करते हैं कि निकट भविष्य में आधुनिक मान्यता की अपेक्षा अधिक सही सिद्धान्त प्रकाश के सम्बन्ध में सामने आने वाला है।

वस्तुतः सभी प्रतिपादन अपने समय के पूर्ण सत्य है। क्योंकि तब की परिस्थितियों के अनुसार इतना ही सोचा जा सकना और निष्कर्ष निकाला जा सकना संभव था। मनुष्य जाति की ज्ञान भूमिका क्रमशः इसी प्रकार विकसित होती चली आयी है और एक -एक करके पूर्ण सत्य की प्राप्ति की दिशा में चलने का क्रम जारी रहा है। जितनी मंजिल पार कर ली गई अभी उससे बहुत अधिक चलना शेष है। इसे यथाक्रम ही पूरा किया जा सकेगा। हमें अधिक परिष्कृत ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने मस्तिष्क के द्वार खुले रखने चाहिए। यह आग्रह कभी भी नहीं करना चाहिए कि जो कुछ जाना समझा गया है वही पूर्ण या पर्याप्त है।

अनेक वैज्ञानिक मान्यताएँ ऐसी है जो भूतकाल में अपने समय की सर्वोत्तम और निर्भ्रान्त मान्यताएँ समझी जाती थी, पर अब विज्ञान ने प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते हुए उन्हें भ्रान्त सिद्ध करके झुठला दिया है।

किसी समय सौरमण्डल का केन्द्र पृथ्वी को माना जाता था। 2. तारों का भौतिकीय स्पेस किसी समय सिकंदर काल के रेखा गणितज्ञ ‘यूक्लिड’ के अनुसार माना जाता था 3. गृह नक्षत्र मनुष्यों के जीवन तथा देश काल को प्रभावित करते हैं। 4. पृथ्वी चपटी है। 5. पृथ्वी कुछ हजार वर्श ही पुरानी है। 6. ऊपर से गिराने पर हलकी वस्तुओं की अपेक्षा भारी वस्तुएँ जल्द नीचे गिरेगी। 7. कोई वस्तु तभी गति करेगी जब उस पर कोई बल लगाया जायेगा। 8. ब्रह्माण्ड की समस्त संहति (दी टोटल एकाउण्ट आफ मास इन दी यूनीवर्स) स्थिर है। 9. पदार्थ ऊर्जा में नहीं बदल सकता। 10. प्रकृति शून्य का अस्तित्व नहीं रहने देना चाहती, उसे भरने दौड़ती है। 11. जीवों की किस्में अपरिवर्तनीय है। 12. पानी और हवा स्वतन्त्र एवं अविनाशी तत्व है। 13. परमाणु पदार्थ की सबसे छोटी और विखण्डित होने वाली इकाई है।

तर्क और प्रमाण की- प्रत्यक्ष अनुसंधान की आवश्यकता एवं उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। पर यह मान बैठना कि” जो कुछ इस परिधि से बाहर है वह सब कुछ मिथ्या है- उचित नहीं इस आधार पर तो यह सिद्ध कर सकना भी कठिन है कि जिन्हें हम पिताजी कहते हैं क्या वे सचमुच वे ही हमारे वास्तविक जन्मदाता है।

हमें एक सीमा तक ही प्रत्यक्षवाद को मान्यता देनी चाहिए। उच्चस्तरीय आदर्शवादिता, नीति, निष्ठा की तरह अध्यात्म और धर्म के सिद्धान्त भले ही इन्द्रियगम्य न हो पर उनने परिणाम प्रतिफल देखते हुए यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जाना चाहिए कि वे न तो प्रत्यक्ष है और न ही अविश्वस्त


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