माँ की कृपा के अनुभव

July 1954

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(श्री छित्रपाल जोशी, सीकर)

उपवीत संस्कार होते ही मेरी भगवती गायत्री के प्रति स्वाभाविक श्रद्धा हो गई, अध्ययन की अवस्था थी, इसलिए विशेष न कुछ कर ही सकता था न विशेष जानकारी ही थी, उस समय मैं बनारस राजस्थान संस्कृत कालेज का स्नातक था, उस समय प्रातः 4 बजे उठकर शौचादि से निवृत्त होकर गंगाजी जाता और स्नान संध्या करके केवल 10 मालाएँ जपता। फिर आकर अपने पठन पाठनादि कार्यों में लग जाता, उस समय घर की परिस्थिति उतनी अच्छी न होने के कारण आर्थिक कमी का अनुभव हुआ करता था। जब विशेष कमी का अनुभव हुआ तो मन ही मन में माँ से प्रार्थना होने लगी, और दो ही दिन बीते कि 1 आदमी अक्सर से चला हुआ आया। आकर हमारे अध्यक्ष जी से बोला शतचण्डी के लिये दो पण्डितों की आवश्यकता है मेरे ऊपर कोई विशेष स्नेह अध्यक्ष का नहीं था फिर भी मुझे तथा एक मेरे अन्य मित्र को भेजा गया और हम लोगों से समागत महानुभाव को सन्तोष भी पूर्ण रूप से हो गया।

हम लोगों ने वहाँ जाकर अन्य पण्डितों के साथ 10 रोज पाठ किया और समाप्ति के रोज 10) रोज के हिसाब से 100) और अन्य वस्तुएं भी प्राप्त की जिससे परीक्षा आदि का व्यय सुचारु रूप से निकल गया, उस समय बनारस जैसे नगर में पण्डितों की कोई कमी नहीं थी। किन्तु भगवती ने हमें कुछ आर्थिक सहायता देनी थी। विशेष क्या तब से आज तक आर्थिक कष्ट का अनुभव नहीं किया। इस छात्रावस्था में और भी कई ऐसे अनुभव हुए जिनका प्रकाशन करना गुरुदेव ने मना कर दिया।

फिर अध्ययन समाप्त करके काम करना शुरू कर दिया और उपासना का काम ढांचे पर चलता रहा ही। मैं यह भी कभी अनुभव करता रहा कि बिना सद्गुरु के उपासना उतनी लाभदायक नहीं होती। तान्त्रिक शिक्षा दीक्षा की मुझे विशेष इच्छा थी। ज्यों-ज्यों समय बीता लगन भी बढ़ी। अभी जो कृष्ण पक्ष में ग्रीष्मावकाश होने के कारण हरिद्वार ऋषिकेश का विचार करके मैं तथा माता जी एक घनिष्ठ मित्र के साथ इस आशा में चल पड़े कि सम्भव है हिमालय में किन्हीं गायत्री के अनुभवी महात्मा के दर्शन हों और उनकी सहायता से कुछ सहारा मिले।

ऋषिकेश पहुँचकर अनेक लोगों ने पूछा कि यहाँ कोई गायत्री उपासक सन्त भी हैं क्या? किन्तु सन्तोषजनक उत्तर न पाकर चित्त में बड़ी निराशा होने लगी कितने ही दिन ऐसे ही बीत गये। 1 दिन बाबा काली कमली वाले के क्षेत्र में किसी अनुभवी सज्जन से भेंट हुई और अपनी बातों के क्रम में ही उनने बताया कि यहाँ गायत्री स्वरूप नाम के एक अच्छे गायत्री उपासक महात्मा हैं।

मैंने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया और दूसरे रोज नीलकण्ठ भ्रमण का विचार किया जो स्थान गीता भवन से 7 मील की चढ़ाई पर है। दो साथी उत्तर प्रदेश के थे? मैं था तीनों मित्र प्रातः 5 बजे रवाना होकर 8॥ बजे पहुँचे। वहीं जाकर स्नान किया भोजन की व्यवस्था करके, एक अतिथि को भिक्षा देकर भोजन किया और कुछ देर आराम करके इधर उधर घूम रहे थे। इतने में एक महात्मा जिसके साथ दो गृहस्थ आते हुए दिखाई दिए, समीप आने पर प्रणाम किया। उन महात्मा जी ने मेरी तरफ एक दफा दृष्टि डालकर देखा और कहा, स्वर्गाश्रम में हमारी कुटिया में आना मैंने उसी समय विचार लिया कि माँ की कोई विशेष कृपा हुई है। मैंने जब एक आदमी से पूछा तो मालूम हुआ महात्मा गायत्री स्वरूप जी आप ही हैं। दूसरे रोज उसकी शरण में गया संतप्त हृदय को शान्त किया, जो मेरी इच्छाएँ थीं सब पूर्ण हो गई, शंकाओं का निपटारा हो गया मेरी तान्त्रिक साधना की इच्छा थी वह भी पूर्ण हो गई। अधिक क्या लिखूँ वहाँ मैंने सर्वस्व पाया।


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