(श्री सेवाराम कौशल खलघाट म. भा.)
आज से पूर्व मुझे जितना निर्दयी, कठोर कहा जाय, उतना ही कम होगा। मेरा स्वभाव बहुत गर्म तथा साम्प्रदायिक विचारधारा होने से मैं “सेनापति” कहलाता था। जहाँ तहाँ लोग मुझे सेनापति के नाम से पुकारने लगे। घर से लेकर बाहर तक सगे संबंधी सभी मुझे क्रोधी तथा गर्म स्वभाव का जानकर मुझसे भय खाते थे और मुझे किसी प्रकार का सहयोग नहीं देते थे तथा मैं भी अपने गर्म स्वभाव के कारण उन्हें कुछ नहीं समझता था, यदि वास्तव में देखा जाय तो, मेरे सगे सम्बन्धी, भाई बन्धु सभी अच्छे विचारधारा के होकर प्रतिष्ठित पुरुष हैं, लेकिन मैं क्रोध रिपु के अधिकार में होने से उनका बैरी बना हुआ था।
जब आज से मुझे गायत्री माता ने अपनी गोद में लिया, मैं रो रोकर माँ माँ पुकारता रहा, पागल सा फिरता फिरा, इधर उधर मारा मारा फिरने लगा सबके पास जाकर, दया की भीख माँगने लगा। पहले तो वह मुझ से भय खाने लगे परन्तु ऐसा परिवर्तन उन्हें आश्चर्य हुआ। और सोचने लगे कि यह कहीं पागल तो नहीं हो गये-वेदमाता से सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती। जब सद्बुद्धि का प्रकाश मेरी आत्मा में आ गया तो वहाँ अज्ञान अन्धकार कैसे रह सकता है। तथा मेरी सच्ची पुकार को कौन नहीं सुन सकता था। सबको मुझ पर भरोसा हुआ तथा इस प्रकार बदली हुई परिस्थिति को देखकर, सबको आश्चर्य हुआ तथा मेरा सारा परिवार गायत्री उपासक हो गया और मुझे सहयोग प्राप्त होने लगा।
जब मैं गायत्री तपोभूमि की पुण्य प्रतिष्ठा के समय मथुरा गया और पूज्य गुरुदेव आचार्य जी के दर्शन किये, मानों मेरा हृदय उस वेदमाता के सुपुत्र, आपका याज्ञवलक्य तपस्वी महापुरुष के दर्शन से जगमगा गया, और मैंने अपना पुनीत जीवन समझा, बस यहीं मेरा लक्ष्य, उद्देश्य एवं प्रधान कर्त्तव्य था और यही से मेरा कायाकल्प आरम्भ होता है।
मेरे गुण, कर्म, स्वभाव में भारी परिवर्तन हुआ। मैं कठोर से नम्र हो गया, कुटिल से दयालु हो गया, काम और क्रोध पर पूरी तरह विजय पा लिया है।
कहने का तात्पर्य यह है कि मेरे, मन वचन और कर्म में सात्विकता आ गई और उसी के अनुसार अपना जीवन बनाने लगा। मेरे व्यवहार और कर्म को देखकर मेरी धर्मपत्नी ने भी इस उत्तम मार्ग को अपनाया और वह भी लाभान्वित हुई। इसका विशेष विस्तृत वर्णन वह स्वयं अलग से करेंगी।
मैंने एक पुरश्चरण किया उस समय मुझे दिव्य ज्योति के दर्शन हुए थे। इस पुरश्चरण के पूर्व मेरे घर कभी भी ब्राह्मणों का पदार्पण नहीं हुआ था। न कभी कोई शुभ कार्य ही हुए थे। इस वेदमाता की असीम कृपा से अच्छे-अच्छे विद्वान, पण्डित, गुणी, साधु महात्मा मेरी झोंपड़ी पर आते हैं तथा उनका स्वागत करके अपने को बड़ा भाग्यशाली अनुभव करता हूँ।
मैंने अपना व्यापार भी हविष्यान्न (चावल) बेचने का रखा है इसमें मेरी जीविका चलती है और हम आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। हमारा अधिकाँश समय माता की सेवा, उपासना और प्रचार में ही बीतता है। मैं, मेरे सहयोगी बन्धु तथा मेरे अनुभव के पाठकों से निवेदन करता हूँ कि वे वेदमाता की उपासना करें, क्योंकि पुत्र को सच्चा सुख माता की गोद में ही मिलता है।
उपासना अनुभव का सार- वेदमाता की उपासना मनुष्य को कुमार्ग से सुमार्ग पर लाने में जादू का सा असर करती है, एक बार अनुभव करके देखें।