गायत्री माता की शाँतिदायक गोद

July 1954

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(श्री जगदीश दत्त जी श्रोत्रिय, बिजनौर)

बहुत दिन की पुरानी बात है। मेरे हाथ अकस्मात् सुन्न हो गये। सुई चुभोने पर भी दर्द न होता था, हाथों की क्रियाशक्ति कुँठित हो चली, मैं बहुत घबराया। डॉक्टर और वैद्यों ने रोग की भावी भयंकरता को बढ़ा-चढ़ा कर चिंतित किया तो मैं घबरा गया। एक विज्ञ महानुभाव ने मुझे 24 लक्ष गायत्री जप का अनुष्ठान करने की सलाह दी। मैं श्रद्धा और तन्मयता के साथ उसे पूर्ण करने में लग गया। माता की कृपा से वह रोग कुछ ही दिनों में बिल्कुल अच्छा हो गया।

कहते हैं कि गायत्री उपासकों की सन्तान सुखी रहती है और फलती फूलती है। इस बात को भी मैंने अपने व्यक्तिगत अनुभव से सही पाया है। अनेक झंझटों में फँसे रहने तथा आर्थिक तंगी रहने पर भी दो पुत्र, पुत्र वधू, कन्या, सभी एम. ए. पास किये हैं। बड़ा लड़का जप पूर्ण होने से पहले ही 200) का नौकर हो गया। दूसरे की वकालत शनैः-2 उन्नत हो रही है। कन्या एम॰ ए॰ के बाद पी0 एच0 डी0 की तैयारी में लगी हुई है।

काफी दिन हो गये मेरे विरुद्ध एक मुकदमा चल रहा था। जज ने मेरे वकील को यह सूचना दे दी भी कि फैसला मेरे विरुद्ध निश्चित किया गया है। मैं इस सूचना से बड़ा चिंतित हुआ और अपने एकमात्र अस्त्र-उपासना में जुट गया। 3-4 दिन बाद फैसले की तारीख थी। अदालत में पहुँचने पर देखा कि जज का विचार बिल्कुल बदल गया है और उसने पूर्व सूचना के बिल्कुल प्रतिकूल मेरे पक्ष में ही फैसला दिया।

मेरी कन्या जिसने एम॰ ए॰ कर लिया है उसके लिए वर ढूँढ़ने की बड़ी चिन्ता रहती थी। लगातार 6 वर्ष से यही एक कार्य था किन्तु जहाँ जाता वहीं असफलता मिलती। निराश होकर एक गायत्री अनुष्ठान करने की ठानी। उसका परिणाम आशातीत हुआ। आशातीत योग्य वर मिला। जो डबल एम॰ ए॰ और पी0 एच0 डी0 हैं। शिक्षा के लिए जर्मन जाने की तैयारी वर मिला है। इस अर्थ लोलुप युग में मुझसे दहेज के लिए एक पैसे की माँग नहीं की गई और शादी बड़े आनन्दमय वातावरण में सम्पन्न हो गई।

अनुष्ठान की पूर्ति पर यज्ञ करने के लिए जैसे कि अर्थाभाव के कारण चिन्ता हो रही थी। तारीख 26-4-54 को अचानक कल्पनातीत स्थान से ठीक अनुमानिक व्यय को पूर्ण करने वाली रकम का बीमा आ गया। जो माता की कृपा के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। ऋण लेने की तैयारी थी, माता ने लज्जा रख ली मैं गदगद हो गया।

एक बार मैं घोर घने जंगल में फँस गया। सिंह सूअर आदि से जंगल पूर्ण था। वर्षा हो रही थी, रात अँधेरी थी, मैं अकेला था। उस भयंकर वातावरण में दिल धड़क रहा था, प्राण रक्षा के लाले पड़ रहे थे। गायत्री माता को पुकारने के अतिरिक्त और कोई उपाय दिखाई न पड़ता था। भय संत्रस्त स्थिति में मन ही मन माता को पुकारता हुआ आगे बढ़ रहा था कि आश्चर्य की तरह एक ताँगा उधर आ पहुँचा और मुझे बिना किराये बिठाकर मेरे स्थान पर पहुँचा आया। उस स्थान पर उस समय ताँगे का पहुँचना और ऐसे घने जंगल में से पार निकालना एक प्रत्यक्ष दैवी कृपा ही थी।

मेरे गायत्री उपासना के अनुभवों में से कुछ यह हैं। माता का अंचल पकड़ने वाले को क्या नहीं मिल सकता? सब कुछ मिल सकता है।


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