गायत्री उपासना के कुछ अनुभव

July 1954

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(श्री व्यंकटेश दयाराम शर्मा, खलघाट म.भा.)

मेरे लिए दुनिया में जितने सहयोगी, प्रेमी, कुटुम्बी, सेवा भावी, मित्र और अधिकारी, जो कुछ कहा जाय, सब मेरे गुण, धर्म और स्वभाव से विपरीत थे, और आज तक हैं। मैं उसे समय विचारता था कि भगवान ने मुझे ऐसा अभागा क्यों पैदा किया जो संसार में मेरा कोई नहीं और न मैं, किसी को अपना कह सकूँ ऐसा भी कोई नहीं है।

लेकिन उस परिस्थिति में भी मैं चुप रहा और जैसे-तैसे अपना समय व्यतीत करता रहा, मैं सोचता कुछ था होता कुछ था, भगवान की इच्छा बड़ी प्रबल होती है। जिसका कोई सहायक नहीं उसे भगवान का सहारा होता है। यही पूर्वानुभव जो महापुरुषों ने निर्धारित किया है, उसी के आधार पर मुझे भी भगवती वेदमाता गायत्री का आश्रय मिला और उसके द्वारा मेरे गुण, कर्म और स्वभाव में परिवर्तन- होकर मेरी उन्नति का मार्ग खुला। कल मैं आशा करता था आज मेरी आशा करते हैं, पिछली परिस्थिति को मैं धन्यवाद देता हूँ, कि अच्छा हुआ जो मुझे किसी ने सहारा नहीं दिया, अन्यथा आज मुझे उनका ऋणी रहना पड़ता तथा यह उच्चकोटि की साधना प्राप्त होती या नहीं।

गायत्री जप के लाभ :-

1- गुरुदेव के प्रति अपार श्रद्धा तथा उनके द्वारा मार्ग प्रदर्शन।

2- दैवी आत्मबल प्राप्त दूरदर्शिता और सहयोग की प्राप्ति।

3- पत्नी के कठिन रोग से छुटकारा।

4- मृत पुत्र को जीवन दान और उसके विचित्र चमत्कार।

5- नौकरी में विरुद्ध जनता के प्रति सफलता।

6- आर्थिक स्थिति का उचित सुधार।

7- नाव दुर्घटना में नवजीवन मिला।

8- गृहों की वक्र दृष्टि में मानसिक शान्ति बनी रहना।

9- असम्भव कार्य भी सम्भव होते देखे गये।

उपरोक्त बातों के अतिरिक्त और छोटे-मोटे कई व्यक्तिगत अनुभव हुए, परन्तु इन बताये हुए संकेतों के पीछे महत्वपूर्ण इतिहास एवं रहस्य है जिनका विस्तृत वर्णन फिर कभी किया जावेगा।

इस उपासना के प्रति मेरी अपार श्रद्धा है और मेरे जीवन में और प्रतिदिन के कार्यक्रम में इसका विशेष स्थान है। इसके फलस्वरूप मैं अपनी साधारण परिस्थिति को बड़े ही सुन्दर ढंग से संचालन कर रहा हूँ।

आत्मबल बढ़ जाने से कई नए नए विषयों का ज्ञान प्राप्त हो गया है।

हमारे यहाँ प्रतिदिन अग्निहोत्र होता है, इससे हमारा आनन्द और बढ़ जाता है।

गायत्री माता की शरण में आने पर मुझे कई सिद्ध पुरुषों की भी कृपा प्राप्त हुई। उनमें से एक दो का परिचय इस प्रकार है :-

वालीपुर के महात्मा गजानंद जी का जन्म नार्मदीय कुल में एक साधारण ब्राह्मण के घर में हुआ था, ये साधारण पिता की सन्तान होने से इनकी शिक्षा दीक्षा तो विशेष नहीं हुई, लेकिन अकस्मात अनुभवी योग्य सद्गुरु की प्राप्ति हो जाने से, इनके मन में भगवती की उपासना का अंकुर जग गया और उनके दर्शाये मार्ग से सब कुछ छोड़कर, तपश्चर्या करने लग गये।

इनका प्रतिदिन का कार्यक्रम है कि प्रातः 3 बजे रात्रि से जल में खड़े होकर गायत्री का जप किया करते हैं और तीन बजे दिन तक हवन, पाठ आदि से निवृत्त होते हैं। अन्न आहार कई दिनों से नहीं किया है फलाहार पर रहते हैं। इस तपश्चर्या के प्रभाव से आज ये इच्छाचारी महात्मा हो गये हैं। क्षण भर में जहाँ जाना चाहें चले जाते हैं और वापिस भी आ जाते हैं। इनकी मढ़ी 1 एकड़ के क्षेत्र में बनी है जहाँ ये 15 वर्ष से तपश्चर्या कर रहे हैं। इनके हवन कुण्ड में 8-10 साल से अग्नि नहीं बुझी है नवरात्रियों में प्रतिवर्ष सवालक्ष गायत्री मन्त्र से आहुतियाँ दी जाती हैं।

हजारों दर्शक आते हैं उनकी भोजन व्यवस्था आदि मढ़ी पर ही होती है। महाराज अपनी मढ़ी छोड़कर कही नहीं जाते हैं और सब व्यवस्था हो जाती है।

सन्त हरीहर जी नागझिरी-जाति के गुजराती ब्राह्मण हैं। गृह कलह और मानसिक अशान्ति से विवश होकर इन्होंने गृह त्याग दिया, और सच्ची शान्ति की खोज में फिरने लगे। कई देवी देवताओं की सतत् उपासना करते रहे, लेकिन जिस प्रकार से अपना जीवन बनाना चाहते थे वैसा ही बना सके। अन्त में श्रवण करते करते जमदग्नि आश्रम परशुराम कुण्ड आये और वहाँ इनका एक महात्मा से परिचय हुआ और उनको इन्होंने अपनी व्यथा सुनाई, तब महात्मा जी ने कहा यदि तुम्हें शान्ति शीघ्र प्राप्त करना है तो गायत्री का जप करो। इनके ध्यान में वह बात जम गई कि ब्राह्मण को बिना गायत्री के किसी भी प्रकार सफलता नहीं मिल सकती है। ऐसा निश्चय करके ये औंकारेश्वर क्षेत्र में आये, वहाँ उन्होंने गायत्री की तपश्चर्या की। उसके आश्चर्यजनक अनुभव प्राप्त हुए और इन्हें सच्ची शान्ति प्राप्त हुई। आजकल ये मौन हैं।


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