गायत्री तीर्थ की आवश्यकता

July 1951

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(श्री गरीबदास जी नरखेड़)

यह एक बड़ा खटकने वाला अभाव है कि हिन्दु मात्र की परम आराध्य महाशक्ति गायत्री का कोई प्रधान तीर्थ नहीं है। छुटपुट मन्दिरों के अतिरिक्त कोई ऐसा गायत्री केन्द्र नहीं है जिस पर समस्त गायत्री उपासकों की श्रद्धा केन्द्रित हो।

सुनते हैं कि मथुरा गायत्री की सिद्ध पीठ है। उस पुण्य भूमि में सब ऋषियों ने तप करके सिद्धि पाई थी। वहीं राजा बलि ने वह प्रसिद्ध गायत्री यज्ञ किया था जिसके पुण्य फल को विष्णु को वामन रूप बना कर उसे छलना पड़ा था। महर्षि दुर्वासा ने तप करने के लिए भूमि का अनु संचालन करते हुए इसी क्षेत्र को चुना था। भगवान निश्चय हो गायत्री उपासना के लिए स्थल इतना शक्ति सम्पन्न है कि सफलता बहुत शीघ्र मिलती है।

मथुरा, गायत्री केन्द्र तीर्थ अति प्राचीन काल से रही है। उसे अखण्ड ज्योति द्वारा भी आलोकित किया जा रहा है। ऐसी पुण्य भूमि में केन्द्रीय गायत्री तीर्थ स्वभावतः ही उपयुक्त हो सकता है। परन्तु खेद है कि किसी समर्थ व्यक्ति का ध्यान अभी तक इस ओर नहीं गया है। आचार्य जी की यह कमजोरी ही कही जायगी कि उन्होंने अपने संकोची स्वभाव के कारण किन्हीं सामर्थ्यवान् व्यक्तियों को अब तक प्रेरणा या प्रोत्साहन नहीं दिया। अन्यथा अब तक वह तीर्थ कब का बन गया होता। सिद्ध पीठ का भूमिगत महत्व और आचार्य जी का अनुभवपूर्ण पथप्रदर्शन इन दो कारणों से अनेक साधक मथुरा रहकर अपनी साधना करना चाहते हैं पर ऐसी सुविधा प्राप्त करने से बहुधा साधकों को वंचित ही रहना पड़ता। कारण यह है कि अखण्ड ज्योति का प्रेस, दफ्तर एवं आचार्य जी का परिवार जिस छोटे से भाड़े के मकान में रहता है उसमें इतनी गुँजाइश नहीं है कि साधकों का भी रहना उसमें हो सके धर्मशालाओं की भीड़ और तीन दिन से अधिक न ठहरने का प्रतिबंध साधकों के लिए सुविधाजनक नहीं होता। बाहर से पहुँचने वाला व्यक्ति भोजन व्यय तो स्वयं कर सकता है पर साधना काल में ठहरने की व्यवस्था स्वयं नहीं कर सकता। निराश होकर उसे लौटना पड़ता है। इस कठिनाई के कारण पचासों व्यक्ति गायत्री तप करके आत्म कल्याण के महत्वपूर्ण ज्ञान से वंचित रह जाते हैं।

इस स्थिति पर मुझे बड़ा दुःख होता है। देश में अनेक धनी मानी व्यक्ति अनुपयुक्त स्थानों पर कूप, तालाब, बगीचे मन्दिर, शिवालय बनवाते हैं। नाम का पत्थर उन पर लगा कर वे संतोष कर लेते हैं पर उनसे लाभ उठाने वाले इने-गिने लोग होते हैं थोड़े दिन बाद उनकी मरम्मत और सफाई तक नहीं होती वे यों ही टूट-फूट जाते हैं। दूसरी ओर एक अत्यन्त आवश्यक कार्य के लिए छोटी सी ऐसी तपोभूमि का अभाव है जिसमें आत्म कल्याण के अभिलाषी व्यक्ति चालीस दिन बैठ कर तपस्या कर सकें।

उचित अवसर का उपयोग करने वाले कोई विरले ही होते हैं। दिल्ली और मथुरा के बिड़ला मन्दिरों ने बिड़ला सेठ के यश को देश भर में फैला दिया है। यद्यपि मथुरा और दिल्ली में उनकी अपेक्षा बहुत अधिक लागत के अन्य मन्दिर मौजूद हैं। पर उनके नाम तक किसी को विदित नहीं और यह बिड़ला मन्दिर है जो देश के कोने-कोने में विख्यात हैं। यह निश्चित है मथुरा में एक गायत्री तीर्थ की स्थापना होगी एक तपोभूमि तथा उपासना का गृह थोड़े ही दिनों में निर्माण होगा पर उसका श्रेय किसी बड़भागी को ही मिलेगा। ऐसा तीर्थ निर्माण करना जहाँ गायत्री का ब्रह्म विद्यालय, प्रचार केन्द्र, जप, तप, साधारण पुण्य नहीं। उस स्थान में होने वाले धर्म फलस्वरूप जन्म जन्मांतरों तक सद्गति का यह अधिकारी हो सकता है। यश और कीर्ति का जो देश व्यापी विस्तार होगा उसके सम्बन्ध में तो कुछ कहना ही नहीं है।

धन चलती फिरती छाया की तरह है। आज के धन कुबेर को कल दरिद्र बनते देर नहीं लगती। धनी बनना उसी का सार्थक है जो उसका सदुपयोग कर लेता है। ऐसे कार्यों में लगाया हुआ धन ईश्वरीय बैंक में जमा कर देना है जिसका न्याय जन्म जन्मांतरों तक मिलता रहता है। अपना या अपने किसी स्वर्गीय प्रियजन का स्मारक कीर्ति स्तंभ बनाने का इससे अच्छा सुयोग मिल सकना कठिन है।

यह तीर्थ छोटा सा भी बन सकता है। पन्द्रह बीस हजार की लागत से एक छोटा गायत्री मन्दिर और दस पन्द्रह तपस्वियों के ठहरने लायक कुटिया उसमें बन सकती हैं। विद्यालय, पुस्तकालय औषधालय के लिए छोटे 2 स्थान उसी में निकल सकते हैं। कोई सज्जन मिलकर भी इसे बना सकते हैं। कोई सज्जन अपने प्रभाव का उपयोग करके दूसरों द्वारा इस कार्य को सम्पन्न करा सकते हैं। जो इस दिशा में जितना ही सहयोग देगा वह उतना ही पुण्यार्जन करेगा।

गायत्री माता से, आचार्य जी से तथा गायत्री तथा गायत्री प्रेमियों से मेरी हार्दिक प्रार्थना है कि इस महान् आवश्यकता की शीघ्र ही पूर्ति होनी चाहिए।


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