साधना के प्रारम्भिक अनुभव

July 1951

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री गिरीशदेव वर्मा, बहरायच)

जब मैं पाँच वर्ष का था तभी पिता जी ने मुझे गायत्री शिक्षा देना आरम्भ कर दिया था। वे जहाँ संध्या करते थे तो मुझे पास बिठा लेते थे। अयोध्या ले जाकर उन्होंने मुझे एक महात्मा से विधिवत् मंत्र भी दिलवाया था। वे सब बातें मुझे अब भली प्रकार याद हैं।

समय बीता। गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया, कुछ दिन यों ही बीत गये। फिर दैवयोग से अपने ही एक ऐसे साथी सत्संग प्राप्त हो गया गृहस्थ होते हुए भी महात्मा तथा योगी थे। चार साल उनके साथ रहा। उनके सत्संग से आध्यात्मिक प्रेम जागृत हुआ। स्वाध्याय और साधना में रुचि बढ़ी। समय के कुचक्र से हम दोनों बिछुड़ गये उनकी बदली दूसरी जगह हो गई मेरी बदली दूसरी जगह।

परिस्थितियों के झंझावान जीवन नैया को बहुत थपेड़े दिये। और अन्त में सबसे बड़ा धक्का पुत्र शोक लगा। मेरा एक 18 वर्ष का पुत्र था जो बड़ा होनहार कुशल बुद्धि तथा योगी था। वह यक्ष्मा का शिकार हो गया। ऐसे सुशील युवक पुत्र के चल बसने से मेरा मन शोकाकुल रहने लगा, चित्त में निशदिन अशान्ति रहने लगी।

उन्हीं दिनों हमारे नगर में एक ताँत्रिक स्वामी जी आये उनकी काफी ख्याती थी। उन्होंने मुझे गायत्री जप का उपदेश दिया। उन्हीं दिनों गायत्री महाविज्ञान पुस्तक प्राप्त हुई। उसे पढ़कर अन्धकार में विद्युत प्रकाश चमक उठा। तब से मैं श्रद्धापूर्वक गायत्री उपासना कर रहा हूँ। अभियान का प्राण यज्ञ विधिपूर्वक रहा है।

आन्तरिक शान्ति और सात्विकता की वृद्धि के रूप में माता की कृपा का प्रत्यक्ष परिचय मुझे मिल रहा है। कई बार मुझे अनुभव हुए जिनसे यह प्रकट होता है कि माता का मंगलमय हाथ मेरे मस्तक पर रखा हुआ है।

मेरे दफ्तर का एक कर्मचारी कुछ वर्षों कागजों में गोलमाल करके गबन करता रहा। उसने दो एक महीने मेरे आधीन भी काम किया था। अन्त में वह पकड़ा गया और जिन-जिन लोगों के आधीन उसने काम किया था वे लोग भी अपराधी समझे जाने लगे, गोकि उस गबन से किसी अन्य का सम्बन्ध नहीं था। अनुष्ठान आरम्भ करने के बाद ऐसा सुनाई पड़ा कि मेरे ऊपर भी अभियोग चलेगा। चिन्ता बढ़ी किन्तु मैंने माता से अपना दुःख निवेदन किया।

एक दिन मैंने स्वप्न देखा कि एक विशालकाय मनुष्य मेरी हत्या करने आ रहा है। उसके हाथ में एक छुरा भी है। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं कि कर्त्तव्य विमूढ़ हो गया। इतने में एक दिव्य रूप वाली देवी आई और उस मनुष्य को पटककर पैर के दवा लिया, फिर मुझसे कहा- निर्भय चले जाओ। अब यह कुछ नहीं कर सकता। इतने में आँख खुल गई। इस स्वप्न का मैंने यह अर्थ लगाया कि माता ने उस अभियोग से मेरी रक्षा कर दी है। चूँकि अभी मामला विचाराधीन था अतएव यह बात मैंने किसी से प्रकट नहीं की। कई महीने बाद जब यह निश्चय हो गया कि मेरे ऊपर अभियोग नहीं चलेगा तब आज इस बात को लिख रहा हूँ। इस घटना के बाद माता के प्रति मेरी श्रद्धा अति बढ़ गई। मेरा दृढ़ विश्वास हो गया कि स्वल्प श्रम में फलदायिनी साधना गायत्री से बढ़कर और कोई नहीं है।

निर्भयता दिन दिन बढ़ रही है। ऐसा लगता है कि ऐसी शक्ति मेरे चारों ओर रक्षात्मक घेरा डाले हुए है। प्रातःकाल तीन बजे उठकर नदी तट के ऊँचे टीले पर साधना करने के लिए चल देता हूँ। रास्ते में कब्रिस्तान, ऊंचे-ऊंचे टीले, झाड़ी, साँप, बिच्छू, जंगली जानवर आदि अनेक भय के कारण हैं पर मैं उस भयानक निर्जन मार्ग पर पूर्ण निर्भयता के साथ चला जाता हूँ।

अभी मेरी साधना का शैशव है। मगर मुझे इतने में ही अनेकों लाभ हुए हैं। मन की चंचलता कम होकर विषयों में अरुचि उत्पन्न हो रही है। दैनिक जीवन आये दिन ऐसे अनुभव होते हैं कि अनेक बातें प्रतिकूल होते हुए भी अनुकूल हो जाती हैं। मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे मेरी श्रद्धा बढ़ेगी वैसे-वैसे कल्याण का मार्ग अधिक प्रशस्त होता जायगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles