(श्री शंभूचरण विश्नोई, वीरपुर)
पिता जी बड़े चतुर और बुद्धिमान थे। उनने अपने हाथों लगभग दस लाख की सम्पति कमाई थी। जमींदारी, देन लेन घी और गल्ले का व्यापार तथा और भी अनेक भागों से उनकी आमदनी थी। रईसी ठाठ-बाठ से रहते थे, सदा उनके साथ दरबार लगा रहता था। मैं उनका इकलौता पुत्र था। लाड़-प्यार की कमी न थी, जिस दुलार, आनन्द और विलासिता से मेरा बचपन बीता वैसा किन्हीं विरलों को ही नसीब होता है।
भाग्य ने पलटा खाया जब मैं तेरह वर्ष का था तो अचानक तीन दिन की बीमारी में पिता जी की मृत्यु हो गई। पिता जी के जितने मित्र थे उन सब ने मेरी माता पर तथा मुझपर बड़ी कृपा दिखाई। हर एक ने यह विश्वास दिलाया कि हम लोगों की पूरी सहायता की जायगी। विश्वास करने के अतिरिक्त और कोई चारा न था। सब ने कृपा की जो जितना कोई अधिक हित चिन्तक बना उसने उतनी ही बड़ी दगा की। मिलकर दगा करने वालों की करतूतों का कोई मनोरंजक अनुभव सुनना चाहे तो उसे आप बीती कहानी कई दिनों तक सुनाये जा सकते हूँ। पाठकों का कीमती वक्त अधिक खराब करने से क्या फायदा, किस्सा यह है कि सात वर्ष के भीतर पिता जी की सारी जायदाद, सारे नकली मित्रों न अपना घर भरने के लिए खानदान भर से हमारी दुश्मनी करा दी, तरह-तरह की बुराइयाँ, फिजूल खर्ची, लापरवाही आदि के कारण तबाही बढ़ती गई। माता जी भी पिता जी के सात वर्ष बाद स्वर्ग सिधार गईं। उनके मरते ही कर्ज-दारों ने अपने झूठे सच्चे दावे किये और छः महीने के भीतर ही बचा-खुचा भी चला गया।
बेबसी और शर्मिंदगी से परेशान होकर मैंने घर छोड़ दिया। स्त्री को उसके मायके पहुँचा कर मैं रोजगार की तलाश में परदेश को निकल पड़ा जगह की खाक छानता हुआ मारा-मारा फिर रहा था। बचपन के आराम और इस वक्त की मुफलिसी इन दोनों का मुकाबला करता तो आँखों में आँसू भर जाते। ऐसी ही चिन्ता और परेशानी में एक बगीचे में बैठा हुआ था। और भी कई महानुभाव वहाँ बैठे हुए थे। उनमें गायत्री सम्बन्धी वार्तालाप हो रहा था। बातें कुछ प्रिय लगीं, ध्यान से सुनने लगा, वे लोग ऐसी चर्चा कर रहे थे कि किस-किस व्यक्ति को किस प्रकार गायत्री साधना से लाभ हुआ। झिझकते हुए उन भद्र पुरुषों से पूछा कि क्या मैं भी गायत्री द्वारा लाभ उठा सकता हूँ? उनने मेरा परिचय पूछने के बाद उपासना के लिए प्रोत्साहन दिया और सारी विधि बता दी। दूसरे दिन से ही मैं साधना करने लगा। मेरा मन घर जाने को कर रहा था घर लौट आया। अब मेरे स्वभाव में और विचारों में भारी हेर फेर हो रहा था। खेती करने की इच्छा हुई। अपने खानदान वालों से पश्चाताप और क्षमा याचना के साथ। उनमें से कई बड़े उदार थे, भूतकाल में मेरे पिता जी द्वारा किये गये उपकारों की याद करके वे पिघल गये और मेरा प्रदर्शन और सहयोग करने को प्रसन्नतापूर्वक तैयार हो गये।
कुटुम्बियों के साथ में खेती आरम्भ कर दी। लगातार कई वर्ष तक अच्छी फसलें हुईं। भाव अच्छा लगा। तीन चार वर्ष में ही मेरे दिन फिर गये। जो लाभ खेती से होता था उससे पिता जी की भाँति घी, गल्ला, किश्त बाँटना, जेवर गिरवी रखना, देन लेन आदि का कारबार करने लगा। ससुराल वालों ने सुना कि लड़का सुधर गया तो उनने भी आर्थिक सहायता दी। सब दिशाओं में सफलता मिलती गई। लक्ष्मी को जाते देर नहीं लगती पर जब आती हैं तब भी दौड़ती हुई आती हैं बूँद-बूँद से घड़ा भर जाता है चारों ओर से जब ईश्वर की कृपा हुई तो हमारा खाली घर धन, धान्य, प्रतिष्ठा, सन्तान, नौकर-चाकर आदि से भरा पूरा हो गया। जिन लोगों ने हमारी जायदाद खरीदी थी, उनमें से कई एक से वापिस खरीद ली है।
यह सब गायत्री की कृपा है। उस बगीचे में बैठे हुए सज्जनों की बातों को याद करता हूँ तो मेरा हृदय कृतज्ञता से भर जाता है। उनमें मुझे वह ज्ञान दिया जो हजारों रुपये नकद देने की अपेक्षा कहीं अधिक मूल्यवान है। गायत्री माता ने मेरे सब दुख दरिद्र को दूर कर दिया उसका स्मरण और पूजन किये बिना मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करता। प्रति वर्ष गायत्री यह करता हूँ। मेरी देखा देखी और भी कई मनुष्यों ने गायत्री का व्रत लिया है और वे भी फल फूल रहे हैं। मैंने शास्त्र नहीं पढ़े सीधी सादी विधि से पूजन, जप और ध्यान करता हूँ। मेरा विश्वास है कि जो माता के चरणों में शीश नवाता है वह जगज्जननी की कृपा अवश्य प्राप्त करता है।