महापुरुष उपजाने की खेती

July 1951

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(श्री मान सिंह जी टाक, जोधपुर)

विशाल वृक्ष की छाया, पुष्प, फल, पल्लव, लकड़ी आदि से अनेक प्राणी लाभ उठाते हैं आम का वृक्ष अपने जीवन में अनेक प्राणियों की अनेक प्रकार से सेवा करता है। उस वृक्ष के अस्तित्व का श्रेय एक छोटे से बीज को होता है। बीज का कलेवर बहुत छोटा है उसका अस्तित्व तुच्छ सा है। वृक्ष के विशाल वैभव में उस छोटे से बीज का कितना बड़ा भाग है इस वस्तु स्थिति को तभी समझा जा सकता है जब उस पर मनोयोग पूर्वक विचार किया जाय।

मनुष्य, जन्म से पशु तुल्य होता है। उस पर जैसे संस्कार डाले जाते हैं वैसा ही वह बनता है शिक्षा और संगति में बुरे भले होने पर मनुष्य का भला बुरा होना बहुत कुछ निर्भर रहता है। संसार में जितने महापुरुष हुए हैं उनको वैसा बनाने में सदशिक्षा का बहुत बड़ा हाथ है। जंगली देशों और जातियों में जहाँ सदशिक्षा की व्यवस्था नहीं है वहाँ कोई महापुरुष पैदा नहीं होता।

गायत्री ऐसा बीज मंत्र है कि यदि किसी उपयुक्त क्षेत्र में वह जो दिया जाय तो उसका पौधा उगकर सुरम्य आम्र वृक्ष की तरह पल्लवित होता है। प्राचीन भारतीय इतिहास में जिन शूरवीरों, महापुरुषों, भूमि मुनियों, विद्वानों, चक्रवर्ती शासकों के नामों का उल्लेख है वे गायत्री बीज के ही पुष्य पल्लव हैं। इस महामंत्र ने उनकी योग्यता और शक्ति को इतना विकसित किया था कि वे न केवल अपना वरन् दूसरे असंख्य मनुष्यों का भला करने में भी समर्थ हुए।

आज भारतीय संस्कृति के बीज मंत्र गायत्री को भुला सा दिया गया है। उसकी शक्ति, सम्भावना और महिमा स्मरण भी हिन्दू जाति को नहीं रहा है। फलस्वरूप हमारी आत्मिक और भौतिक महानता प्राचीन काल की अपेक्षा बहुत नीचे गिर गई है। यदि पूर्वकाल की भाँति उन्नति के शिखर पर पहुँचना है तो उसकी शक्ति गायत्री माता का दुग्ध पान करने से ही मिलेगी।

अनेक मस्तिष्कों में हमें गायत्री बीज को बोना चाहिए। इनमें से कुछ की जमीन ऊसर होने से प्रयत्न व्यर्थ जा सकता है पर थोड़े बहुत मनुष्यों की अन्तः भूमियाँ अवश्य ऐसी निकलेंगी जिन पर यह बीज उग आवे। यदि ऐसे थोड़े से भी पौधे उगाये जा सके तो आम्र वृक्षों की तरह वे संसार के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। कभी-कभी एक दो महान आत्माएं ही इतनी प्रचंड आत्म शक्ति सम्पन्न होती हैं कि उनका पराक्रम, वातावरण में भारी उलट कर देता है। ऐसे महापुरुषों को उत्पन्न कर देने की खेती का नाम है गायत्री प्रचार मेरी दृष्टि में इस युग की सब से बढ़ी चढ़ी आवश्यकता यही है। आज मनुष्य जाति अनेक कष्टों और अनेक समस्याओं के जाल में उलझी हुई है उसका उद्धार गायत्री की शिक्षा एवं शक्ति द्वारा ही होना सम्भव है।

गायत्री प्रचार मेरी दृष्टि में सबसे आवश्यक एवं उपयोगी कार्य है। उस ओर मेरा बड़ा उत्साह है। पिछले छः महीनों में लगभग 500 पुस्तकें बिना मूल्य अपनी ओर से वितरण कर चुका हूँ। कितनों को ही अपना पैसा खर्च करके इस साहित्य को मँगाने के लिए प्रस्तुत कर चुका हूँ। इस दिशा में बहुत काम करने की मेरी इच्छा है।

यह प्रचार कार्य मोटी दृष्टि से देखने में बहुत तुच्छ प्रतीत होता है पर वस्तुतः यह इतना ही महान है जितना कि बरगद का बीज। सहस्र पुरुषों को यह शिक्षण और प्रोत्साहन देने पर उनमें से यदि एक भी व्यक्ति ऐसा निकल आवे जो माता की शक्ति प्राप्त करने को उठ खड़ा हो तो उस एक का पुण्य पुरुषार्थ भी बहुत बड़े काम का सिद्ध हो सकता है। आम का वृक्ष चिरकाल तक अनेकों को लाभ पहुँचाता, गायत्री का एक पूर्ण ज्ञानी अनेक पाप तापों से भरे विषाक्त वातावरणों को शुद्ध कर सकता है। इस प्रकार जो महान् उपयोगी कार्य होगा उसमें हमारे इस प्रचार कार्य का उतना ही महत्व होगा जितना कि वृक्ष की उपयोगिता में बीज श्रेय होता है। मैं जप, तप, व्रत, उपवास उतने नहीं कर पाता। गायत्री माता के चरणों में मेरी श्रद्धाँजलि यही होती है कि उनकी महिमा का अधिकाधिक प्रचार करूं। क्या यह साधना अन्य साधनाओं की अपेक्षा माता को कम प्रिय होगी? मेरा अन्तःकरण कहता है कि - नहीं


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