(श्री नैनूराम जी जानी, रोहेड़ा)
लगभग 15 वर्षों से गायत्री-माता पर मेरी साधारण श्रद्धा चली आ रही है। परन्तु अपान वायु की उर्ध्वता और विकृति के कारण कमर से ऊपर का भाग गरदन तक जकड़ा हुआ सा रहता था जिसके फलस्वरूप मैं अपनी गायत्री सम्बन्धी उपासना में प्रवृत्त नहीं हो सकता था। रोग की भयंकरता दिनों दिन बढ़ती गई यद्यपि मैं इसके निवारणार्थ कुछ व्यायाम, आसन इत्यादि किया करता था। यह रोग गत 20 सालों से चला आ रहा था और मुझे तो वह असाध्य ही मालूम पड़ता था। कई दिनों तक मुझे सूझे ज्वर में रहना पड़ता था। इस रोगोत्पत्ति के होते हुए भी मैं अपने जीवनोपयोगी सारे कार्य किया करता था। परन्तु वे सारे कार्य भार रूप मुझे प्रतीत होते थे। न तो मुझमें स्फूर्ति थी और न किसी प्रकार का उत्साह। इन सारी बातों ने मेरे मन में एक समस्या पैदा करदी थी।
लगभग तीन चार साल पहले की बात है कि जब मेरे मन में गायत्री के प्रति श्रद्धा के भाव बढ़ते गये तो इस शक्ति के सम्बन्ध में उचित ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा उत्तरोत्तर बढ़ती हुई दिखाई दी। यह निर्विकार सत्य है कि जहाँ चाह है वहाँ राह भी है। कुछ ही समय के बाद देवी की कृपा से ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका हाथ लग गई और उसमें गायत्री महा विज्ञान सम्बन्धी पुस्तकें प्रकाशित हो जाने की सूचना मिलने पर मैंने उन पुस्तकों को मँगवा कर मनन और चिन्तन द्वारा अध्ययन किया। इस सम्बन्ध में बहुत कुछ जानकारी प्राप्त होने पर मेरे भावों में काफी जाग्रति का प्रसार होने लगा। दृढ़ता के साथ नियमित उपासना करना तभी से प्रारम्भ कर दिया। परन्तु शारीरिक अस्वस्थता के कारण मनोवृत्ति को केन्द्रीभूत करने में बहुत कुछ कठिनाई होती थी। फिर भी मैंने अपनी उपासना का कार्य जारी ही रखा। इस प्रकार उपासना करते हुए कुछ ही महीनों के अन्दर गायत्री माता के प्रति मेरा प्रेम अधिकाधिक बढ़ता गया। साँसारिक वस्तुओं से मोह उठता गया। वैराग्य की भावनाएं काफी जाग्रत होने लगी। हर समय भगवती माता की ही धारणा बनी रहती थी-सोते-उठते बैठते। सच पूछा जावे तो मेरी दशा उन्मत्त की सी हो रही थी।
इस अवस्था में कुछ ही दिनों तक गोते लगाने के पश्चात् मेरे मन में एक दिन भगवती माता के दर्शन की प्रगाढ़ इच्छा उत्पन्न हुई। जिसके फलस्वरूप मेरी आँखों में से प्रेमश्रुधारा बहने लगी। मैं बैठा हुआ बहुत कुछ रो गया। इसी समय मैंने माता को हिम्मत बँधाते हुए अपने सम्मुख उपस्थित देखा।
दूसरा दिन हुआ। भोजन करने के पश्चात् जब मैं बैठा हुआ था। ध्यान तो मेरा भगवती माता की ओर ही रहता था। सो उस अवस्था में एकाग्रता बढ़ती गई। कटि के नीचे के भाग से कुछ शक्ति ऊपर उठती हुई अनुभव होने लगी। ज्यों-ज्यों एकाग्रता के कारण माता के दर्शन की भावनाएं प्रबल होती गई त्यों-त्यों वह शक्ति ब्रह्म-रंध्र में पहुँच कर एक बिजली की सी झलक में विलीन हो गई। उस क्षण मात्र के अलौकिक आनन्द का वर्णन करना मेरी पहुँच के बाहर है। उस अनुभूति के कारण मेरे अन्तःकरण में शान्ति का साम्राज्य स्थापित हो गया। मन और बुद्धि में अनोखा ही परिवर्तन हो गया। ऐसा प्रतीत होता था मानों जीवन का काया-कल्प हो गया हो। देवी की कृपा से उस समय से रोग-मुक्ति होती गई और जीवन में आ गये उत्साह की तरंगें हिलोरें खा रही हैं।
मैं अपने उपरोक्त स्वानुभव से यह कहने में जरा भी संकोच नहीं रखता हूँ कि गायत्री के विद्युत प्रभाव से मन और बुद्धि को निर्मलता के कारण साधक में एक नया नैतिक बल प्राप्त होता है जो जीवनोर्त्सग के लिये वाँछनीय है।