सकाम से निष्काम साधना की ओर

July 1951

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(श्री पं. रामस्वरुप जी सीसौदिया, राठ)

सामान्य तथा मनुष्य तत्काल के लाभ को देखता है। तात्कालिक लोभ के लिए वह भविष्य की भारी हानि का खतरा भी उठाता है। इसके विपरीत यदि किसी काम में तुरन्त लाभ न हो किन्तु भविष्य में किसी बड़े सुख की सम्भावना हो तो भी उसे करने का उत्साह नहीं होता। तुरन्त का लाभ लोगों का दृष्टिकोण बना हुआ है। ऐसे कोई विरले ही हैं जो भविष्य को स्थायी लाभ के लिए आज के लाभों को छोड़ने को साहस कर पाते हैं।

आध्यात्मिक साधना में तत्काल कोई लाभ नहीं होता, बल्कि समय खर्च करना पड़ता है। नीरस कर्म काण्ड की नियमित साधना का बन्धन ऊपर लेना पड़ता है, हवन, दान पुण्य आदि में कुछ खर्च भी बढ़ता है, यह सब तात्कालिक हानियाँ ही है। व्रत, उपवास, तीर्थ यात्रा, संयम नियम आदि का झंझट और मित्र मंडली में उपहास यह सब बातें भी हानि में गिनी जा सकती हैं। भविष्य में इससे कोई लाभ होगा या नहीं इसका भी निश्चय नहीं, इस सब कारणों से कोई विरले ही आध्यात्मिकता के मार्ग को अपनाते हैं। जो अपनाते हैं वे सरल सा कार्यक्रम पूरा करते हैं रोज 2 का झंझट नहीं रहता। कथा प्रवचन सुनने या कीर्तन की सम्मिलित स्वर लहरी में सहयोग देने का कार्य भी सुगम है। पर नित्य-नियत समय पर मन भार का जप, ध्यान, भजन, पूजन के लिए बैठना और उसे देर तक निभाये रहना सामान्यता बड़ा अरुचिकर होता है। लोग अरुचिकर कार्यों के लिए प्रायः तैयार नहीं होते।

उपरोक्त दृष्टिकोण वाले असंख्यों मनुष्यों में से ही एक मैं भी था। मेरी रुचि जप तप में जरा भी न होती थी। परन्तु भगवान की कृपा बड़ी विलक्षण है, जिस पर वे कृपा करते हैं उसकी बुद्धि फेरते भी उन्हें देर नहीं लगती।

एक दिन मुझे एक मित्र से गायत्री सम्बन्धी पुस्तकें पढ़ने को मिलीं। उनमें गायत्री द्वारा अनेक साँसारिक लाभ होने का भी वर्णन था, साथ ही ऐसे कुछ उदाहरण भी दिये हुए थे जिनसे विदित होता था कि अमुक व्यक्ति ने इस साधना द्वारा अमुक लाभ उठाये हैं। मेरा मन भी ललचाया। तात्कालिक लाभ सभी को इष्ट है, मुझे भी इसी की आवश्यकता थी। अपना लाभ या स्वार्थ जिस तरह से भी पूरा होता है यही मार्ग ठीक है चाहे वह गायत्री उपासना हो, चाहे व्यापार, चाहे नौकरी, चाहे और कुछ साधना से मुझे वस्तुतः कोई प्रेम न था। अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए गायत्री की परीक्षा कर देखने की इच्छा हुई।

लाभ के लोभ से मैंने गायत्री को अपनाया। जानकारों से पूछकर जप, ध्यान, हवन आदि की विधियाँ मालूम ही और नियमित रूप से उन्हें करने लगा। जीवन में पहली बार यह पथ चुना था इसलिए इस सम्बन्ध में उत्साह और कौतूहल विशेष था। उनने मुझे अधिक जानने के लिए प्रेरित किया मैंने गायत्री सम्बन्धी अनेकों पुस्तकें पढ़ डालीं।

जिस छोटे प्रयोजन को लेकर मैंने अनुष्ठान प्रारम्भ किया था वह सफल हो गया। जो आशंकाएं और बाधाएं दिखाई पड़ती थी वे एक भी बाधक नहीं हुईं परिणाम सुखद रहा। साधारण तथा स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर साधन वस्तुओं को छोड़ दिया जाता है पर मैं वैसा न कर सका। क्योंकि अब उपासना में एक आन्तरिक रस आने लगा। इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी प्राप्त करने की रुचि ने आध्यात्मिक ज्ञान को इतना बढ़ा दिया कि साँसारिक लाभों की तुलना में आत्म लाभ का महत्व अनेक गुना अधिक मालूम होने लगा। माता के प्रति अगाध भक्ति बढ़ती गई और साधना ही एक महान लाभ प्रतीत होने लगी। अब मैं पूर्ण निष्काम भाव से उपासना करता हूँ और उसका वह प्रतिफल पाता हूँ जो बड़ी से बड़ी कमाना पूर्ण होने की अपेक्षा अधिक सरस है। सकाम उपासना अन्ततः निष्काम मातृ श्रद्धा में बदल जाती है। ऐसा मैंने व्यक्तियों के उदाहरणों से देखा है। परन्तु यह ध्यान रखने की बात है कि प्रारम्भ में छोटी से छोटी ही कामना करनी चाहिए। प्रारम्भिक साधक की श्रद्धा और साधना अत्यंत निर्बल होती है। जो लोग रत्ती भर श्रम का लाख मन फल पाने का अमर्यादित लोभ करते हैं और प्रबल कर्म भोगों को एक माला फेर कर ही हटाना चाहते है उनको निराशा ही होती है। फिर भी जितना शुभ प्रयत्न वे कर लेते हैं वे किसी न किसी रूप में उनके लिए सहायक ही होता है। अपने को असफल समझने वाले गायत्री साधकों का प्रयत्न भी कभी व्यर्थ नहीं जाता, मनोकामना पूर्ण न होने पर भी किसी न किसी प्रकार सत्परिणाम अवश्य मिल जाता है।


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