गायत्री सहस्र धारा-निर्झर की योजना

July 1951

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(श्री कविराज कन्हैयालाल जी शास्त्री, इन्दोर)

बादल एक दिन बरस कर चले जाते हैं। जितनी जमीन को उन्होंने गीला किया था दूसरे दिन वह सूख जाती है। परन्तु झरने के बारे यह बात नहीं वह निरन्तर नियमित रूप से झरता है। उसकी पतली सी जल धारा निरन्तर बहती रहती है। फलस्वरूप उसके नीचे की भूमि सदा गीली रहती है और विश्वासपूर्वक कितने ही पशु-पक्षी तथा वृक्ष उसका आश्रय लेकर अपनी तृष्णा बुझाते हैं। आँधी तूफान की तरह आने और चले जाने बादलों की अपेक्षा झरने का महत्व अधिक है।

किसी के प्रभावशाली प्रवचन से उत्तेजित होकर किसी काम में जो प्रवृति होती है उसका स्थायी होना कठिन है। जो बात स्वयं काफी समय तक सोच समझ कर की जाती है उसमें अधिक स्थिरता एवं दृढ़ता रहती है। गायत्री साधना को जो लोग किसी के मुँह से कुछ बातें सुनकर अपना लेते हैं वे अधूरी जानकारी के कारण एक तो ठीक प्रकार साधन नहीं कर पाने, दूसरे पूरी बातें मालूम न होने से उनके मन में संकल्प-विकल्प की धूप छाँह रहती है। जिसके कारण कई बार बीच में ही उत्साह ठण्डा पड़ जाता है। ले भागे का ज्ञान बादल बरसने के समान अस्थायी है और गायत्री साहित्य के स्वाध्याय द्वारा मन में स्थिर ज्ञान और सुदृढ़ संस्कार जमाना ऐसा है जैसा निरन्तर बहने वाला निर्झर प्रवाह।

गायत्री साधना केवल अपने तक ही सीमित रखने की वस्तु नहीं है। उसे दूसरों को भी देना चाहिए। जो लोग केवल अपने ही मतलब में चौकस है और दूसरे बन्धुओं को सन्मार्ग पर प्रेरित करने के लिए प्रयत्न नहीं करते, वे स्वार्थी माता को उतने प्रिय नहीं हो सकते जितने कि अपनी परवाह कम करके दूसरों की सेवा में ध्यान देन वाले साधक प्रिय हैं।

जप की ही भाँति स्वाध्याय भी साधना का अंग है। जैसे जप और ध्यान करना आवश्यक है वैसे ही गायत्री साहित्य का नित्य स्वाध्याय करना भी प्रत्येक गायत्री साधक का नित्य कर्म होना चाहिए। इस आवश्यक कर्तव्य की उपेक्षा करके जो लोग केवल जप ही किया करते हैं उनकी अधूरी साधना एकाँगी होने से निर्बल रहती है।

अपनी साधना को सर्वांगपूर्ण बनाने के लिए स्वयं स्वाध्याय करना और दूसरों को परमार्थ पथ पर लगाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना यह दोनों ही कार्य पूरे हो सके इसके लिए अपने साधक बन्धुओं के सामने मैं एक कार्यक्रम उपस्थित करता हूँ, वह यह कि हममें से हर एक के घर में छोटा ‘गायत्री पुस्तकालय’ हो। अखण्ड ज्योति ने अब तक 12 पुस्तकें छापी हैं। इन सभी को लेकर एक छोटा पुस्तकालय बना लिया जाय। ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका पुस्तकालय में आती रहे और भी पुस्तकें गायत्री सम्बन्धी कहीं से मिले या भविष्य में अखण्ड ज्योति से छपे तो उन्हें भी समय-समय पर इस पुस्तकालय में बढ़ाते रहा जाय।

स्वयं नित्य स्वाध्याय में इनका थोड़ा बहुत पाठ किया जाय। मैंने देखा कि मनोयोगपूर्वक जितनी बार इस साहित्य को पढ़ा जाय उतने ही महत्वपूर्ण गुप्त रहस्य प्रकट होते चलते हैं। गायत्री गीता, गायत्री स्मृति, गायत्री उपनिषद्, गायत्री रामायण आदि के प्रकरण ऐसे हैं कि जिनमें से एक का मंथन करने के लिए एक-एक जीवन का समय भी कम है, एक बार पुस्तक के पन्ने पलट लेने से नहीं वरन् निरन्तर उनको मनोयोगपूर्वक स्वाध्याय करने से ही ब्रह्म विद्या के रहस्यों को समझा जा सकता है।

जो लोग अपने मित्र या परिचित हों उनका इस विद्या की प्रारम्भिक जानकारी कराने के लिए छः आने वाले छोटी पुस्तकें एक-एक करके पढ़ने के लिए देते रहना चाहिए। लोग अक्सर लापरवाह होते हैं पुस्तकों को संभाल कर रखने और लौटाने में बड़ी लापरवाही करते हैं। इससे हमें खीजना नहीं चाहिए। वरन् पुस्तक खराब होने की हानि तथा पुस्तकें देने और लेने का समय भी प्रसन्नतापूर्वक एक पुण्य परमार्थ समझ कर शिरोधार्य करना चाहिए। एक नये व्यक्ति से नित्य गायत्री सम्बन्धी प्रोत्साहन देने वाली चर्चा करना भी अपना एक नियमित सेवा कार्य बना लेना चाहिए। इस प्रकार यह एक बड़ा ही कल्याणकारी एवं उपयोगी गायत्री का ज्ञान यज्ञ प्रत्येक साधक के घर में आरम्भ होना चाहिए।

प्रति वर्ष गायत्री जयन्ती के पुण्य पर्व तक हम लोग मिलकर गायत्री ज्ञान निर्भर की एक सहस्र धारा से माता के चरण पखारा करें। ऐसे छोटे 2 एक हजार पुस्तकालय प्रति वर्ष खुलते चले जाएं और उनके संचालक इस पुण्य प्रचार कार्य को उत्साहपूर्वक चलावें तो कुछ ही वर्षों में गायत्री का संदेश घर-घर में पहुँच सकता है और सहज ही एक बहुत भारी कार्य हो सकता है आशा है कि गायत्री माता के सच्चे पुत्रों-मेरे सहोदर बन्धुओं -का ध्यान इस ओर अवश्य आकर्षित होगा।


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