मृत्यु से वापसी

July 1951

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(डाक्टर रामनरायन भटनागर, इटौआ धुरा)

विगत श्रावण की नाग पंचमी को मैं हरिद्वार गया वहाँ 12 दिन तक ऋषिकेश गंगा तट पर निवास किया तत्पश्चात् जन्माष्टमी के अवसर पर मथुरा पहुँचा। कई दिन तक श्री गुरुदेव आचार्य जी के संपर्क में रहा। तदुपरान्त अपने सम्बन्धियों से मिलता हुआ आगरा होता हुआ धौलपुर गया।

मथुरा से जब मैं विदा ले रहा था तब आचार्य जी चिन्तित, गम्भीर, उद्विग्न और विषादपूर्ण मुद्रा में थे। उनका कंठ रुँधा हुआ था, विदा करते समय वे बड़े दुखी हो रहे थे। मैंने सोचा मेरे प्रति उनको जो प्रेम तथा वात्सल्य है उसी के कारण वियोग के समय उनकी यह स्थिति हो रही है परन्तु मन न माना उनकी समुद्र जैसी गम्भीर मनोभूमि मैं मेरे जैसे व्यक्ति के जाने की साधारण सी घटना का इतना प्रभाव नहीं हो सकता कि वे ऐसी अधीरता का परिचय दें। चित्त में नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प उठने लगे बहुत विचारने पर भी कुछ समाधान न हो सका। बुद्धि ने हार मान ली और मै धौलपुर पहुँचा। रास्ते भर इस गुत्थी को सुलझाता रहा, पर वह सुलझ न सकी।

धौलपुर पहुँचते-पहुँचते मैं बीमार पड़ गया। चिकित्सा चलती रही पर बीमारी न घटी। एक दिन रोग तीव्र प्रकोप हुआ। सन्निपात, वमन अतिसार के कारण मैं मृत्यु-शैया पर पहुँच गया। मैं स्वयं डॉक्टर हूँ। लक्षणों से विश्वास हो गया कि मेरी अन्तिम घड़ी है। अपने भांजे भगवान स्वरूप से मैंने लड़खड़ाती जबान में अपनी अंत्येष्टि सम्बन्धी सब आदेश दे दिये और शीतल पसीने आने की विपन्न दशा में बेहोश हो गया।

उधर स्वजन सम्बन्धियों को मेरा कोई समाचार न मिलने से बड़ी चिन्ता हो रही थी। बरेली वाली मेरी बहिन ने चारों ओर को पत्र भेजे और ज्योतिषी अशर्फीलाल जी को बुलाकर गृह दशा दिखवाई। ज्योतिषी जी ने बताया कि वह बड़े संकट में है यदि 10-25 दिन में न आये तो उनके आने की आशा भी नहीं। कारण यह यह था कि छः ग्रह एक साथ मेरे जन्म स्थान में प्रवेश कर रहे थे और मार्केश बन रहा था।

जिस समय मैं मृत्युशय्या पर पड़ा अन्तिम साँस ले रहा था। उसी समय गढ़वाल में मेरे मित्र पं॰ रामदत्त शर्मा को स्वप्न हुआ मैं माला हाथ में लेकर गंगा जी को पार कर रहा हूँ। उनकी तुरन्त आँख खुल गई और अपनी पत्नी से कहा अब डॉक्टर साहब नहीं मिलेंगे।

जैसा कि पं॰ रामदत्त जी ने स्वप्न देखा था सचमुच ही मेरा प्राण इस शरीर से सम्बन्ध तोड़ रहा था। मुझे लगा कि मैं बहुत हल्का होकर ऊपर आकाश में उड़ रहा हूँ। आर्श्रय, कौतूहल के साथ इस विचित्र दशा में पड़ा हुआ कुछ निर्णय न कर पा रहा था कि मैं किस अवस्था में हूँ, कहाँ हूँ, उड़ता हुआ कहाँ जा रहा हूँ। अकस्मात इसी अवस्था में मुझे अनन्त तेजोमयी, परम स्वरूपी, दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हंसारूढ़ वेदमाता गायत्री के दर्शन हुए हैं। मैं उनके चरणों की ओर बढ़ी, उनने मस्तक पर हाथ धर दिया। यह स्पर्श ऐसा सुखद था कि मैं सारी सुधि-बुधि भूलकर एक विचित्र आनन्द सागर में निमग्न हो गया।

कई घण्टे बाद संज्ञा शून्य शरीर में चेतना फिर लौट गई। मृत्युशय्या पर करवटें बदली और धीरे-धीरे अच्छा होने लगा। कुछ दिन दवा-दारु करते ठीक हो गया और घर चला आया।

मन में बार-बार प्रश्न उठता है कि उस माता की शरणागति से अलग होकर मुझे फिर क्यों यह जीवन जीने के लिए लौटना पड़ा? गुरुदेव ने बताया है कि जो अपूर्णताएं रह गई हैं उनको पूरा करने के लिए, कच्चेपन को पकाने के लिए अभी कुछ समय की साधना और आवश्यक है। नया जन्म लेकर उस कमी को पूरा करना संदिग्ध था। कौन जाने अगले जन्म में वे प्राप्त होती या न होती। इसलिए वर्तमान सुयोग से लाभ उठाकर जीवन लक्ष्य तक पहुँच जाना ही श्रेयकर था।

मथुरा से चलते समय आचार्य जी का उद्विग्न हो उठना मेरी समझ में आता है। वे अपनी सूक्ष्म दृष्टि से मेरा भविष्य देख रहे थे। उसी से उनका माता जैसा कोमल हृदय पिघल कर छलका पड़ रहा था। मृत्यु से वापिस लौटने में उनका कितना प्रचण्ड प्रयत्न मेरे प्रति रहा इनका उल्लेख करना उसका महत्व कम करना है।

अज्ञानी बालक जैसे अपने अभिभावकों के आदेशों का अनुसरण करता है, उसी प्रकार माता की प्रेरणा और गुरुदेव की आशा का संबल पकड़ कर चल रहा हूँ। प्राण माता के चरणों में रम रहे हैं, हर साँस में माता की पुकार उठती है। वे जहाँ मुझे पहुँचा देंगी वहीं मेरा कल्याण होगा ऐसी भावना के साथ गायत्री उपासना में संलग्न हूँ। अब यही एक मात्र मेरी जीवन साधना है।


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