ऐसा कहा जाता है कि भूत-प्रेत होते हैं, श्मशान में रहते हैं। उन्हें एकाकी खँडहर पसंद हैं। वे भूतकाल की विसंगतियों में ही उलझे-विपन्न बने क्षुब्ध होते रहते हैं-दूसरों को भी उसी आग में जलाते रहते हैं। स्वयं वे भूतकाल से डरते हैं व दूसरों को भी डराते हैं, जलते व जलाते हैं। चाहते बहुतों से हैं किन्तु दे किसी को कुछ नहीं पाते। क्या वास्तव में ऐसे भूत होते हैं ? हमें देखना होगा कि यह भूत की कल्पना कहीं हमारे अपने ऊपर-वर्तमान स्वरूप पर तो लागू नहीं हो रही। कहीं हम स्वयं ही भूतों में निरत रहते-रहते ही तो भूत नहीं बन गए हैं।
पंच तत्वों को भूत-पंचभूत कहा जाता है। हमारा शरीर इन्हीं पंचभूतों का बना है व इनकी सतत् क्रियाशीलता हेतु इन्हें पदार्थों के ईंधन की आवश्यकता पड़ती है। भोजन हेतु स्थूल आहार इन्हीं पंचभूतों के लिए लिया जाता है। शरीर का अंत होते ही यह माटी की काया इन्हीं पंचतत्वों में समा जाती है। किन्तु आत्मा शरीर नहीं है। उसको आहार व पोषण, विचारों की श्रेष्ठता, भावना की उत्कृष्टता से मिलता है। उसका भोजन देवों का भोजन है इसीलिए शरीर को-पंचभूतों की इस काया को भूत तथा चेतना को देव कहते हैं।
हम सबका मूलभूत स्वरूप देव प्रधान है। हमारा लक्ष्य भी देवत्व की पराकाष्ठा पर पहुँचना है। देवों की संपदा, विचारणा और भावना की उत्कृष्टता होती है। यह संपदा जहाँ भी अधिक होगी, वहीं स्वर्गीय वातावरण बनेगा। मनःस्थिति में देवत्व होगा तो परिस्थितियाँ भी स्वर्गोपम दृष्टिगोचर होने लगेंगी। जो देते रहते हैं, देना ही जिनका स्वभाव है उन्हें ‘देवता’ कहते हैं। देव सत्कर्मों में सहायता करने के निमित्त निरंतर दौड़ते रहते हैं-सबको बाँटते ही रहते हैं। इसी कारण वे सम्मान पाते और औरों को वरदान दे पाने के सुपात्र बनते हैं। अमृत पीते, अमरत्व का आनंद लेते और अमृत दिलाते हैं। आनंद पाते व चहुँ ओर उल्लास बिखेरते हैं।
हमें यह देखना है कि हम क्या बनना चाहते हैं-भूत या देव ? भूत योनि से निकल कर देव योनि में प्रवेश करना पूर्णतया अपनी इच्छा और पुरुषार्थ पर निर्भर है। उचित यही है कि हम संकल्प शक्ति जुटायें व अंदर का देवत्व जगायें। आत्मिक प्रगति का यही राजमार्ग एक समान सबके लिए एक जैसे अवसर लिए सामने खड़ा है।