उपासना बनाम योग साधना

December 1993

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आत्मतत्व का प्रकाश प्राप्त करने के लिए या किसी सूक्ष्म विषय को समझने के लिए एकाग्र-बुद्धि से उस पर ध्यानस्थ होना पड़ता है और यह कार्य जिस प्रक्रिया द्वारा संपन्न होता है, उसे उपासना और योग के नाम से जाना जाता है। इस उपचार, उपक्रम द्वारा परमात्मा के जितने ही समीप हम पहुँचते हैं उतनी ही श्रेष्ठतायें हमारे अंतःकरण में उपजती तथा बढ़ती हैं। उसी अनुपात से आँतरिक शाँति की भी उपलब्धि होती चलती है। जिस तरह हिमालय की ठंडी-हवायें उन लोगों को अधिक शीतलता प्रदान करती हैं जो उस क्षेत्र में रहते हैं। इसी प्रकार आग की भट्टियों के समीप काम करने वालों को अधिक गर्मी अनुभव होती है। जीव भी ज्यों-ज्यों परमात्मा के निकट पहुँचता जाता है उससे घनिष्ठता के साथ जुड़ता जाता है, त्यों-त्यों उसे उन विभूतियों का अपने में अनुभव होने लगता है जो उस परम प्रभु में ओत-प्रोत हैं।

उपासना का अर्थ है-पास बैठना निकट होना (उप=निकट, अस=होना, रहना) परमात्मा के पास बैठने से ही उपासना हो सकती है। साधारण वस्तुयें तक अपनी विशेषताओं की छाप दूसरों पर छोड़ती हैं, तो परमात्मा के समीप बैठने वालों पर उन दैवी विशेषताओं का प्रभाव क्यों न पड़ेगा ? जब पुष्पवाटिका में जाते ही फूलों की सुगंध से चित्त प्रसन्न हो उठता है। चंदन के वृक्ष अपने समीपवर्ती वृक्षों को सुगंधित बनाते हैं। सज्जनों के सत्संग से साधारण व्यक्तियों की मनोभावनाएँ सुधरती हैं, फिर परमात्मा अपनी महत्ता की छाप उन लोगों पर क्यों न छोड़ेगा जो उसकी समीपता के लिए प्रयत्नशील हैं।

आत्मा को परमात्मा के निकट पहुँचने पर वही बात बनती है जो गरम लोहे और ठंडे लोहे के एक साथ बाँधने पर होती है। गरम लोहे की गर्मी ठंडे में जाने लगती है और थोड़ी देर में दोनों का तापमान एक सरीखा हो जाता है। दो तालाब जब तक अलग-अलग रहते हैं तब तक उनके पानी का स्तर नीचा-ऊँचा बना रहता है। पर जब बीच में नाली निकालकर उन दोनों को आपस में संबंधित कर दिया जाता है तो अधिक भरे हुए तालाब का पानी दूसरे कम पानी वाले तालाब में चलने लगता है और यह क्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि दोनों का जल स्तर समान नहीं हो जाता।

दो जलाशयों का मिलना या गरम-ठंडे लोहे का परस्पर मिलना जिस प्रकार एकरूपता की स्थिति उत्पन्न करता है, उसी प्रकार उपासना या योग द्वारा आत्मा और परमात्मा का मिलन होने पर गुँथ जाने पर जीव में दैवी गुणों की तीव्रगति से अभिवृद्धि होने लगती है।

योग साधना का प्रयोजन भी अपनी समीपता को असीमता के साथ जोड़ देना है। इस प्रयोजन में जितनी ही सफलता मिलती जाती है, उतनी ही मात्रा में मनुष्य उस वैभव पर आधिपत्य जमाता जाता है जिसके प्रभाव को हम जड़-चेतन जगत में अपने चारों ओर फैला हुआ देखते हैं। सीमाबद्ध स्थिति में हम तुच्छ और दरिद्र होते हैं, पर असीम के साथ जुड़ जाने पर महानता प्राप्त करने में कोई कमी नहीं रह जाती है। सिद्ध पुरुषों में देखी गयी विशिष्ट क्षमतायें और कुछ नहीं, विराट के साथ उनकी घनिष्ठता का आरंभिक उपहार भर हैं। बढ़ी-चढ़ी स्थिति तो ऐसी बन जाती है जिसमें आत्मा और परमात्मा के बीच कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं रह जाता, दोनों समतुल्य ही दीखते हैं।

योग एवं सच्ची उपासना दोनों का ही अर्थ है, आत्मा को परमात्मा से जोड़ देना। इससे परमात्मा की विशेषतायें मनुष्य में प्रवाहित होने लगती हैं, किंतु दोनों के बीच में यदि कोई व्यवधान रख दिया जाय तो प्रवाह रुक जायगा और मनुष्य को श्रेष्ठता प्राप्त नहीं होगी। जिस प्रकार आग के पास आने पर ठंडा लोहा ऊष्मा प्राप्त करता है, पर यदि आग और उसके बीच लकड़ी का एक पटला रख दिया जाय तो लोहा आग की गरमी से वंचित रह जायगा। उसी प्रकार जब उपासना की विधि में आत्मा और परमात्मा के बीच कामनाओं का व्यवधान डाल दिया जाता है तो साधक परमात्मा को ग्रहण करने से वंचित रह जाता है। जिन उपासकों में परमात्मा के लक्षण संकलित होते दिखाई न दें, समझ लेना चाहिए कि उसकी आत्मा और परमात्मा के बीच कामनाओं, वाँछनाओं का व्यवधान पड़ा हुआ है और जब तक यह व्यवधान हटाया नहीं जायगा, उपासना का वास्तविक फल प्राप्त होना संभव नहीं। अधिकांश पूजा पाठ तथा चंदन-वंदन करने वाले उपासना नहीं उपासना का आडंबर ही किया करते हैं। या तो उसके आधार पर उन्हें अपना महत्व प्रदर्शन करने का भाव घेरे रहता है अथवा उनकी उपासना का लक्ष्य किसी कामना की पूर्ति रहता है, परमात्मतत्त्व की प्राप्ति नहीं। यही कारण है कि एक पुजारी आजीवन तक मंदिर में पूजा आरती करता रहता है, किंतु उसे वह फल नहीं मिलता जो उपासना के परिणाम स्वरूप मिलना चाहिए।

उपासना का प्रतिफल है-श्रेष्ठताओं की वृद्धि। चूँकि परमात्मा समस्त श्रेष्ठताओं का केन्द्र है, उसका सान्निध्य आत्मा को दिन-दिन उत्कृष्ट बनाता चलता है। भक्त को अपना भगवान सब में दिखाई पड़ता है, इसलिए वह हर किसी की अच्छाइयाँ देखता है और उनकी चर्चा एवं विचारणा करते हुए अपने आनंद और दूसरों के सद्भाव को बढ़ाता है। निंदा और ईर्ष्या असुरता के दो प्रधान अस्त्र हैं। इनका प्रयोग उसी पर किया जा सकता है जिसके प्रति परायेपन का शत्रुता का भाव रहे। जब सब अपने हैं तो अपनों की निंदा कैसे ? अपनों से ईर्ष्या कैसे ?

प्रेम, करुणा, आत्मीयता और सौजन्य की अजस्र धारायें परमात्मा से प्रवाहित होती हैं। प्राणि मात्र का पोषण-अभिवर्धन इन्हीं विशेषताओं के द्वारा तो वह करता है। ऐसे ईश्वर के समीप बैठने वाले में, उपासना या योग साधना करने वाले में यही विशेषतायें अवतरित होती हैं। अपने भाई-बहिनों के प्रति-प्राणिमात्र के प्रति अनंत करुणा और आत्मीयता की भावनायें उपासक के अंतःकरण में उद्भूत होती हैं। संपूर्ण विश्व ही उसे अपने आत्म स्वरूप में दिखाई देने लगता है। उनको चरितार्थ करके वह अपने जीवन को यशस्वी बनाता है और अपने अंतःकरण में धारण किये रहकर अनंत शाँति का अनुभव करता है। ऋद्धि-सिद्धियाँ भी उसकी अनुगामिनी बन कर रहती हैं।


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