उदासी : गले की फाँसी

December 1993

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उदासी अपने आप में एक रोग है। मनुष्य को सामान्य तथा हँसमुख, उत्साही एवं क्रियाशील होना चाहिए। छोटे बच्चों की तरह-जो स्वयं तो प्रसन्न रहते ही हैं, परिवारियों यहाँ तक कि परिचितों और अपरिचितों को भी प्रसन्न करते हैं। मानवी संरचना अपने आप में ऐसी है जो प्रकृति के साथ उपयुक्त तारतम्य बिठाकर सहज ही प्रसन्न रह सकती है।

शरीर और मन को निरोग रखा जा सके तो इतने भर से बहुत काम चल जाता है पेट में कम खायें, जो खायें सुपाच्य हो, इतनी सी बात ध्यान में रखने से पाचन तंत्र ठीक रहता है और उसके ठीक रहने पर शरीर के अन्य अवयव भी अपना काम सही रीति से अंजाम देते हैं। किसी अवयव के रोगी या गतिहीन होने का असर सिर पड़ता है और भारी रहने लगता है। कभी-कभी बढ़कर सिरदर्द के रूप में प्रकट होता है। आवश्यक नहीं कि इसका कारण मस्तिष्कीय कोई खराबी ही हो। शरीर के किसी भाग में अवरोध अड़ने पर उसकी प्रतिक्रिया समूचे शरीर पर होती है और उसका एक लक्षण उदासी के रूप में भी प्रकट होता है। अस्तु पेट को हल्का रखने के साथ-साथ उसे उत्साहवर्धक श्रम में लगाइए। व्यायाम इसी उद्देश्य के लिए किया जाता है कि निष्क्रियता-जन्य अवरोधों से पीछा छूटे और काम को भार मानने की अपेक्षा मनोरंजन मानने की प्रवृत्ति बढ़े।

आवश्यक नहीं पहलवानों की तरह दंड बैठक जैसे कड़े और थकान वाले व्यायाम किए जायँ। तेजी के साथ टहलने निकलने में नई-चीजों को देखने के अतिरिक्त मनोरंजक व्यायाम भी होता है। इसमें भी कोई मित्र, साथी, सहयोगी रह सके तो बीच-बीच में कुछ बातें करने या हँसने-हँसाने का सिलसिला भी चलता रहता है।

शारीरिक श्रम से नाड़ियों की गति तीव्र होती है साथ ही मानसिक उत्साह भी बढ़ता है। यदि व्यायाम की, टहलने की सुविधा न हो तो बिस्तर पर पड़े-पड़े ही अवयवों को धीरे-धीरे फैलाने और और धीरे-धीरे सिकोड़ने की धीमी गति देर तक अपनाई जा सकती है। दुर्बलों, वृद्धों, गर्भवती स्त्रियों बीमारों के लिए तो स्वास्थ्य विज्ञानी ऐसे ही अंग संचालनों की सलाह देते हैं।

शरीर के साथ ही उदासी में मानसिक विकृतियाँ भी एक बहुत बड़ा कारण होती हैं। अपने को एकाकी, सबसे अलग उपेक्षित समझना ऐसी भूल है जिसका परिणाम जीवन को निरानंद, नीरस बना देता है। अपने आप को समाज का अंग माना जाना चाहिए। परिवार को सुखी और समुन्नत बनाने में रुचि लेनी चाहिए। घर एक ऐसा उद्यान है जिसमें विभिन्न आयु और रिश्तों के व्यक्ति रहते हैं। उनकी अपनी-अपनी इच्छाएँ, आवश्यकताएं, समस्यायें और विशेषतायें होती हैं। उन्हें तभी समझा जा सकता है जब घनिष्ठता और आत्मीयता का भाव रहे। इस मनःस्थिति में वे सभी प्रिय लगते हैं और उनके भटकावों को घटाने और सुयोगों को बढ़ाने में यथासंभव रुचि लेना ऐसा काम है जो अपनी और पराई दृष्टि में व्यक्तित्व का मूल्य बढ़ाता है। फलतः प्रसन्नता का वातावरण बनना स्वाभाविक है।

गुमसुम एकाँत में बैठे रहने की आदत भी जिंदगी को बोझिल बनाती है। इसलिए घर के दफ्तर के, व्यवस्था के कामों में अपना योगदान करने का अवसर ढूँढ़ते रहना चाहिए। इससे सुव्यवस्था का आनंद मिलेगा और अपने कर्तव्य की उपयोगिता पर हर्ष भी होगा। गौरव भी अनुभव होगा।

आजीविका उपार्जन के कामों के अतिरिक्त बचा हुआ समय स्वाध्याय में लगाइए। जीवन को ऊँचा उठाने वाली, गुत्थियों को समझने और सुलझाने वाली पुस्तकें एक शानदार मित्र और परामर्श दाता की तरह हैं, जो अपने चिंतन को परिष्कृत करने में जितनी सहयोगी बनती है, उसकी तुलना में उन पर किये जाने वाला खर्च बहुत ही कम होता है। उपयोगी पुस्तकों के अध्ययन को आजीविका उपार्जन के समान ही महत्व देना चाहिए। उपयोगी से तात्पर्य यह है कि मात्र मनोरंजन करने वाली और कुत्साएँ भड़काने वाले साहित्य से। विषैले पदार्थों की तरह उनसे बचा ही जाना चाहिए, उन्हें पढ़ने की अपेक्षा न पढ़ना ही अच्छा। गंदे उपन्यास, कामुकता, भड़काने वाले साहित्य आजकल बहुत हैं। उनसे बचा भी जाना चाहिए और बचाया जाना भी।

कोई मनोरंजक कला, कौशल प्रयोग में लाने की गुंजाइश हो तो उसकी व्यवस्था बनानी चाहिए। संगीत रेडियो, टेलीविजन, बागवानी, पशुपालन जैसे कई ऐसे माध्यम हो सकते हैं जो ज्ञान भी बढ़ाते और एकाकी बैठे रहने की मनहूसियत से भी बचाते हैं। बच्चों के साथ खेलना, उन्हें कहानियाँ सुनाना, प्रश्नोत्तर के आधार पर अपना और उनका मनोरंजन करना भी एक उपयोगी स्वभाव है जिसे आदत में सम्मिलित करने का प्रयत्न भी करते ही रहना चाहिए।

प्रकृति को एक बहुमूल्य चित्र मानते हुए उसकी विशिष्टताओं को निरखते-परखते रहा जाय तो हर समय किसी कौतुक कौतूहल के साथ रिश्ता जुड़ा रह सकता है। समीप में रिश्ता जुड़ा रह सकता है। समीप में उड़ने, चहचहाने वाले पक्षी बिना पैसे के खिलौने हैं। बादल, टीले, जलाशय, वृक्ष, फल−फूल यदि रुचिपूर्वक देखे जा सकें तो यह समूचा संसार एक खिले हुए उद्यान की तरह आकर्षक प्रतीत होगा। किसी ऊँचे स्थान पर बैठकर चारों ओर नजर दौड़ाने से खेतों, बगीचों की सैर करने में ऐसा बहुत कुछ मिल सकता है जो उदासी को दूर करे।

कई बार चिंतन में विकृति घुस पड़ने पर भी खीज और उदासीनता का दौरा पड़ता है, भविष्य में क्या होने वाला है, किसी को पता नहीं, फिर उसे अनुपयुक्त मानकर अपने आपको चिंता, निराशा, भय, आशंका के गर्त में क्यों धकेला जाय ? अगले दिनों सफलतायें मिलने, सहयोग उपलब्ध होने और उन्नति के अवसर आने की विधेयात्मक कल्पनायें करते रहने में ही क्या हर्ज है। वे फलित होती हैं तब तो ठीक अन्यथा उनकी कल्पना तो तात्कालिक आनंद प्रदान करती ही है।

परिस्थितियों की तरह किन्हीं व्यक्तियों को अनुपयुक्त मानते रहने की अपेक्षा यह अच्छा है कि उसकी भूतकालीन तथा वर्तमान काल की जो अच्छाइयाँ दीख पड़ें उन पर संतोष व्यक्त करें, साथ ही स्थिति में सुधार करने की यथा संभव चेष्टा करते रहें कृतघ्नता जितनी कष्टदायक होती है वैमनस्य उत्पन्न करती है, उसकी तुलना में कृतज्ञता की प्रवृत्ति ऐसी है जो अपने को प्रसन्नता प्रदान करती है और शत्रु को मित्र बनाती है।

अपनी वर्तमान स्थिति को हेय वे ही मानते हैं जो अपने से अधिक सुखी या संपन्न लोगों के साथ तुलना करते और असंतुष्ट रहते हैं। यदि अपने से पिछड़े या अभावग्रस्त लोगों के साथ तुलना करें तो प्रतीत होगा कि अपनी वर्तमान स्थिति भी लाखों व करोड़ों से अच्छी है। अपनी असफलताओं और कमियों की सूची मस्तिष्क में लादे फिरने से वे बहुत भारी बन जाती है अच्छा यह है कि भूतकाल की सफलताओं और भविष्य की आशाओं को सुँदर गुलदस्ते की तरह सजाये और उसे देखकर अपनी प्रसन्नता में वृद्धि करें।


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