सिर झुकाए अपनी भावना में मग्न वह चला आ रहा था। यदा-कदा उसकी आँखें सामने के अगणित-अद्भुत दृश्यों पर प्रकाश बिखेर देतीं। कितने ही प्राँत शस्य श्यामल कितने ही खेत, कितने ही वैभवशाली प्रसिद्ध नगर कितनी ही वरसि विक्षुब्ध नदियाँ, न जाने कितने विशाल सरोवर छूट गए। बालक के चित्त को ये सब अपनी सुहावनी सृष्टि की ओर न आकर्षित कर पाए। प्रभात की हिरण्य किरणों की चपल बाल-लीला, दोपहर की उग्रमूर्ति की कराल तपन, अस्तगामी सूर्य का अंतिम अभिवादन सब चुक गया। पर उसकी वृत्ति ज्यों की त्यों सुमेरु की तरह अटल, समुद्र सी गंभीर, अमावस की महानिशा सी गहन और धरित्री सी धीर बनी रही। लगन में कोई बाधा उसे पराजित न कर सकी। लक्ष्य में कोई प्रलोभन उसे च्युत नहीं कर पाया।
ध्येय की ओर अग्रसर उसकी दुर्वार गति सभी को पीछे छोड़ती जा रही थी। स्नेह की मूर्ति माता, साथ खेलने वाले मुनियों के बालक, प्रकृति की अनोखी मुसकान पर इतराती हुई हरी-भरी कितने ही प्रकार के सुरभित कुसुमों से लहलहाती लताओं और कोमल पल्लवों वाली अरण्य-भूमि-जहाँ उसका जन्म हुआ था, प्रभात की किरणों से नहाती हुई, सर्वस्व समर्पित करने के लिए पुष्पाँजलि लेकर परमात्मा को रोज अर्घ्य देने वाली वह विभूति पीछे पड़ी रह गई। उस ओर से उसके हृदय में तीव्र वैराग्य उमगा था। वह उससे भी बढ़कर एक दूसरे सत्य की खोज हेतु आकुल हो उठा था। ऐसा सत्य जो क्षण-क्षण बदलने वाली असीम प्रकृति से परे निस्सीम और शाश्वत था। आज अपनी लघु सीमा में जकड़कर संसार के सामने एक बहुत बड़े रहस्य पर पर्दा नहीं पड़े रहने देना चाहता था। उसकी चाहत है चिरकाल के लिए दुःख, अपमान, निरादर, असंतोष की राक्षसी वृत्ति और निर्मम क्रूरता के दौर, निर्दयता से बचने का उपाय मानवों को मालूम हो जाय।
जंगल की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर बढ़ रहे उसके कदम अनायास थम गए। पावों के रुकने का कारण यह वाणी थी जो उसके कानों में पड़ी-”बेटा तू कौन है ? कहाँ जा रहा है ?” उसने अपनी नजर उठाई माथे पर बिखरी अलकें, स्वेद बिंदुओं के कारण इधर-उधर चिपक गई थीं। दिखाई पड़ा बगल के एक विशाल वृक्ष के पीछे से कुछ ऋषि निकलते चले आ रहे हैं। ऋषियों की आँखों में दया और आश्चर्य के भावों का मिश्रण घनीभूत था। बालक ने गणना की-एक-दो-तीन-चार-पाँच-छः-सात यानि सप्त ऋषि। ऋषि आश्रमों के बीच पला-बढ़ा वह इनसे सर्वथा अपरिचित नहीं था। प्रत्यक्ष न सही परोक्ष परिचय तो था ही। ऋषिगण भी उसकी मनोहर शाँत-मूर्ति की ओर आकर्षित हुए। उसमें ऐसा ही अपनाव था। ऋषियों का सत्वगुण उसके महासत्व की ओर आप ही आप खिंच गया। तभी तो उनका मौन ध्यान ईश्वर से हटकर इस बालक की ओर आ मिला। संसार को भूले हुए इन ऋषियों ने संसार की एक अनमोल रचना देखी।
एकटक उसे निहार रहे इन ऋषियों को उसने भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया। बारी-बारी से सभी ने उसके सिर पर अपना हाथ फिराया। आशीर्वचनों से भरे अनेकों शब्द-घट उस पर उड़ल पड़े। “भगवन् ! मैं महाराज उत्तानपाद का पुत्र हूँ। मेरा नाम ध्रुव है।” वह अपना परिचय बता रहा था। “मेरी माता को विमाता के आने पर पिता ने निर्वासित कर दिया। वहीं अरण्य में मेरी उत्पत्ति हुई। ऋषियों की कृपा से उन्हीं के सान्निध्य में मेरा पालन हुआ। एक दिन मैं पिता के यहाँ साथी ऋषिकुमारों के साथ पहुँच गया। उनने मुझे अपनी गोद में बिठा लिया। यह देखकर विमाता ने मेरी बाँह पकड़ी और घसीट कर गोद से नीचे उतार दिया।”
“साधारण सी इस घटना ने मेरे भीतर कुछ असाधारण घटा दिया। अनेकों सवाल मेरे मन पर विद्युत रेखाओं की तरह चमक उठे। क्यों मनुष्यों को इतना लाँछित होना पड़ता है ? भेदभाव की कुटिल धार से कटा इंसान ईर्ष्या के तुषानल में कब तक सुलगता रहेगा ? न जाने ऐसे कितने ही और सवाल जिनका जवाब मुझे समझ में नहीं आया। मैंने अपनी माता से पूछा तो उन्होंने बताया जब तक मनुष्य में देवत्व का उदय नहीं होता धरती इसी तरह बनी रहेगी और धरती का स्वर्ग बनना तब तक संभव नहीं जब तक भगवत् चेतना का अवतरण नहीं होता। व्यक्ति विशेष पर नहीं समूची मानव जाति पर। कैसे होगा यह अवतरण ? माँ से मेरा अगला सवाल था बेटा। इसके लिए पुकार चाहिए सच्ची अभीप्सा। समूची सत्ता को आकुल होकर उन परमदेव को पुकारना पड़ेगा। पुकारने वाले में ऐसी आकुलता हो कि समूची सृष्टि आकुल हो उठे।”
“मैं पुकारुँगा, आह्वान करूंगा-उस परम चेतना का। मैंने अपनी माँ को वचन दिया। माँ ने एक बार मेरी ओर संदिग्ध दृष्टि से देखते हुए कहा-वत्स ! बात अकेले की नहीं समूची वसुधा की हैं इसके लिए ऐसा व्यक्ति चाहिए जिसके मन में व्यक्तिगत स्वर्ग-मोक्ष, सिद्धि, चमत्कार की कोई कामना न हो। जो धरती का प्रतिनिधित्व कर सके। युगों से धरती अपने इस लाल को तलाश रही है। सच माँ-तेरे चरणों की सौगंध मैं बनूँगा धरती माता का लाल और मैं चल पड़ा हूँ-माँ का आशीर्वाद मेरे साथ है। चलते समय उसने कहा था बेटा। अपने निश्चय पर अटल रहना, इस कदर दृढ़ कि तेरा नाम दृढ़ और अटल होने का पर्याय बने।”
इतना कहकर वह चुप हो गया। आँखें नीचे कर लीं। सातों ऋषि एक दूसरे की ओर देखकर मुस्कराए। कहा-”पुत्र ! तुम से इस संसार को परम लाभ होगा। तुम पहले व्यक्ति हो जिसने समस्त पार्थिव चेतना में परम ज्योति के अवतरण का संकल्प लिया है। इस अविनश्वर आदर्श की स्थापना करो। प्रभु तुम्हें अपना यंत्र बनाकर धरती पर स्वर्ग राज्य लाना चाहते हैं। हमें दृढ़ विश्वास है, तुम भी दृढ़ रहो-तुम्हारा निश्चय सफल हो।”
आशीर्वाद देकर ऋषिगण एक ओर चले गए। वह अपने अंतराल में दुर्बलता पर विजय पाने वाली एक अज्ञात शक्ति अनुभव कर रहा था। चलते-चलते परम रमणीय प्राकृतिक दृश्य के एक अपूर्व वन में पहुँच गए। चारों ओर से स्वर्गीय स्वप्न की मनमोहनी माया में चिरकाल के लिए जीवों को लुभा रखने की शक्ति उस वन के पल्लव पर क्रीड़ा कर रही थी। उसको यह स्थान बड़ा हृदयग्राही लगा। इधर-उधर छोटी-छोटी पहाड़ियाँ, वनदेवी की शोभा का गौरव किरीट धारण किए थीं। छोटे-छोटे झरने हृदय के आनंदोच्छ्वास हो रहे थे। चिड़ियों की चहक आनंद की स्वागत रागिनी थी। इस सजीवता को ध्रुव आँखें खोले बड़ी तृप्ति के साथ निहारते रहे। दिन भर की थकावट क्षणभर की शक्ति से जाती रही। निराशा की अलस अँगड़ाइयाँ सकुचा कर कहीं दूर जा दुबकी। बाह्य सजीवता ने अंतर्मन को जीवित कर दिया। वह एक छोटी सी चिकनी शिला पर बैठकर स्वयं के भविष्य की कल्पना के सहारे देखने लगे।
दिन भर हारे-थके सूर्य अस्ताचल की ओर धीरे-धीरे प्रस्थान कर रहे थे। कनक किरणों के साथ प्राणियों की जाग्रति भी संसार की गोद से विलुप्त होती जा रही थी। थके-माँदे लोगों के शरीर निद्रा में प्रवेश करते जा रहे थे।
दिवस का अवसान हो गया। किरणों का राज्य उठ गया। सारी सृष्टि शिथिलता के जादू से मोहित हो गई। पर ध्रुव उसी वन में चुपचाप भविष्य की चिंता में डूबे विचार करने में लगे थे। उनके भविष्य में सृष्टि का अभाव था। आखिर वह उससे एक जो थे। इतनी दूर तो वे चले आए, पर अब क्या करें। चारों ओर से न जाने कितनी दूर मार्गों का प्रसार बढ़ता ही चला गया है। क्या वे चिरकाल तक मार्ग पाकर अपने उद्देश्य की सिद्धि तक पहुँच सकेंगे। अंतरात्मा इससे इंकार कर रहा था। पर और कोई उपाय भी नहीं। कहाँ जायें ? किस तरह पुकारें ?
सोचते-सोचते हृदय की विकलता सीमा को पार कर गई क्षण भर के लिए एक दुर्बलता सामने आ खड़ी हुई। साहस का बाँध चटकने लगा। आँखों पर निराशा की घटा गहरा उठी। शिथिलता की बूँदों से उनका सर्वांग नहा उठा-हाथ उठाने की ताकत भी जाती रही। थोड़ी देर मूर्छित पड़े रहे वह। दस साल का बालक अपना प्राण अपना अपमान अपना संकल्प स्नेह की मूर्ति अपनी माँ को भी भूल गया। मूर्छा के अंधकार ने पहर भर तक देह दशा की सुध न रहने दी।
हिंस्र जंतु जंगल में चारों ओर चक्कर लगा रहे थे। यहाँ उनका निष्कंटक राज्य जो ठहरा। अपने शिकार की तलाश में फेरी लगाते हुए मूर्छित बालक के पास भी आए तो, पर सूँघ कर लौट गए। इन हिंसकों की हिंसावृत्ति को बालक के अंदर अपना विरोधी भाव न मिला।
कुछ पल बाद ध्रुव ने आँखें खोलीं। देखा चारों ओर सन्नाटा था। पेड़ों के पत्ते भी नहीं हिलते थें जमीन और आसमान दोनों अंधेरे की काली चादर में अपने को लपेटे थे। तभी उन्हें याद आयी माँ की आज्ञा, उसे दिया गया अपना आश्वासन। याद आए ऋषियों के आशीर्वचन। हृदय एक बार फिर जोश की तरंगों की गर्जना से भर उठा। फिर निश्चय हुआ कि जीवन में मृत्यु का सामना एक बार ही तो करना है तब क्यों न मैं अपने महान संकल्प को सामने रखकर मौत के लिए तैयार रहूँ। विकल जीवन से मौत कहीं अधिक गौरवप्रद है।
इसी सोच विचार में रात्रि पार हो गई जागरण के तप्त चुँबन स्वरूप सूर्य भी धीरे-धीरे आ विराजे। प्रभाती की स्वर हिलोर फिर धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक धावा मारने लगी। ध्रुव का मन इस दृश्य से विरक्त था॥ मानों उनकी प्रबल अभीप्सा शरीर छोड़कर अपने लक्ष्य में जा मिलना चाहती हो।
अभीप्सा की तीव्रता ने गुरु को आकर्षित किया। गुरु रूपी दर्पण ही तो परमात्मा को प्रतिबिंबित करता है। गुरु और परमात्मा अभेद हैं सर्वथा अद्वय। शास्त्रों के इस कथन के अनुरूप जैसे-जैसे उनकी विकलता बढ़ती जा रही थी-त्यों-त्यों गुरु निकटस्थ होते जा रहे थे। यथा समय वे सामने आकर खड़े हो गए। पूछा पुत्र तू कौन है ? इस बीहड़ आरण्य में तू क्यों आया ?
रात भर की चिंता ने उन्हें अवसन्न कर दिया था। पलकें झपकते हुये सामने खड़ी तेजोमूर्ति को प्रणाम करते हुए बोले-”मेरा नाम ध्रुव है। धरती पर परमात्म चेतना का अवतरण, यही है मेरा उद्देश्य।” अधिक कुछ बता सकने जैसी स्थिति उस समय की नहीं थी। दस साल के बालक का इतना महान संकल्प । सुन रहे देवर्षि नारद आश्चर्य से भर गए। मन ही मन उसकी प्रशंसा कर वाणी से परीक्षा लेने के स्वरों में बोले-बेटा ! तुम अभी बालक हो। तुम्हारा स्थान अभी माँ की गोद है-पिता का सुवास है, हिंस्र जंतुओं से भरा अरण्य नहीं। किसी कारण यदि घर से रूठ भागे हो, तो मेरे साथ लौट चलो। मैं तुम्हारे माता पिता को समझा दूँगा। तुमको किसी ने बहका दिया है। तुम जिस संकल्प की बात कर रहे हो वैसा संकल्प त्रैलोक्य में किसी ने नहीं लिया, शायद कोई पूरा कर भी नहीं सकता।
“तो आप मुझे डराने आए हैं। ध्रुव की आंखें एक तीव्र ज्योति स चमक उठीं। मैं बालक हूँ ठीक है। इसका मतलब यह तो नहीं कि बालक होना अपराध है मात्र इसके कारण धरती के कष्ट निवारण का कोई अधिकार नहीं। आप यहाँ से पधारें, मुझे किसी भी कीमत पर वापस नहीं लौटना। मेरे जीवन का मूल्य संकल्प है और संकल्प का मूल्य जीवन।”
प्रबल संकल्प निष्ठा और तीव्रतर अभीप्सा को देख नारद की करुणा पिघल उठी। उन्होंने अपने शिष्य को पहचाना। उसके महान भविष्य को याद करके उनके हृदय में आनंद की लहरें उठने लगीं। ध्रुव की ओर स्नेह भरी दृष्टि फेरते हुए कहा-”पुत्र ! बालक होना अपराध नहीं सौभाग्य है। ध्रुव ने अपनी कोमल बाहों से देवर्षि के पैर पकड़ लिए। साथ ही बड़ी देर से रुके वेदना के आँसू झरने की तरह बह-बह कर नारद के पैरों की धूल धोने लगे। उठो ध्रुव ! देवर्षि उसे स्नेहपूर्वक उठाते हुए बोले धरती पर स्वर्ग के अवतरण का महान कार्य बालकों द्वारा ही संभव है। उनका निश्छल और निर्मल अंतःकरण जितना शीघ्र परम ज्योति से ज्योतित हो सकता है, उतनी शीघ्रता प्रौढ़ पुरुषों के लिए संभव कहाँ ?
आकार पाकर पक चुके बर्तनों को नवयुग के अनुरूप स्वयं को ढालने के लिए पहले स्वयं धूलकण बनना पड़ेगा। तभी इन कणों को बटोर कर नया रूप दिया जा सकना संभव है। जो स्वयं की प्रौढ़ता का गर्व करते परिपक्वता के अहं में फूले नहीं समाते उनका यही हाल है। बच्चे तो सनी सनाई कच्ची मिट्टी के लोंदे हैं जिन्हें अपनाकर परमात्म चेतना अनेकों दीपक गढ़ लेगी। उसकी चेतना से ज्योतित ये दीपक संपूर्ण सृष्टि को प्रकाश से भर देंगे।
नारद के लंबे कथन को बालक ध्रुव मनोयोग पूर्वक सुनता रहा। आज उसे पहली बार बालक होने के महत्व का पता चला। साधना की प्रक्रिया समझाते हुए वह बोले सावधान ध्रुव ! माया के अनेकों प्रलोभन तुम्हारे सामने आवेंगे। स्वीकार न कर बैठना उन्हें। तुम्हारा महान संकल्प के आगे ब्रह्मा का पद भी तुच्छ है। मैं सब समय साथ रहूँगा। हृदय से आशीर्वाद देता हूँ तुम्हारा संकल्प पूर्ण हो।
ध्रुव के भूमिष्ठ हो प्रणाम करते ही नारद का ज्योति शरीर आकाश में ऊपर उठने लगा। ध्रुव की उस क्षीण होती जा रही प्रकाश रेखा को
हाथ जोड़े एकटक देख रहे थे। रेखा ने बिंदु का रूप लिया अंत में बिंदु विराट में विलोप हो गया।
अब दिन-पर-दिन उनकी साधना उच्च से उच्चतर सोपानों को पार करने लगी। क्रमशः वह उस अवस्था में जा पहुँचे जिसमें ईश्वर का नाम उनके रोम-रोम में व्याप्त हो गया।
साधना के प्रभाव से मुखमंडल पर स्वर्गीय ज्योति आ विराजी। वह पहला शरीर ही बदल गया। सिद्धि के लक्षण धीरे-धीरे प्रकट होने लगे। जब-जब निराशा अपना प्रभाव दिखाती गुरु की शक्ति उसे भगाकर मन को तत्काल ईश्वराभिमुख कर देती। यहाँ तक कि शरीर का भान भी जाने लगा। भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, आदि शरीर पर प्रभाव डालने वाले विषय छूटते गये। कहीं सप्ताह-दो-सप्ताह में यमुना का जल और पेड़ों से पककर गिर गए पत्तों को खाकर तृप्त हो लेते।
क्रमशः तपस्या के पीछे भूख और प्यास भी हट गई। उनकी पुकार में तीव्रता और तल्लीनता बढ़ती गई। तैल धारावत् ध्यान अबाध और अविराम था। सिद्धियाँ और शक्तियाँ आकर एक कोने में पड़ी रहीं। उनकी ओर देखने की फुरसत किसे थी। यही हाल प्राण मन की अधिष्ठात्री शक्तियों द्वारा उपस्थित की गई विघ्न बाधाओं का था। लोक-लोकाँतर के वैभव व्यर्थ होते गए। आरोहण का ऊर्ध्वमुखी वेग निरंतर वृद्धि पाता जा रहा था।
एक दिन परम लोक के अधीश्वर बरदम हिल उठे। इधर ध्रुव का हृदय अज्ञात प्रसन्नता से भरा था। प्राणों को समर्पण करने की भावना ज्यों-ज्यों बढ़ रही थी, त्यों-त्यों एक अद्भुत आनंद हृदय को व्याकुल करता जा रहा था।
एकाएक परावाणी गूँजी-ध्रुव ! तुम्हारा तप पूर्ण हुआ। तुम्हें क्या चाहिए ? उसने आँखें खोली देखा बाहर भगवत् चेतना, शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी भगवान विष्णु के रूप में खड़ी है। हाथ
जोड़कर स्तुति करते हुए बोले-”प्रभु ! इस जन का संकल्प आपको अविदित नहीं है। मैं नहीं समूची पार्थिव चेतना-अखिल सृष्टि आप सर्व समर्थ से एकाकार होने के लिए आतुर हैं। समूची मानव ज्योति को केंद्र बनाकर आप धरती पर अवतरित हों। भारत की पुण्य भूमि अनेकों ध्रुव सृजित करती रहे।”
“एवमस्तु !” एक अपूर्व मधुर स्वर गूँजा। जो निश्चित ही इस सृष्टि की शब्द सामर्थ्य से परे थे। अभी भी चेतना की किन्हीं गहराइयों में वाक्देवी संगीत की स्वर लहरियों में प्रकट हो रही थी जब-जब ध्रुव जैसे किसी बाल मन की निर्मलता से पुकार की निश्छल तरंग उभरेगी मैं वहाँ अपने को प्रकट करूंगा।