मैडोर्ना के आँसू व अन्य अनसुलझी पहेलियाँ

December 1993

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इस संसार में अभी जितना कुछ जाना जा चुका है, उससे अनेक गुना ज्यादा अविज्ञात है। जो ज्ञात हो चुका, उसे लौकिक की श्रेणी में रख दिया गया और जिनके रहस्य अनावृत होने बाकी हैं, उन्हें आश्चर्य, अचंभा, अनबूझ, अज्ञात, अलौकिक जैसे नामों से पुकारा जाने लगा। ऐसे रहस्यों में प्रकृति और ब्रह्मांडगत पहेलियों से लेकर जड़ जगत के जड़ पिण्डों की अद्भुतताएँ सम्मिलित हैं। यही अद्भुतताएँ यदा-कदा प्रकट और प्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष होकर लोगों को चमत्कृत करती रहती है।

घटना 6 अगस्त 1945 की हैं। पिट्स वर्ग के व्यापारी एलेन डेमेट्रियस की आर्ट गैलरी में अनेक पेंटिंग्स एवं प्रतिमाएँ रखी हुई थीं। इन्हीं प्रतिमाओं में जापानी लड़की की एक काँसे की मूर्ति भी थी। उक्त दिन वह विग्रह न जाने क्यों रोने लगा। डेमेट्रियस ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि किसी प्रकार वहाँ पानी के छींटे तो नहीं पहुँच गये, उन्होंने उसे कपड़े से पोंछ दिया, पर तब वह आश्चर्यचकित रह गये, जब थोड़ी ही देर में आँखें पुनः सुखाया, किंतु कुछ क्षण पश्चात् वह फिर नम हो गईं। इस प्रकार के कई प्रयासों के बाद डेमेट्रियस को यह निश्चय हो गया कि आँखों से लुढ़कने वाला तरल असावधानी वश पड़ने वाला कोई जलबिंदु नहीं, वरन् यह मूर्ति के रुदन की परिणति है। नेत्रों से बहने वाला पानी आँसू ही है-इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने स्थानीय रसायनवेत्ताओं को जाँच के लिए आमंत्रित किया। कई मूर्धन्य रसायनज्ञों ने इसकी अलग-अलग पड़ताल की, पर सभी का निष्कर्ष एक ही था कि चक्षु से बहने वाला तरल मानसी आँसू ही हैं। उल्लेखनीय है कि प्रतिमा ने उसी दिन से रोना आरंभ किया, जिस दिन हिरोशिमा में अणु बम गिराया गया था। विलाप के कारण का पता अब तक नहीं चल सका। संभव है अगणित दिवंगत लोगों की प्रतिमाएँ अपनी संवेदना प्रकट कर रही हों।

एक अन्य घटना आइलैंड पार्क, न्यूयार्क के कैटसोनिस दंपत्ति से संबद्ध है। गृहस्वामिनी पगोना धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। वह प्रतिदिन सोने से पूर्व मरियम की मूर्ति के सामने प्रार्थना किया करती थीं। यह उसकी नियमित चर्या थी और लंबे समय से चली आ रही थी।

16 मार्च 1960 की रात भी वह अन्य दिनों की तरह प्रार्थना करने लगी। आँखें उसकी मरियम पर टिकी थीं। तभी अकस्मात् प्रतिमा की आँखें अश्रुपूरित हो गईं और कुछ ही पल में दोनों नेत्रों से दो बड़ी-बड़ी बूँदें कपोलों पर ढुलक पड़ीं। आरंभ में उसे अपने चक्षुओं पर विश्वास नहीं हुआ। उसने उन बिंदुओं को स्पर्श कर देखा। वे सचमुच अश्रु-बिंदु ही थे। इसके उपराँत उसने अपने पति पैगियोनाइटिस को आवाज दी और विग्रह-रुदन की बात बतायी। पैगियोनाइटिस स्वयं एक रसायनषास्त्री थे। उन्होंने नयनों से कुछ बूँदें इकट्ठी कीं और प्रयोगशाला में परीक्षण हेतु ले गये। जाँच के पश्चात् नयन-नीर में वहीं सारे गुण पाये गये, जो मानवी आँसू में पाये जाते हैं। मरियम पूरे एक सप्ताह तक रोती रहीं। इस बीच दर्शकों और श्रद्धालुओं का वहाँ लंबा ताँता लगा रहा। बाद में उसको गृह दंपत्ति और लोगों की सुविधा के लिए सैंट पॉल गिरजाघर में रखवा दिया गया।

सन् 50 के दशक में “रोने वाली मैडोना” के प्रसंग ने काफी प्रसिद्धि पायी थी। हुया यों कि सिराक्यूज (इटली) की एण्टोनियेटा की शादी 1953 के वसंत में एञजेलो इयानुसो से हो गई। विवाह में उपहार स्वरूप एण्टोनियोटा को अन्य सामानों के साथ मैडोना की एक मूर्ति भी मिली ! देवी मैडोना के विग्रह को उसने अपने शयन कक्ष में सिरहाने एक आले पर रख दिया। विवाह के कुछ महीने उसके सुखपूर्वक कटे, फिर अचानक एण्टोनियेटा बीमार पड़ गई। उसके सिर में भयंकर दर्द आरंभ हुआ। दर्द बर्दाश्त न कर पाने के कारण एण्टोनियेटा रोती रहती और मन-ही-मन देवी मैडोना से स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रार्थना किया करती। एक सप्ताह बीत गया। एक दिन अचानक एण्टोनियेटा की दृष्टि मैडोना पर पड़ी, तो वह हतप्रभ रह गई। उसकी आँखों में आँसू भरे थे। बिस्तर से तनिक सिर उठा कर देखा, तो ज्ञात हुआ कि मूर्ति के नीचे का आधार भी आर्द्र है।

घटना आग की तरह फैल गई। पुलिस के कानों में भी बातें पड़ी। कुछ अधिकारी आये और विग्रह का सूक्ष्मतापूर्वक निरीक्षण किया। जाँच के दौरान ऐसा कुछ भी नहीं देखा गया, जिसे संदेहास्पद कहा जा सके। उन्होंने मैडोना के नेत्रों को बार-बार पोंछा, पर थोड़ी-थोड़ी देर में आँखें बार-बार भर आतीं। अन्ततः अधिकारीगण जल के रासायनिक विश्लेषण के लिए प्रतिमा को पुलिस स्टेशन उठा लाये। अश्रुप्रवाह इस बीच भी लगातार जारी रहा। वह इस कदर इतने परिमाण में बह रहा था कि उसे उठा कर ले जाने वाले कर्मचारी की कमीज भीग गई। नेत्र जल के विश्लेषण से ज्ञात हुआ कि वह आँसू के समस्त गुणों से संपन्न है। इस मध्य एक आश्चर्यजनक बात यह दृष्टिगोचर हुई कि जब से मैडोना ने रोना प्रारंभ किया था, एण्टोनियेटा का स्वास्थ्य उत्तरोत्तर सुधरने लगा। सिर दर्द भी अब असहनीय नहीं रहा। अंततः कुछ दिनों बाद प्रतिमा का विलाप बंद हो गया। इसके साथ ही गृहस्वामिनी भी पूर्णतः निरोग हो गई।

कई बार ऐसे मामलों में विग्रहों से रक्तस्राव भी होते देखा गया है। ऐसा ही एक दृश्य 1920 के उपद्रवों के दौरान आयरलैण्ड में दिखाई पड़ा। उक्त वर्ष ब्रिटिश सरकार ने वहाँ के राष्ट्रवादी आँदोलन सिन फिन को अवैध घोषित कर उस पर निषेध लगा दिया। इससे क्रुद्ध होकर आँदोलनकारियों ने वहाँ नियुक्त सैनिकों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया। भयंकर मारकाट मची। सैकड़ों की जानें गईं और करोड़ों की संपत्ति बरबाद हो गई। अराजकता चरम सीमा पर थी। 15 अगस्त के दिन टेम्प्लीमोर के टाउनहाँल को जलाकर राख कर दिया गया। इसके साथ कई अन्य इमारतें भी भस्म कर दी गईं।

इस अग्निकाँड के ठीक एक सप्ताह बाद वहाँ के एक धार्मिक नेता टामस ड्वान के घर रखी महापुरुषों संतों और देवियों की सभी मूर्तियों से अचानक खून बहने लगा। रक्त-स्राव लगभग एक महीने तक सतत् जारी रहा, फिर स्वतः बंद हो गया। शरीरशास्त्री पत्थर की मूर्तियों से मानवी रक्त निकलने के रहस्य का किसी भी प्रकार उद्घाटन नहीं कर सके। उक्त प्रकरण का उल्लेख करते हुए चार्ल्स फोर्ट ने अपनी पुस्तक “दि कम्प्लीट बुक्स ऑफ चार्ल्स फोर्ट” में लिखा है कि जितने दिन ड्वान के घर की मूर्तियों में रक्त-स्राव जारी रहा, उतने दिन वहाँ एक अलौकिक शक्ति की अनुभूति निरंतर होती रही। वहाँ जो कोई बीमार आता, वह आश्चर्यजनक ढंग से स्वस्थ हो जाता। लोग इसे संत प्रतिमाओं का आशीर्वाद मानते और स्वास्थ्य लाभ कर फूले नहीं समाते।

इसी प्रकार की एक घटना ब्राजील के पोर्टो एलिगर गिरिजाघर में सन् 1968 में प्रकाश में करीब तान सौ वर्ष पुरानी ईसा मसीह की लकड़ी की एक क्रूस मूर्ति रखी हुई है। उक्त दिन अकस्मात् उससे रक्त बहने लगा। कुछ ही समय में ईसा के हाथ, पैर, कंधे रक्त रंजित हो उठे। खून की परीक्षा करने पर वह मानवी रक्त पाया गया। आशंका-निवारण के लिए विशेषज्ञों ने काष्ठ प्रतिमा की गहराई से छानबीन की, किंतु किसी तरह के संदेह की कोई गुंजाइश नहीं पायी गई। रहस्य अब तक अविज्ञात बना हुआ है।

इससे मिलता-जुलता प्रकरण लिम्पियास चर्च का है। उत्तरी स्पेन के सैनटैण्डर शहर के नजदीक इस गिरिजाघर में ईसामसीह की लकड़ी में उत्कीर्ण एक सुँदर क्रूस-प्रतिमा है। 30 मार्च 1919 को इस मूर्ति ने अद्भुत चेष्टाएँ करनी आरंभ कीं। कभी भगवान ईसा के नेत्र गोलक दांये से बांये घूमते प्रतीत होते, तो कभी विपरीत दिशा में। कभी गर्दन में हलचल होती तो यदा-कदा भौंहे गतिशील दिखाई पड़तीं। बीच-बीच में उनके चेहरे की भंगिमा बदलती रहती। कभी करुणा उमड़ पड़ती, तो कभी कठोरता का, गंभीरता का पुट विराजमान होता। कुछ पल पूर्व जिन अधरों पर मृदु हास्य खेलता होता, अगले ही क्षण उसमें एक अजीब भाव-शून्यता नाचने लगती।

यह सब वहाँ उपस्थित लोगों के अपने-अपने निजी अनुभव थे। जब से उस विग्रह के भाव-परिवर्तन की जनश्रुति फैली थी तब से वहाँ हजारों लोगों ने हजारों प्रकार की ऐसी अनुभूतियाँ प्राप्त की थीं। दर्शकों में एक चिकित्साशास्त्री डॉ॰ मैक्सीमिलियन ओर्ट्स भी वहाँ मौजूद थे। उनसे ईसा के चेहरे का सात गज दूर से एक बायनाकुलर्स के माध्यम से कई घंटे तक अध्ययन किया। जैसे ही चिकित्सक ने अपना यंत्र प्रतिमा के चेहरे पर केन्द्रित किया, एक ताजी रक्त बूँद दाहिने नेत्र से ढुलकते हुए कपोलों पर छलक गई। डॉक्टर ने उपकरण अपनी आँखों से हटाया, कुछ क्षण नेत्र मले और उस दृष्टिभ्रम पर पल भर विचार किया, जो अभी-अभी दिखाई पड़ा था। तनिक सोचने के उपराँत पुनः बायनाकुलर्स चक्षु से आ लगा। रक्त-स्राव अब भी यथावत् हो रहा था। उनने उसका गहराई से निरीक्षण किया, तो उन शोणित बिंदुओं में उन्हें जीवन प्रतीत हुआ। बाद में उन्होंने उपस्थित लोगों को बताया कि भले ही यह अनुभूतियाँ सूक्ष्म स्तर की हों, पर हैं एकदम जीवंत-स्थूल जैसी।

विलक्षणताएँ रहस्य की परिधि में तभी तक बँधी रहती हैं, जब तक उनका कारण न जाना गया हो। हेतु ज्ञात हो जाने के बाद फिर वह अनबूझ-अज्ञात नहीं रह जातीं। ज्ञात से अज्ञात एवं स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने का क्रम हमारा लंबे काल से चला आ रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा, किंतु भौतिक स्तर पर होने वाले इन प्रयासों की भूमिका फिर भी स्थूल ही बनी रहेगी। बीस वर्ष पूर्व की तुलना में आज के विज्ञान ने निश्चय ही अधिक गहराई और अधिक सूक्ष्मता में प्रवेश किया है, इसके बावजूद उसका स्तर स्थूल बना हुआ है। प्रयास जब तक भौतिक स्तर पर जारी रहेंगे, रहस्यों को समझ पाना असंभव बना रहेगा। संभव और सुसाध्य वे तभी बन सकेंगे, जब अध्यात्म का अवलंबन लेकर चेतना को इतना पवित्र और परिष्कृत बना लिया जाय, कि आत्म चेतना एवं परमात्म चेतना में किसी प्रकार का कोई अंतर न रह जाय। स्थिति जब एकात्म-अद्वैत जैसी बन पड़ेगी, तो फिर सृष्टि और उसके पदार्थों का रहस्य समझते देर न लगेगी।


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