शिष्य मंडली ने भगवान बुद्ध से पूछा-”मनुष्य कितने के वर्ग हैं ?” तथागत ने उत्तर दिया “एक वे, जो अपना ही लाभ देखते हैं, भले ही इससे दूसरों को कितनी ही हानि उठानी पड़ती हो। दूसरे वे, जो औरों का भला करता है। तीसरे वे, जो अपना भी भला करते हैं और दूसरों का भी। चौथे वे प्रमादी हैं, जो न स्वयं सुखी रहते हैं, न दूसरों को सुखी रहने देते हैं।
तथागत ने कहा-”मेरी समझ में वे श्रेष्ठ हैं जो अपना भी भला करते हैं और साथ-साथ दूसरों का भी।
एक रात को जब पुजारी मंदिर का द्वार बंद घर चला गया, तो देव मूर्ति बने बैठे पाषाण से, स्तंभ के पाषाण ने पूछा-”क्यों भाई हम सब एक ही पर्वत पर से चुनकर यहाँ लाये गये हैं। फिर तुम्हें ही यह पूज्य-पद क्यों मिला जबकि मैं यहाँ छत का बोझ सहने को स्तंभ बना हुआ हूँ ?” देवता के आसन पर प्रतिष्ठित पाषाण कुछ विचार कर बोला-”बंधु ! मैं स्वयं इस रहस्य को नहीं जानता। कल मंदिर के पुजारी से पूछूँगा।” अगले दिन जब पुजारी अर्चना के अंदर हाथ जोड़कर विनय-मुद्रा में खड़ा हो गया, तो देव पाषाण बोला-”विद्वान पुजारी ! मंदिर में जितने भी प्रस्तर हैं, वे सभी समान गुण-जाति के हैं, फिर मैं ही पूजा का पात्र कैसे बन गया ? क्या यह रहस्य समझा सकोगे ?”
“आपने बड़े महत्व की बात पूछी है, भगवन्, पुजारी बड़े ही विनम्र वचनों में बोला-”एक गुण-धर्म तथा जाति की सभी वस्तुओं का उपयोग एक पद पर ही हो, यह सर्वथा असंभव है। प्रकृति किसी को भी समान रूप से रहने देना नहीं चाहती। हम मनुष्यों में भी ऐसा ही होता है। बहुत से मनुष्य समान प्रतिभा तथा जाति-गुण के होते हैं, परंतु उनमें से अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण कोई एक ही वरिष्ठ स्थान पाता है शेष सभी उसके नीचे रहते हैं, किंतु जो नीचे हैं, उन्हें अपने आपको हेय नहीं मानना चाहिये, क्योंकि सृष्टि परिवर्तनशील है। इसमें अपने संस्कारों की परिणति के फलस्वरूप कौन, कब, कहाँ चला जायेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। इसलिए बुद्धिमान जन, पद की न्यूनाधिकता से विचलित नहीं होते।”