बंधनों में बाँधती है-आसक्ति

December 1993

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वीतराग-सर्वत्यागी और निष्काम ऋषि भरत इतने निश्छल और निर्विकार रहते थे कि लोगों ने उपहास में जड़ कहना आरंभ कर दिया। जड़ शब्द उनके लिए लोक व्यवहार में इतना प्रचलित हुआ कि उनके मूल नाम से जुड़कर उन्हें जड़ भरत ही कहा जाने लगा। लोग उन्हें कुछ भी कहते मान करते या अपमान निंदा करते या प्रशंसा इसकी उन्हें न कोई अपेक्षा रहती और न ही किसी तरह की चिंता। सरल इतने कि लोग उन्हें मूर्ख समझ कर रोटी के बदले कोई भी बेगार करने को कहते तो वह भी अविचल भाव से कर लेते।

एक दिन की घटना है। सिंधु सौवीर प्रदेश के राजा रहूगण महिर्ष कपिल का सत्संग करने के लिए शिविका पर बैठ कर जा रहे थे, संयोग से उसी समय जड़ भरत विचरण करते हुए दिखाई दिए। वेष विन्यास देखकर उन्हें महर्षि तो क्या कोई भी ब्राह्मण भी नहीं समझ सकता था। शरीर से हृष्ट-पुष्ट और मुद्रा से प्रसन्न सरल भरत को भारवाहकों ने कोई चरवाहा समझा और उन्हें पकड़कर सौवीर नरेश की पालकी उठाने में बीमार साथी के स्थान पर लगा दिया। स्वभाव से ही न करना, नहीं जानने वाले महर्षि भरत ने सहर्ष इस कार्य को स्वीकार किया और रुग्ण व्यक्ति के स्थान पर स्वयं आ गए।

उन्हें इस कार्य का अभ्यास तो था नहीं, इसलिए वे अन्य भारवाहकों की तरह उनके साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे थे। इसके अलावा उन्हें इस बात का भी ध्यान रहता था कि धरती पर रेंगने या चलने वाला कोई जीव पैरों तले कुचल कर न मर जाये। इस सतर्कता एवं अनभ्यस्तता के कारण उनके पैर लड़खड़ा जाते। जब दो-तीन बार ऐसा हुआ और अन्य भारवाहकों की तरह पालकी को कंधा न दे पाने के कारण भरत रह-रह कर लड़खड़ा जाते तो भीतर बैठे सौवीर नरेश भी उछल पड़ते।

जब तीन-बार ऐसा हुआ तो राजा रहूगज ने बाहर देखा। उनकी दृष्टि से ही कहारों ने समझ लिया कि नरेश क्रुद्ध हैं। कहीं एक के किए का दंड सभी को न भुगतना पड़े, इसलिए उन्होंने भरत की गलती के बारे में बता दिया। इस पर सौवीर नरेश ने व्यंग किया, “ओह बंध ! तुम कितने दुर्बल हो गए हो, वृद्धावस्था ने तुम्हें कैसा बना दिया ? यह बुढ़ापा भी कितना बुरा है ? अच्छे भले मनुष्य को भी जीर्ण और दुर्बल बना देता है। शायद तुम थके हुए भी हो और प्रतीत होता है कि तुम्हारे साथी भी ठीक से तुम्हारी सहायता नहीं कर पा रहे हैं।”

भरत ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। वैसे भी कोई कुछ कहता रहे चुप रहना उनके स्वभाव में था। कुछ दूर आगे चलकर वे फिर लड़खड़ाए। अब तो राजा क्रोध से बिफर उठा “क्या बात है मूर्ख ? तुम्हें मेरी बात समझ में नहीं आ रही या तुम बहरे हो।”

मौन तोड़कर भरत ने कहा “राजन ! आपकी पिछली बात मैंने सुनी थी और उसका आशय भी समझा था। मुझे ज्ञात है कि बोझा ठीक से ढोने के लिए होता है और उसे ठीक से ढोना चाहिए। पर मुझे यह समझ में नहीं आता कि आदमी-आदमी के ऊपर बोझा क्यों बने ?”

राजा को इस उत्तर की आशा नहीं थी। एक साधारण सा भारवाहक या सामान्य सा व्यक्ति राजपद पर आसीन व्यक्ति को प्रत्युत्तर दे, एक तो इसी की आशा नहीं थी, उस पर से इतना कड़ा उत्तर राजा को आग-बबूला कर देने के लिए पर्याप्त था। सौवीर नरेश तुरंत पालकी से उतर पड़े। पालकी से उतरते-उतरते ही उन्होंने अपनी तलवार निकाल ली थी। अन्य भारवाहक भय के कारण काफी दूर जाकर खड़े हो गए। राजा रहूगण ने कहा “ रे दुष्ट ! तेरी यह धृष्टता। किस से किस तरह व्यवहार करना चाहिए यह भी तुझे नहीं आता। ठहर मैं अभी तुझे मारकर किए का मजा चखाता हूँ।”

इस पर भी जड़ भरत अविचलित भाव से खड़े राजा की क्रोधित मुद्रा को सदय भाव से देख रहे थे। उनके चेहरे पर रोष, भय, चिंता का कोई नामोनिशान न था। राजा ने खड्ग तानते हुए कहा “तुझे अपनी भूल का क्या कोई पछतावा नहीं ? “ “भूल” भरत ने कहा “भूल तो राजन् मैंने भी की है और आपने भी। इस भूल के कारण ही तो हमें इस संसार में पुनः आना पड़ा। पर मेरी भूल बड़ी थी कि मैं जान-बूझ कर मोह में पड़ा।”

राजा ने समझा-शायद यह पागल है और ऐसे ही कुछ प्रलाप कर रहा है। उन्होंने अन्य कहारों की ओर क्रोधित नजर से देखा, जिन्होंने भरत को पकड़कर पालकी में जोत दिया था, साथ ही कहा-”तुम लोग हो सही में दंड के भागी। तुमने इस पागल को क्यों पकड़ लिया।”

भारवाहक थर-थर काँपने लगे। क्रोध के कारण लाल अँगारे हुई आँखों को देखकर भरत और भी दयार्द हो उठे, “राजन् ! इन लोगों का कोई दोष नहीं है। आप दंड तो मुझे देने वाले थे। मुझे ही दीजिए न।”

अब राजा रहूगण फिर चौंका। कुछ समय पहले पहेलियाँ बुझाने वाला यह व्यक्ति अब कितनी विनम्रता पूर्वक बात कर रहा है। राजा की कुछ समझ में नहीं आ रहा था, तभी भरत ने कहा-”दीजिए न राज दंड ! आप किसे दंड देने वाले थे। आपने मेरे इस स्थूल शरीर को देखकर ही व्यंग किया था न लेकिन इसे काटकर तो आप मुझे मार नहीं सकते। जिस तरह आप इस सिर से धड़ को काटकर अलग गिरा हुआ, छटपटाता देखेंगे, उसी प्रकार मैं भी देखूँगा।”

कहते-कहते भरत के मुख-मंडल पर सौवीर नरेश को एक तेजस्विता दिखाई देने लगी। जड़ भरत कहे जा रहे थे, “शरीर से आत्मा का क्या वास्ता ? भूख-प्यास, क्रोध, अभिमान, क्षीणता, हीनता उनके लिए है जो इंद्रियों के स्वाद में लीन हैं। मैं भी कभी देहासक्ति में डूबा हुआ था और आसक्ति का दंश मुझे एक बार हो चुका है इसलिए आप निःशंक निःसंकोच हो मुझे दंड दीजिए।”

ब्रह्मविद्या के इन गूढ़ रहस्यों को सुनकर क्रोधाविष्ट राजा का क्रोध शाँत हो गया। वे इतने विस्मित तथा पश्चाताप से दग्ध होने लगे कि उनके सामने धरती, आसमान सब घूमने लगे। महर्षि भरत के तत्वज्ञान ने उनको पूरी तरह पराभूत कर दिया और वे पैरों में गिर कर क्षमा माँगने लगे। पूर्णतः अविचल भाव से भरत सौवीर नरेश के क्षण-क्षण बदलते हुए रूप को देख रहे थे और करुणार्द्र हो रहे थे। इधर सौवीर नरेश कहे जा रहे थे “भगवन्” मैं आपको पहचान न सका। अवश्य ही आप उच्च कुल के योगी हैं। मुझ से जो अपराध हुआ है उसके लिए मैं क्या प्रायश्चित करूं।”

“अपराध तो तब होता राजन् ! जब आपके किए से मुझे वेदना या पीड़ा होती। मुझे तो ऐसा कुछ भी आभास नहीं हुआ फिर मैं आपको कैसे दोषी मानूँ और प्रायश्चित या क्षमा का विधान करने वाला मैं कौन होता हूँ।”

सौवीर नरेश ने अपनी यात्रा वहीं स्थगित कर दी और महर्षि जड़ भरत के चरणों में बैठकर ब्रह्मविद्या का ज्ञान प्राप्त किया। महर्षि भरत ने कहा-”राजन् ! आसक्ति ही सब दुखों की जननी है यहाँ तक कि वही पुनः जन्म जन्म लेने के लिए बाध्य करती है। इसके पूर्व मैं मृगयोनि में था और मृगयोनि प्राप्त करने से पहले भी मैं शालिग्राम क्षेत्र में योग साधना करता था। आसक्ति वश ही मुझे मृगयोनि में जन्म लेना पड़ा।”

“यह आसक्ति ही मनुष्य को तरह-तरह से दुख देती और बंधनों से बाँधती है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि कुल, वंश-पद तो क्या इस शरीर से भी आसक्ति न करे। अनासक्त रहकर कर्तव्य कर्म का आचरण करने से मनुष्य जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करता है।”

महर्षि भरत के इन शब्दों को सुनकर सौवीर नरेश को जैसे अंधकार भर पथ में सूर्य का आलोक मिल गया। उन्होंने अपना सारा राज्य गुरु चरणों में दक्षिणा स्वरूप समर्पित कर दिया। महर्षि भरत ने यह कहकर राज्य संचालन का दायित्व राजा रहूगण को सौंप दिया कि “कर्तव्य समझ कर कर्म करो। इसे अपना प्रायश्चित भी समझ सकते हो।”


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