मानव को जीवन जीना सिखाए, ऐसा अध्यात्म दर्शन

December 1993

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समझ-बूझ कर उत्कृष्ट जीवन जीने की सोच का नाम ‘अध्यात्मदर्शन’ है। इस भाव को न समझ पाने के कारण ही इसके बारे में जन सामान्य के मन में तरह-तरह की भ्राँतियाँ घर कर गई हैं। इसे ठीक से न जानने और न समझ पाने के कारण बहुसंख्यक लोग बेतरतीब जिंदगी जीते हैं। क्या उचित है-क्या अनुचित इस पर विचार करने के लिए उनमें रुचि नहीं है। बस नशे की हालत में भीड़ के साथ दौड़े चले जा रहे हैं। जिंदगी सही और ठीक दिशा में चले, इसके लिए स्वयं की स्थिति तथा आस-पास की परिस्थिति के बारे में चिंतन कर अपने रास्ते को तय करना चाहिए।

पुराने समय से लेकर आज तक महान विचारकों न यही काम किया है। भारत की प्राचीन चिंतन संपदा में इन्हीं, की चर्चा है। मनुष्य और विश्व के बीच मनुष्य और प्रकृति के बीच क्या संबंध हैं ? इन्हें कैसे अच्छी तरह निभाया जाय ? जिंदगी का उद्देश्य क्या है ? इन्हीं सवालों पर अलग-अलग पहलुओं से विचार किया गया है। इनका महत्व जितना पहले था उससे कहीं अधिक आज है। आज चारों ओर विघटन बिखरने वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में जो दरारें दिखायी पड़ रही हैं उनका कारण मनुष्य की विचारणा को ही माना जाना चाहिए।

कुछ लोगों की धारणा है कि अध्यात्म या दर्शन सिर्फ बुद्धि का कौतुक-कौतूहल मात्र है, इसमें यथार्थता की गुंजाइश नहीं के बराबर है। इसे एक तरह की भ्राँति ही कहना ठीक है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि चिंतन हमारे व्यवहार का निर्माता है। यदि चिंतन ठीक न हो तो अच्छा-भला व्यवहार कर पाना संभव नहीं हो पाएगा। दर्शन न सिर्फ चिंतन को विकसित कर व्यवहार को उन्नत बनाता है बल्कि उसके आगे बढ़ने में भी सहायक है। मानव मन की एक विशेषता है कि वह वर्तमान में बँध कर नहीं रह सकता, स्थिति विशेष उसे संतोष नहीं देती। वह भविष्य को सोचना चाहता है, आगे बढ़ने में इसे सुख मिलता है। प्रगति की, विकास की यह लालसा उसकी प्रकृति में समाहित है। प्रसिद्ध चिंतक द्वय सतीश चन्द्र चटर्जी व धीरेन्द्र मोहन दत्त ने अपनी किताब “एन इन्ट्रोडक्षन टू इण्डियन फिलॉसफी” में इसी तथ्य को समझाते हुए कहा है कि ज्ञान का लक्ष्य सिर्फ बौद्धिक कौतूहल की तुष्टि नहीं है। इसका ध्येय मुख्यतः दूर दृष्टि, अग्रदृष्टि तथा अंतर्दृष्टि के साथ प्रबुद्ध जीवन व्यतीत करना व व्यवहार को निर्दोष बनाना है। जीवन लक्ष्य की प्राप्ति इसी में सन्निहित है।

भारतीय चिंतन के इस आदर्श को कतिपय पश्चिमी दार्शनिकों ने भी स्वीकारा है। जर्मन दार्शनिक इमानुएल काण्ट ने अपनी रचना “क्रिटिक देर रिनेन वरनुफ्ट” में कहा है कि समूचा दर्शन तीन सवालों के इर्द-गिर्द घूमता है। ये सवाल है ‘मैं क्या जान सकता हूँ ? मुझे क्या करना चाहिए ? मैं किसकी उम्मीद कर सकता हूँ ?’ इन्हीं के जवाबों को तरह-तरह से समझाने की चेष्टा की गई है। आज की परिस्थितियों में इन्हें समझना और भी आवश्यक है। इसे न समझ पाने का कारण है कि हम न जानने योग्य को जानने की कोशिश करते हैं ? जिसकी उम्मीद न करनी चाहिए उस ओर आगे बढ़ते हैं।

जीवन में उत्तरोत्तर उत्कृष्टता की अभिवृद्धि होती रहे, वह योजनाबद्ध रीति से संचालित हो सके, इसके लिए हमें समूची वस्तु स्थिति पर विचार करना होगा। प्राचीन ज्ञान-भंडार के दर्शनों के प्रकार भले छः हों, पर इसका मतलब यह नहीं कि सोचने-विचारने की समूची जिम्मेदारी कपिल, कणाद, जैमिनी, व्यास, गौतम, पतंजलि पर थी। ये तो सिर्फ चिंतन को दिशा देने वाले मनीषी थे। बाकी हर आदमी स्वयं अपना विश्लेषण कर जीवन को सही मार्ग में ले जाने के लिए खुद विचार करता है। सोच-समझ कर काम करने को श्रेष्ठता की मान्यता प्रदान की गई थी। यही कारण है यहाँ के वैभव, जिंदगी जीने की रीति-नीति, को आश्चर्य की दृष्टि से देखा जाता था। यूनानी इतिहासकारों ने भारतवासियों को “दार्शनिकों की जाति” कहकर संबोधित किया था। तौर-तरीकों पर ठीक तरह से विचार संयम मनुष्य को देव तुल्य बना देता है।

महावीर स्वामी

करने, उन पर आचरण करने का प्रतिफल इसे जगद्गुरु के रूप में प्राप्त हुआ था।

पर जब से हमने सोचने समझने को, चिंतन, मनन एवं स्वाध्याय को ताक पर रख दिया। अंधी भेड़ों की तरह जिस किसी तरह आड़ा तिरछा चलने में विश्वास करने लगे। ऐसी स्थिति में अवगति स्वाभाविक है। यदि किसी ने ठीक पगडंडी का चुनाव कर उस पर चलना शुरू कर दिया है तो उसे मंजिल जरूर मिलेगी। हो सकता है इसमें थोड़ी देर सबेर हो जाय, पर जिसकी कोई पगडंडी नहीं, बस यूँ ही घने जंगल में भटक रहा है, उसके पल्ले थकान के अलावा कुछ नहीं हाथ लगेगा, भले ही उसने कितनी ही भाग-दौड़ क्यों न की हो ? सोच-समझ रहित जिंदगी की ऐसी ही हालत है।

आज-कल की परिस्थितियों के संदर्भ में कतिपय चिंतकों ने इसका काफी महत्व बताया हैं। इनमें से एरिक फ्राँस एक हैं। इन्होंने अपनी किताबों ‘इस्केप फ्राँम फ्रीडम’ मैन फॉर हिमसेल्फ एनाटॉमी आफ ह्यूमन डिस्ट्रॉक्टवनेस’ आदि में इसकी विशद् चर्चा की है। उन्होंने नागरिकों की जिंदगी के प्रति सोच को आधार मानकर मानव समुदाय को तीन हिस्सों में बाँटा है। प्रथम है लाइफ अफरमेटिव सोसाइटी, द्वितीय-नॉन डिस्ट्रक्टिव अग्रेसिव सोसाइटी एवं तृतीय हैं-डिस्ट्रक्टिव सोसाइटी। पहले नंबर के समाज को आदर्श माना गया है। इसमें नागरिक जिंदगी के सभी पहलुओं पर विचार करते हैं। हर एक का जीवन कर्तव्यों के प्रति आस्था होती है। ऐसी दशा में उनका व्यवहार सरल सौम्य होता है। पारस्परिक स्नेह सौहार्द्र का सद्भाव उनमें उत्तम संपर्क सूत्र का काम करता है। श्री फ्रॉम के अनुसार समाज का यही आदर्श स्वरूप है जो उसकी दार्शनिक पद्धति से गढ़ा जाता है।

दूसरे नंबर के समाज में लोगों का व्यवहार विध्वंसक तो नहीं पर आक्रामक जरूर रहता है। इनमें सोचने-समझने की रुचि कम होती है। इसी कारण इनके व्यवहार में आक्रामकता ईर्ष्या-द्वेष की प्रवृत्तियाँ पनपती रहती हैं। जीवन में दुःख असंतोष व अतृप्ति का भाव उदय होता है तीसरी श्रेणी विध्वंसक समाज की है। इन्हें अफ्रीका के जंगली कबीलों में देखा जा सकता है। सोचने समझने से इनका दूर दराज तक कोई वास्ता नहीं। काट, हत्या, एक दूसरे को समूल नष्ट करने की प्रवृत्ति इनकी विशेषता मानी जा सकती है। सोचने समझने का कोई तौर-तरीका न होने के कारण मानव देहधारी होते हुए भी गई गुजरी पशुओं जैसी जिंदगी गुजारते हैं। किंतु आज यह तीसरी स्थिति सारे समाज में संव्याप्त दिखाई देती है, मात्र कबीलों तक सीमित नहीं रही।

हम ऐसी गई गुजरी स्थिति में न जा पड़ें। सही ढंग से विकास किया जा सके इसके लिए उचित यही है कि अध्यात्मवादी दृष्टिकोण को जीवन का अभिन्न अंग बनाया जाय। हमारा व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन उन्नत बने इसके लिए दर्शन की इस केन्द्रीय धारणा को ठीक-ठीक धारण करना होगा कि हमारा मन वे चेतना संकल्प शक्ति से संपन्न है। इस सामर्थ्य के बल बूते अपने इर्द-गिर्द होने वाले सब कुछ को जाना-बूझा जा सकता है। आदमी सिर्फ पेशियों तंत्रिकाओं का ढेर भर नहीं है। वह शुद्ध घनीभूत चेतन सत्ता का दिव्य अंश अविनाशी आत्मा है।

दर्शन के इस केन्द्र बिन्दु को समझ लेने से फिर हम वही करेंगे जो इसकी गरिमा के अनुकूल है अपने यथार्थ विकास में सहायक है। कर्तव्य का पालन, न्याय की प्रक्रिया, सद्गुणों के अनुरूप व्यवहार में हमारी वास्तविक इज्जत प्रतिष्ठा, गरिमा, समायी हुई है।

इस तरह जो करने योग्य है उसे करने पर हमारे लिए असीम विकास की संभावनाओं का दरवाजा खुल जाता है। ज्यों-ज्यों हम इन्हें पाते जाते हैं-जीवन अधिकाधिक प्रकाशवान होता चला जाता है। हमारी अपनी स्थिति, इर्द-गिर्द की परिस्थितियों, समय की दिशा धारा देखते हुए सोचने समझने के रवैये में थोड़ा-बहुत अलगाव हो सकता है। पर उद्देश्य एक ही रहेगा-अंतराल के देवलोक का जागरण। मान-दण्ड भी वही होंगे-अर्थात् अपने को समूचे विश्व के साथ एक करना। इसके लिए दैवी सद्गुणों के अनुरूप जीवन जीने की योजना को क्रिया में उतारना होगा।

जैसे-जैसे हम इस दिशा में अग्रसर होते जायेंगे, सारी वस्तु स्थिति स्पष्ट होती जाएगी। साफ-साफ अनुभव हो सकेगा कि जिंदगी को सही ढंग से जीने की सोच-समझ अर्थात् दार्शनिक चिंतन अपना अंतरंग सखा, मित्र, सुहृद सभी कुछ है। जो हमें अपने प्रकाश के व्यावहारिक जीवन की अँधेरी और भू-भुलैयों से भरी राहों में मार्गदर्शन देता है और आगे बढ़ाता है। मनुष्य होने के नाते उचित यही है। कि तत्संबंधी सारी भ्राँतियों से उबर कर इसे स्वीकारा अपनाया और समझदारी का जीवन जिया जाय।


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