तथ्यहीन कौतुक किस काम का ?

December 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विशालकाय संरचनाएँ गढ़ने और अद्भुत इमारतें खड़ी करने का महत्व तब है, जब वह लाभदायक और उपयोगी सिद्ध हों, अन्यथा वे कौतुक कौतूहल मात्र बनकर रह जाती हैं। ऐसे आश्चर्य तो प्रकृति में ही असंख्यों भरे हैं, फिर बहुमूल्य साधन-सामग्री नियोजित कर इन अचम्भों को खड़ा करने की कोई तुक रह नहीं जाती। इतने पर भी न जाने क्यों मनुष्य ऐसे कृत्यों में संलग्न देखा जाता है।

यह प्रवृत्ति मात्र वर्तमान समाज की है, सो बात नहीं। सभ्यता के प्रारंभ से ही इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ मनुष्य में पकने-पनपने लगी थीं, जो बाद में मूर्त रूप धारण कर ऐसे निर्माणों की शृंखला खड़ी करने में तत्पर हो गईं, जिस पर अंकुश अब तक नहीं लगाया जा सका है।

ऐसा ही एक निर्माण अपनी विलक्षणता की गाथा गाते लेबनान में देखा जा सकता है। बेरुत से 53 मील यह भव्य संरचनाएँ रोमन मंदिरों की हैं, जिनके निर्माण काल के बारे में पुरातत्त्ववेत्ताओं का अनुमान है कि यह प्रथम शताब्दी के आस-पास विनिर्मित हुए। मंदिर समूह एक ऊँचे प्लेटफार्म का विहंगावलोकन अत्यंत मनोहारी लगता है, किंतु उक्त निर्माण की यही एकमात्र विशिष्टता नहीं है। सबसे बड़ी विचित्रता वहाँ की वह विशाल दीवार है, जो मंदिर के चारों ओर बनी हुई है। यह दीवार आज भी विशेषज्ञों को अपनी विशालता के कारण स्तंभित किये हुए है। दीवार के पश्चिमी सिरे पर तीन भीमकाय चट्टानें काट कर तराशी हुई स्थिति में रखी गई हैं। यह शिलाखंड अपने विराट् आकार के कारण अजूबे और विश्व प्रसिद्ध बने हुए हैं। आधुनिक इंजीनियरों के लिए सर्वाधिक आश्चर्य की बात यह है कि इतने बड़े शिलाखंड खदान से उस स्थान तक लाये किस प्रकार गये ? और यदि किसी विशेष युक्ति से यह संभव हो सका, तो फिर उन्हें वर्तमान स्थान और स्थिति में रख पाना किस भाँति शक्य हो सका ? उनके लिए यही सबसे जटिल प्रश्न बना हुआ है, जिसका उत्तर दे पाना अभी शेष है, क्योंकि उनका मानना है कि आज के वैज्ञानिक युग में अत्याधुनिक परिष्कृत यंत्रों के माध्यम से भी यह कार्य संपादित कर पाना एक प्रकार से टेढ़ी खीर है, फिर भी रोमन साम्राज्य के दौरान इसे संपन्न किया गया और तब से लेकर अब तक की करीब दो हजार साल की अवधि तक में वे अपनी स्थिति यथावत् बनाये हुए हैं। यह और भी विस्मयकारी है।

चट्टानें “ट्रायलीथन” के नाम से प्रसिद्ध हैं। आकार-प्रकार में यह इतनी विस्तृत हैं कि यदि वे खड़ी की जा सकें, तो प्रत्येक प्रस्तर खण्ड आज की छः मंजिली इमारत जितने ऊँचे होंगे। सबसे बड़ा खण्ड 64 फुट ऊँचा, 12 फुट चौड़ा और 14 फुट लंबा है, इसका वजन करीब आठ सौ टन है। यह शिलाएं बारबेक स्थित मंदिर स्थल से लगभग एक मील दूर एक खदान से काट कर निकाली और निर्माण-स्थल तक लायी गई, जहाँ उन्हें 25 फुट ऊँचे छोटे पत्थरों से बने प्लेटफार्म पर रखा गया। इनके सिरों को इतनी दक्षता पूर्वक परस्पर मिलाया और जोड़ा गया है कि उनके बीच ब्लेड को भी घुसा पाना संभव नहीं। इससे तब की उच्चस्तरीय शिल्पकला का संकेत मिलता है। रहस्य तब और गहरा जाता है, जब यह ज्ञात होता है कि खदान में ट्रायलीथन से भी विराट आयतन वाला एक पाषाण-खण्ड अब भी पड़ा हुआ है, इसका वजन हजार टन जितना आँका गया है। इसके संबंध में कोई यह नहीं जानता कि इस अंतिम खण्ड का प्रयोग क्यों नहीं किया गया ? शायद आज के विशेषज्ञ इसका यह कह कर उत्तर दें कि तत्कालीय समय की वैज्ञानिक प्रगति के हिसाब से यह चट्टान इतनी भारी साबित हुई कि उसे स्थानाँतरित कर पाना असंभव बन गया हो, फलतः वह अनुपयोग दशा में अपने मूल स्थान में पड़ी रह गई हो।

कारण चाहे जो हो, रोमनों की इस प्रकार की विलक्षण निपुणता के बावजूद भी ऐसा कोई दूसरा उदाहरण रोमन साम्राज्य में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि किसी सनकी सम्राट ने स्वयं को श्रेष्ठ व यशस्वी बनाने के लिए यह संरचना खड़ी की हो और यथास्थिति बनाये रखने के लिए बाद में निर्माताओं का वध कर दिया हो। इतने पर भी आज न तो उसके सृजेता का पता है और न ही उस अद्भुत सृजन को अक्षुण्ण रखने में वह सफल हो सका है। फिर इस अनुपयोगी श्रम का लाभ ? लगभग नगण्य जितना ही है। यदि इतना परिश्रम उसने अपने व्यक्तित्व को गढ़ने और खुद को उत्कृष्ट बनाने में किया होता, तो न सिर्फ वर्तमान में दूसरों के लिए प्रेरणा-स्रोत साबित होता, वरन् उच्चादर्शों के कारण इतिहास-पुरुष बन कर इन दिनों भी जी रहा होता, पर आडंबर के उलझाव ने उसे कहीं का नहीं रहने दिया। न तो जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग बन पड़ा, न वही प्रयोजन सध सका, जिसमें वह प्रयोजन सध सका, जिसमें वह आजीवन संलग्न रहा। हम आकर्षक व्यक्तित्व की संरचना गढ़ें, अनावश्यक कौतुक खड़ा न करें-यही समाज की सर्वोपरि आवश्यकता और समय की माँग है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118